आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय विनय कुमार जी।बेहतरीन लघुकथा।हर शहर के गली कूंचों की यह एक आम समस्या है।इससे निपटने के लिये इन लोगों के स्तर पर ही उतरना पड़ता है।सुंदर रचना।
बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीय विनय सरजी.
आइए आइए जनाब आइए मेरे ज़ेहन में आप का ही ख़्याल गर्दिश कर रहा था l ''रमेश बाबू ने कुर्सी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा'' कैसे हैं रमेश जी '' ठीक हूँ खान साहब.... आज आप अपसेट लग रहे हैं ''रमेश बाबू ने हाथ मिलाते हुए कहा, हाँ भाई भागते-भागते अब थक चुका हूँ ''लंबी साँस भरते हुए ख़ान साहब कुर्सी में धँसते हुए बोले '' अब नहीं भागा जाता रमेश बाबू,
ठीक कह रहें है आप का सेल्स का काम बहुत मुश्किल है , ख़ान साहब के साथ सहमति जताते हुए, अरे हाँ वीरेंद्र जी आप ख़ान साहब हैं,
इंश्योरेंस में आला अधिकारी हैं l रमेश बाबू अपने बगल में बैठे मित्र को परिचय कराते हुए,
अरे भाई! कहने को तो बड़ा पोस्ट है पर कोल्हू के बैल की तरह दिन भर चक्कर काटते रहना पड़ता है ,सुब्ह से मीटिंग, कानकॉल, कलेक्शन, लॉगिन , बॉस का ग़ुर्राना, कितना हुआ, कितना होगा दिन भर बड़बड़ , और टार्गेट हो भी गया तो बॉस तो बॉस होता है! ये क्यूँ नहीं हुआ वो क्यूँ नहीं हुआ, बे वक़्त फ़ोन गाली गलौज तो जैसे उनकी ख़ानदानी लिबास हो ,क्या क्या बताए रमेश बाबू? घर से हज़ारों मील दूर नौकरी कर रहा हूं बच्चों के सुकून के लिए पर अपना सुकून को जैसे परेशानी की ड़ायन निगल गई, काम के सिवा कोई इज़्ज़त नहीं क्या ज़िंदगी है हम सेल्स वालों का l
क्या कह रहे हैं ख़ान साहब , '' रमेश ने उचक कर पूछा'' हाँ भाई
दिनभर का टेंशन ले कर जाओ तो घर वालों पे भड़ास निकलता है , घर वाले हैरान ओ परेशान और कभी कभी तो वीबी कहती है आप अभी से सठिया गए हो, यार...... ये भी कोई जिंदगी है...
अब हमने निर्णय ले लिया है, क्या '' रमेश बाबू कौतूहल भरे अंदाज़ में पूछा'' 'अपना बिजनिश करेंगे' 'खान साहब ज़ोर देते हुए कहा
सही निर्णय है खान साहब कम से कम परिवार के साथ तो रहेंगे,
जी रमेश बाबू और मैंने डिसीजन ले लिया है कल ही रिजाइन कर दूँगा अब अपने शहर अपने घर की बहुत याद आती है
सही है ख़ान साहब ,रमेश बाबू अपनी सहमत जताते हुए शेर पटक दिए
टूटा फूटा गिरा पड़ा कुछ तंग सही
अपना घर तो अपना ही घर होता है,
बेशक़.....
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मौलिक व अप्रकाशित
जनाब रज़ा साहब बहुत बहुत मुबारकबाद बेहतरीन लघुकथा के लिए मोहतरम।
बहुत शुक्रिया मोहतरम आसिफ़ ज़ैदी साहब ,
आदाब। एक नये मसले को उभारती उम्दा रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय सलीम रज़ा 'रेवा' साहिब। कहीं-कहीं संवादों में इंवर्टेड कौमाज़ नहीं लग सके हैं।
बहुत शुक्रिया मोहतरम शेख़ सहज़ाद उस्मानी साहब ,
सही कह रहे हैं आप लघुकथा में जिंदगी का पहला क़दम है ग़लती बहुत हुई होगी, मेहरबानी कर कमियाँ बताइएगा ,
रचना को शीर्षक प्रदान करना आप भूल गये जनाब सलीम रज़ा 'रेवा' साहिब। शीर्षक
सुझाव : सुकून/अपना आशियाना/ अपना घर।
मोहतरम शेख़ सहज़ाद उस्मानी साहब ,
आपका सुझाया शीर्षक बेहतर है पर हमने इसे ''कोल्हू का बैल'' नाम दिया था कैसा रहेगा l
बढ़िया है। लेकिन साथियों की राय ज़रूरी है।
अच्छी लघुकथा की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय सलीम रजा रेवा जी ।
आपकी रचना का सम्प्रेष्ण थोडा बेहतर किया है भाई सलीम राजा रीवा जी, ज़रा देखें:
“आइए आइए, जनाब आइए, मेरे ज़ेहन में आप का ही ख़्याल गर्दिश कर रहा था।“ रमेश बाबू ने कुर्सी की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।
‘कैसे हैं रमेश जी?“
“ठीक हूँ खान साहब। आज आप अपसेट लग रहे हैं।‘’ रमेश बाबू ने हाथ मिलाते हुए कहा।
“हाँ भाई भागते-भागते अब थक चुका हूँ।“ लंबी साँस भरते हुए ख़ान साहब कुर्सी में धँसते हुए बोले, “अब नहीं भागा जाता रमेश बाबू।“
“ठीक कह रहें है आप का सेल्स का काम बहुत मुश्किल है।“ ख़ान साहब के साथ सहमति जताते हुए, अरे हाँ वीरेंद्र जी आप ख़ान साहब हैं, इंश्योरेंस में आला अधिकारी हैं।“ रमेश बाबू अपने बगल में बैठे मित्र को परिचय कराते हुए बोले।
“अरे भाई! कहने को तो बड़ा पोस्ट है पर कोल्हू के बैल की तरह दिन भर चक्कर काटते रहना पड़ता है, सुब्ह से मीटिंग, कानकॉल, कलेक्शन, लॉगिन, बॉस का ग़ुर्राना, कितना हुआ, कितना होगा दिन भर बड़बड़, और टार्गेट हो भी गया तो बॉस तो बॉस होता है! ये क्यूँ नहीं हुआ वो क्यूँ नहीं हुआ, बे वक़्त फ़ोन गाली गलौजतो जैसे उनकी ख़ानदानीलिबास हो, क्या क्या बताए रमेश बाबू? घर से हज़ारों मील दूर नौकरी कर रहा हूँ बच्चों के सुकून के लिए पर अपना सुकून को जैसे परेशानी की डायन निगल गई, काम के सिवा कोई इज़्ज़त नहीं क्या ज़िंदगी है हम सेल्स वालों का।“
“क्या कह रहे हैं ख़ान साहब!“ रमेश ने उचक कर पूछा।
“हाँ भाई! दिनभर का टेंशन ले कर जाओ तो घर वालों पे भड़ास निकलता है, घर वाले हैरान ओ परेशान और कभी कभी तो वीबी कहती है आप अभी से सठिया गए हो, यार। ...ये भी कोई ज़िंदगी है..अब हमने निर्णय ले लिया है।“
“क्या? “रमेशबाबू कौतूहल भरे अंदाज़ में पूछा।“
‘अपना बिजनिश करेंगे ‘’ खान साहब ज़ोर देते हुए कहा।
“सही निर्णय है खान साहब, कम से कम परिवार के साथ तो रहेंगे। “
जी रमेश बाबू और मैंने डिसीजन ले लिया है कल ही रिजाइन कर दूँगा अब अपने शहर अपने घर की बहुत याद आती है। “
“सही है ख़ान साहब। “रमेश बाबू अपनी सहमत जताते हुए शेर पटक दिए,
टूटा फूटा गिरा पड़ा कुछ तंग सही
अपना घर तो अपना ही घर होता है,
बेशक़...
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