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पटल पर सदस्य-विशेष का भाषायी एवं पारस्परिक व्यवहार चिंतनीय

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-178 के आयोजन के क्रम में विषय से परे कुछ ऐसे बिन्दुओं को लेकर हुई चर्चा की सूचना मिली है, और इसी क्रम में उक्त चर्चा को आयोजन के पटल पर पढ़ा और देखा भी गया है, जिनका होना ओबीओ पटल की परम्परा के अनुरूप कत्तई नहीं है. ऐसे कथन, ऐसे वाक्य किसी तौर पर किसी सदस्य की आनुशासनिक-प्रवृति का बखान तो नहीं ही करते, ओबीओ पटल की गरिमा और इसकी मूलभूत अवधारणा की भी अवमानना करते हैं. 

ओबीओ के संचालन के लिए विशिष्ट परिपाटियाँ संयत हुई हैं जिसे ओबीओ-परम्परा के रूप में सभी सदस्य स्वीकारते हैं और उसी अनुरूप पटल पर व्यवहार भी करते आये हैं. ओबीओ गुरु-शिष्य, उस्ताद-शागिर्द की परम्परा के उच्च भावों का आग्रही है. इसी कारण, ओबीओ के पटल पर कोई व्यक्ति गुरु या उस्ताद नहीं होता या अन्यान्य सदस्य शिष्य या शागिर्द नहीं होते.

इस पटल पर गुरु या उस्ताद कोई है तो मात्र एक है - ओपन बुक्स ऑनलाइन का पटल अर्थात ओबीओ स्वयं..इस तथ्य को सभी पुराने सदस्य अच्च्छी तरह से जानते हैं. तथा यही सब कुछ नए सदस्यों से अपेक्षित है कि उन्हें जानना ही चाहिए. .

इस परिप्रेक्ष्य में टिप्पणियों के माध्यम से पोस्ट हुए निम्नलिखित उद्गार ओबीओ के पटल पर सदस्यों से अपेक्षित बर्ताव के विरुद्ध जाते हैं -

क. हम उस्ताद-ए-मुहतरम आदरणीय समर कबीर साहिब के शागिर्द हैं
ख. सभी ओबीओ के सदस्यों ने जो सीखा है यहीं सीखा है उस्ताद-ए-मुहतरम साहिब से
ग. अगर सच्चे मन से उस्ताद-ए-मुहतरम को गुरु माना होता तो आप सभी की गजलों का मैयार कुछ और ही होता
घ. सदस्य कार्यकारिणी होने के नाते तो धन्यवाद कहना चाहिए .. .. .. यह अहसान फ़रामोशी और नीचता नहीं तो और क्या है?

कुछ वाक्य तो निहायत ही घटिया स्तर के हैं, जिनका उल्लेख किया जाना तक असभ्यता की सीमा में आता है.

इस तरह के सवादों और वाक्यों का फिर तो अर्थ ही यही है, कि ऐसा कोई सदस्य पटल को एक ऐसे मंच की तरह व्यवहृत कर रहा है या इसके लिए प्रश्रय पा रहा है, जिसका आशय उसे व्यक्ति-विशेष की, या फिर अपनी, महत्ता को प्रतिस्थापित करना मात्र है. यदि कोई सदस्य किसी स्थान, किसी पटल या किसी व्यवस्था की परिपाटियों को बिना अपनाए कुछ भी कहता, या फिर करता है तो, या तो वह सदस्य अपने ढंग से अपने नजरिया को आरोपित करने का दुराग्रही है. या फिर, उसे इस पटल पर प्रश्रय देने वाले वरिष्ठ सदस्य ने पटल की परिपाटियों से उसे तनिक जानकार नहीं बनाया है. अवश्य ही, इसका कोई न कोई, कुछ न कुछ आशय अवश्य होगा. 
 
गजल के आयोजन के प्रमुख आदरणीय समर कबीर जी हैं, जिनके जुड़ाव को ओबीओ का पटल हृदयतल से स्वीकार करता है. अपनी शारीरिक अवस्था और इसकी सीमाओं को देखते हुए आदरणीय समर जी ओबीओ पटल पर अपनी पहुँच बनाये रखने और इसके साथ अपने जुड़ाव को सतत रखने के लिए अपने स्तर पर कई तरह की व्यवस्थाओं और कई तरह के उपायों पर अमल करते रहते हैं. इसमें एक उपाय है, किसी नौजवान या किसी सदस्य को श्रुतिलेख के माध्यम से अपनी टिप्पणियों को पोस्ट करवाना.

पहले एक लम्बे समय तक उनका पुत्र ही इस कार्य के लिए आदरणीय समर कबीर जी का सहयोग करता था. इसकी चर्चा आदरणीय समर कबीर जी ने कई बार व्यक्तिगत बातचीत में मुझसे की थी. हाल ही में एक सदस्य ’इयूफोनिक अमित’ का भी उन्होंने मुझसे यह कह कर जिक्र किया था, कि वह उनकी वैचारिकता और उनकी सलाहों और उनके सुझावों को समझ पाता है, तथा उनकी अभिव्यक्तियों को पोस्ट कर पाता है.

इस बिना पर आदरणीय समर कबीर जी से स्पष्ट तौर पर पूछना बनता है, कि - 

 

क. इस सदस्य को प्रश्रय देने के क्रम में पटल की परिपाटियों और यहाँ के व्यावहारिक अनुशासन आदि को समझाना आपने कैसे उचित नहीं समझा ?

ख. हालिया सम्पन्न तरही मुशायरा आयोजन के दौरान उक्त सदस्य के निहायत भद्दे अनुशासनहीन व्यवहार और उसकी उच्छृंखल निरंकुश वाचालता और टिप्पणियों को वे कैसे नहीं रोक पाये ?
ग. आदरणीय समर कबीर जी से आखिर ऐसी चूक कैसे हो गयी ? 

हालिया सम्पन्न तरही मुशायरा आयोजन के दौरान हुई ऐसी चर्चा को गंभीरता से लेते हुए ओबीओ प्रबन्धन ने सूचित किया है कि आयोजन के पटल से वैसी सभी टिप्पणियों को हटा दिया गया है जो ओबीओ पटल की गरिमा के विरुद्ध पोस्ट की गयी थीं.

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विश्वास है, सभी सम्मनित सदस्य इस विषय पर अपनी बात रख कर इस पटल के वातावरण को सहज बनाने का प्रयास करेंगे. 


सादर
 

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आदरणीय अमीरुद्दीन जी, किसी को किसी के प्रति कोई दुराग्रह नहीं है. दुराग्रह छोड़िए, दुराव तक नहीं है. अलबत्ता अधिकांश सदस्यों के मन में क्षोभ अवश्य है कि विवेकहीन, वाचाल, सम्पर्क से बने अदीब की समझ कभी गच्चा दे सकती है. वह गच्चा दे गयी. 

आदरणीय समर जी, स्वास्थ्य सम्बन्धी अपनी शारीरिक विवशता के कारण ही अपने संप्रेषणों के लिए अन्यान्य पर निर्भर हैं. यह हम सभी जानते हैं. यही उनके प्रति सम्मान के भाव का मुख्य कारण भी है. लेकिन इस बात के प्रति सतर्क तो रहना ही चाहिए, कि ओबीओ को लेकर आदरणीय की भावना और ओबीओ पर उनकी संलग्नता का कहीं अन्यान्य नाजायज फायदा तो नहीं उठा रहा. वारिस कोई यों ही नहीं बन जाता. तिसपर यह तो साहित्यिक विरासत का मामला है. 

विवेकशीलता आदर, श्रद्धा, वैचारिक अनुगमन और फिर अनुनयन के कठिन दौर से गुजर कर, मतलब, सध कर ही नीर-क्षीर करने के स्तर पर तीक्ष्ण हो पाती है. यह कैसी श्रद्धा है कि हम अपने उस्ताद की ही भरी महफिल फजीहत करा दें ? हमने अपनी हालिया बातचीत में आदरणीय समर जी को गुरु-शिष्य की एक कहानी सुनायी है. जिसमें गुरुजी अपने शिष्यों के अविवेक के कारण अपनी टांगें गवाँ बैठे थे. 

खैर, इत्ती कहना, इत्ता समझना. 

सादर

प्रिय मंच को आदाब,

Euphonic अमित जी पिछले तीन साल से मुझसे जुड़े हुए हैं और ग़ज़ल सीख रहे हैं इस बीच वो ओबीओ के सदस्य भी बन गए और यहाँ के सभी आलेख और पिछले आयोजनों में आई टिप्पणियों को मेरे कहने पर पढ़ते रहे लेकिन कभी कहीं भी कोई टिप्पणी नहीं की सीखने के लिए पढ़ते रहे ।

जब मंच की तरफ़ से मुझ पर तरही मुशाइर: के संचालन की ज़िम्मेदारी आ गई तो जैसा कि आप सब जानते हैं मैं अपनी आँखों की बीमारी में मुब्तिला रहा हूँ पिछले साल इस बीमारी में ये इज़ाफ़ा हो गया कि मेरी दोनों आँखों में ख़ून उतर आया,इलाज के लिए इंदौर के एक बड़े अस्पताल से सम्पर्क किया वहाँ पता चला कि मेरी दाईं आँख बिल्कुल ख़राब हो चुकी है और बाईं को बचाने का प्रयास डॉक्टर कर रहे हैं,और अभी तक उसका इलाज चल रहा है ।

ख़ैर, इस दौरान जब मैं ओबीओ पर कमेंट करने लाइक़ नहीं था मैंने euphonic अमित से कहा कि वो तरही मुशाइर: में आई ग़ज़लों की इस्लाह कर दिया करें,उन्होंने मेरे कहने पर ऐसा किया और पूरी लगन और मिहनत से सबका दिल जीत लिया सभी उनकी टिप्पणियों को पसंद करते थे  उसके गवाह पिछले आयोजन हैं ।

इस बीच मैं भी आयोजन देखता रहता था,तरही मुशाइर: अंक-178 के दौरान मेरे परिवार में मेरे चचेरे जवान भाई का देहांत होने के कारण मैं ओबीओ पर नहीं जा सका, मुझे जनाब निलेश जी ने फ़ोन पर बताया कि मंच पर ऐसी टिप्पणियाँ आई हैं जो ओबीओ की गरिमा को दाग़दार कर रही हैं तो यक़ीन जानिए ऐसा लग जैसे मेरे पैरों तले से ज़मीन निकल गई है, मगर मैं उस समय कोई ऐक्शन नहीं ले सका क्योंकि मैं अपने परिवार में सबसे बड़ा हूँ और मेरी हालत आप समझ सकते हैं, दूसरे दिन मैंने अमित से बात की और क्या कुछ कहा ये बताने की ज़रूरत नहीं है,इतना बताना चाहूँगा कि मैंने अमित को ओबीओ से दूर रहने के लिए कहा ।

मुझे इस वाक़िए का बेहद अफ़सोस है,और अमित मेरा शागिर्द है इसलिए मैं आप सबसे इसके लिए क्षमा चाहता हूँ ।

अब ज़रा इस बात पर भी ग़ौर करने की ज़रूरत है कि ऐसे हालात क्यों बने?

एक लम्बे समय से ओबीओ की प्रबंधन टीम अपनी ज़िम्मेदारी से मुँह छुपा रही है:-

'रखियो ग़ालिब मुझे इस तल्ख़ नवाई से मुआफ़

आज कुछ दर्द मेरे दिल में सिवा होता है'

ये कहना ग़लत नहीं होगा कि काफ़ी समय से पुराने सदस्यों ने मंच पर आना तो दूर वहाँ झाँकना भी पसंद नहीं किया, मैं बराबर सबसे फ़ोन पर ओबीओ पर आने के लिए गुज़ारिश करता रहा,हर महीने वास्ट्सऐप के माध्यम से मुशाइर: में आने की दावत देता रहा,मगर कोई नहीं आया ।

जिन हज़तात ने इस पोस्ट पर अपनी महब्बत का इज़हार किया है वो सब झूटी महब्बत है,(मुझे ये बात कहने के लिए मुआफ़ किया जाए) मगर ये हक़ीक़त है,अब मैं नामज़द सबके बारे में बताऊँगा:-

इस पोस्ट के लिखने वाले जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब बताएँ कि  उनकी ऐसी कौनसी व्यस्तता थी कि उनके संचालन में चलने वाला आयोजन "चित्र से काव्य तक" में वो एक महीने में दो दिन भी मंच पर नहीं आ सके ।

वो कौन था जो उन्हें रात के 12 बजे फ़ोन कर के कहता था कि जनाब बाग़ी जी,और जनाब योगराज प्रभाकर साहिब मेरा फ़ोन नहीं उठा रहे हैं आप ही आयोजन का रिप्लाई बॉक्स ओपन कर दें ।

सबसे पहली टिप्पणी करने वाले जनाब तिलक राज कपूर साहिब जो अब रिटायर भी हो चुके हैं और जिन के काँधों पर मंच ने "ग़ज़ल की कक्षा" चलाने की ज़िम्मेदारी  सौंपी थी वो क्या थोड़ा समय भी मंच को नहीं दे सकते थे?

जनाब शिज्जु शकूर साहिब जो साल्हा साल से कार्यकारणी सदस्य का ठप्पा लगा कर घूम रहे हैं और आज बड़े बडे वादे कर रहे हैं अभी तक कहाँ थे?

जनाब गिरिराज भंडारी जी अभी मंच पर सक्रिय हुए हैं,ईमानदारी से बताएँ कि मैंने माज़ी में उन्हें कितनी बार फ़ोन कर के गुज़ारिश की है कि मंच पर वापस आ जाएँ तो वो मुझे जवाब देते थे कि समर भाई ओबीओ पर आने का कोई फ़ाइदा नहीं क्योंकि वहाँ किसी भी चर्चा का कोई नतीजा नहीं निकलता ।

जनाब रवि शुक्ल जी बताएँ कि मैंने कितनी बार उन्हें फ़ोन किया कि ओबीओ पर आया करें, कभी वो मेरी बात मान कर आ जाते थे फिर ग़ायब हो जाते थे ।

सिर्फ़ एक सदस्य हैं जनाब निलेश 'नूर' जो इस दौरान मुशाइरों में भी शिर्कत करते रहे और ब्लॉग्स पर अपनी ग़ज़लें भी पोस्ट करते रहे और दूसरों की ग़ज़लों पर टिप्पणी भी करते रहे ।

आज फिर सभी में जोश नज़र आ रहा है और ब्लॉग्स भी आबाद हो रहे हैं, देखना है ये जोश कब तक रहता है?

अपने लहजे की कड़वाहट के लिए एक बार फिर मुआफ़ी चाहता हूँ, इस शे'र पर अपनी बात ख़त्म करता हूँ:-

"बात सच है तो फिर क़ुबूल करो

ये न देखो कि कौन कहता है"

आदरणीय समर सर,

वैसे तो आपने उत्तर आ. सौरब सर की पोस्ट पर दिया है जिस पर मुझ जैसे किसी भी व्यक्ति को बीच में नहीं बोलना चाहिए लेकिन फिर भी बात उन चंद लोगों को लेकर है जिनका सम्मान मेरे मन में देवतुल्य है और OBO का मंच किसी देवालय समान है इसलिए मैं बीच में कुछ कहने की धृष्टता कर रहा हूँ.
आशा है इसे आप मेरी अपरिपक्वता मानकर मुझे क्षमा करेंगे.
आपने पहले चार पैराग्राफ में आ. सौरभ सर द्वारा उठाए प्रश्नों का उत्तर दे दिया है. हालाँकि ये वो प्रश्न हैं जिनके लिए आप इसलिए उत्तरदायी नहीं हैं क्यूँ कि 
1) कोई सदस्य क्या टिप्पणी करेगा इस पर आपका कोई नियंत्रण नहीं हो सकता.
2) आपने किसी सदस्य को अपनी ID का excess नहीं दिया था और न ही  टिप्पणियाँ आपके नाम से हो रहीं थीं. हाँ आपके प्रति अति अनुराग अथवा सम्मान में वशीभूत सदस्य यह समझ नहीं सके कि उनका व्यवहार आप के नाम पर लांछन लगा सकता है क्यूँ कि वो स्वयं को आप से जोड़ कर देखते रहे.
3) आपसे बात करने के कुछ समय बाद मैंने उक्त सदस्य को भी फोन पर संपर्क करने का प्रयास किया लेकिन शायद वो व्यस्त रहे होंगे या उन्होंने मेरा कॉल इग्नोर कर दिया होगा अत: उन से संपर्क नहीं हो सका. मैं उन्हें भी यही समझाना चाह रहा था (हालाँकि वो मेरे विषय में भी तब तक बहुत कुछ लिख चुके थे) कि उनकी टिप्पणियाँ आप को आहत करेंगी और अंतत: आपको बिना कारण सफ़ाई देनी पड़ेगी जो किसी भी सच्चे शागिर्द के लिए बहुत ख़राब बात हो सकती है.
4) आप ने ऐसा कुछ नहीं किया कि आप को क्षमा माँगनी पड़े वो भी किसी अन्य व्यक्ति के कारण जो आपके नाम का उपयोग कर के अन्य सदस्यों की अवहेलना का प्रयास कर रहा हो.  आप भी उन्हीं परिस्थितियों के चलते मंच पर समय नहीं दे पा रहे हैं जैसी अक्सर हम सभी के साथ हैं, कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों के साथ हैं. आप की स्थिति तो और भी अधिक विकत इसलिए हैं कि आँखें ही पढ़ पाने का मुख्य आधार है और मंच पढने की परम्परा पर आधारित है, सुनने / बोलने पर नहीं.

उपरोक्त बातों के माध्यम से  मैं यह फिर कहता हूँ कि आप का कोई दोष नहीं है कि आप क्षमा माँगें.
 
अब मैं आपके उत्तर के दूसरे हिस्से की तरफ कुछ कहना चाहता हूँ कि जैसी परिस्थिति आपके साथ आपके स्वास्थ्य और पारिवारिक घटनाओं के कारण बनी है जिसके कारण आप मंच पर नहीं आ पा रहे वैसी ही परिस्थितियाँ मंच और कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों के साथ भी बनी हो सकती हैं.. कारण पारिवारिक, व्यावसायिक अथवा साहित्य से कुछ समय का ब्रेक लेना भी हो सकता है.
यह भी संभव है कि शायद हम उस स्तर का रचनाकर्म न कर पा रहे हों जो शपाठक के रूप में अन्य सदस्यों को आकर्षित कर सके.
यह भी हो सकता है कि देश-काल की परिस्थितियाँ साहित्यिक मानसिकता के अनुरूप न हो और हर कोई अपनी ही उलझनों में हो.
अत: आपका यह प्रश्न कि आ. सौरभ सर कहाँ थे, शिज्जू जी कहाँ थे आदि नहीं पूछे जाने चाहिए थे. ठीक वैसे ही जैसे किसी सदस्य के आचरण पर आप से प्रश्न नहीं होने चाहिए थे.
मुझे लगता है कि किसी के द्वारा किसी पर भी आक्षेप न करते हुए हम सब आगे बढ़ें. 
आप भी मंच पर संचालक के ज़िम्मेदारी छोड़ कर स्वास्थ्य पर ध्यान दीजिये और शौक़िया अपनी मर्ज़ी से जैसा आपका स्वास्थ्य अनुमति दे वैसे भागीदारी रखें. 
अंतत: हम सभी साहित्य में इसलिए हैं कि आनन्द उठा सकें.
मैं अंतत: एक और बात कहना चाहूँगा की आपने अमित जी पर जो प्रतिबंध लगाया है मंच पर आने का, उसे हटा लें और उन्हें भी अपनी बात रखने की अनुमति दें.
मैं उनके कहे, लिखे सभी शब्दों को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ना चाहता हूँ और मात्र एक घटना या एक दुर्व्यवहार को आधार बना कर कोई निर्णय नहीं करना चाहता .
हम सब मनुष्य हैं और हमने भी कई गलतियाँ की हैं, करते रहते हैं.
मैं मंच से आग्रह करता हूँ कि अमित जी को भी स्पष्टीकरण का अवसर दें और वो यदि अपनी भूल स्वीकारते हैं तो इस विषय को विराम देकर साहित्यकर्म को प्रवृत्त हों.

मेरी कही बात से किसी को क्षोभ हुआ हो तो मुझे छोटा समझ कर क्षमा किया जाए,

सादर 

सौरभ पाण्डेय इस गरिमामय मंच का प्रतिरूप / प्रतिनिधि किसी स्वप्न में भी नहीं हो सकता, आदरणीय नीलेश भाई. 

मोहतरम समर कबीर साहब
आदाब,
चूंकि आपने नाम लेकर कहा इसलिए कमेंट कर रहा हूँ।
आपका हमेशा से मैं एहतराम करता आया हूँ, यह मंच भी आपका एह्तराम करता है। इस घटना के लिए आपको कोई दोष नहीं दे रहा है। किसी ने आपके खिलाफ़ कुछ नहीं कहा। यहाँ चर्चा का विषय आप या मंच के अन्य सदस्यों की अनुपस्थिति नहीं है। तो फिर जनाब आपके शागिर्द के खराब व्यवहार के लिए मैं या मंच के अन्य सदस्य कैसे दोषी हो गए। माजरत के साथ आपसे पूछना चाहता हूँ कि शागिर्द की बदसुलूकी का ठीकरा हमारे सर फोड़ना क्या सही है? आपसे दरख्वास्त है कि आप मुख्य मुद्दे को ना बदलें।
आपके ज्ञान का फायदा मुझे भी मिले इसलिए अपनी ग़जलें आपको भेजा करता था। कई बार आपसे सहमत न होते हुए भी आपकी इस्लाह को सहर्ष यह सोचकर स्वीकार किया कि आपके पास <span;>ज्ञान ज्यादा है। बाद में ग़ज़ल भेजना इसलिए बंद किया क्योंकि आपकी तबीअत ठीक नहीं थी। यूफोनिक अमित के पास बेशक नॉलेज है, इस बात से भी इन्कार नहीं कि मुशायरे को उसने अच्छा सँभाला था।इससे मंच और मंच के अन्य सदस्यो की बेइज़्ज़ती का अधिकार तो नहीं मिल जाता है ना। उन्हें जो सुझाव देना है दें, हम मानने के लिए बाध्य तो नहीं है ना आदरणीय।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि उन्होंने किसी के साथ बदसुलूकी की हो। इससे पहले उन्होंने रवि भैया के साथ भी बदतमीज़ी की थी। उन्होंने सौजन्यतावश शांत रहना बेहतर समझा।
आपका एह्तराम करता हूँ, वरना पलटकर उन्हें जवाब मैं भी दे सकता था, मुझे ऐसे गले पड़ू ज़बरदस्ती के उस्तादों से एलर्जी है। यह मंच आपसी चर्चा को प्रोत्साहित करता है। यहाँ कोई गुरु-चेले की रवायत नहीं है, सो उन्हें भी अपने दायरे में रहना था।
एक तो मेरी मस्रूफ़ियत उस पर अपने आपको सर्वश्रेष्ठ बताकर दूसरों को नीचा दिखाने की यूफोनिक अमित की कोशिश, यही कारण था कि मैंने मंच से दूरी बना ली थी। चूंकि वह सक्रिय थे तो मैंने ही अपने पांव खींच लिए। मैंने पिछले कई तरही मिसरे पर ग़ज़ल कही लेकिन उन्हें पोस्ट नहीं किया, यह बात आदरणीय रवि शुक्ल जी भी जानते हैं। क्यों नहीं किया यह भी जानते हैं।
मेरी बातें आपको बुरी लगी हो तो माजरत चाहूँगा। हमारा मंच पर न आना अलग बात है और मंच के वरिष्ठ सदस्यों को गाली देना अलग मसअला है। आपसे एक बार फिर दरख्वास्त है कि दोनों को अलग रखें।

आदरणीय समर साहब, 

इस बात को आप से अच्छा और कौन समझ सकता है कि ग़ज़ल एक ऐसी विधा है जिसकी जानकारी रदीफ़, काफ़िया और बह्र से शुरु होकर उस स्तर तक जाती है जहॉं बड़े-बड़े उस्तादों में भी विवाद बना रहता है। परिणाम यह है कि किसी भी ग़ज़ल पर अंतहीन बहस की जा सकती है। आप लम्बे समय से इस मंच से जुड़े हुए हैं और आपका मार्गदर्शन सदस्य प्राप्त करते रहे हैं, स्वाभाविक है कि आपकी बात को ध्यान से सुना जाता रहा है अत: आपसे जो मोहब्बत विभिन्न सदस्यों की टिप्पणी में आयी है वह दिखावा तो नहीं है यह बात आपका दिल भी जानता है। वर्तमान समस्या का जन्म हुआ है एक सदस्य विशेष की आपत्तिजनक भाषा से। अत: बात वहीं तक है और रहनी भी चाहिये। यहॉं हो रही चर्चा पर आपकी प्रतिक्रिया टिप्पणियों से आहत होकर है और स्वाभाविक है, उसमें भी कुछ ग़ल़त नहीं।

जब मैं शासकीय सेवा में था इस मंच पर अधिक सक्रिय था बनिस्बत आज सेवानिवृत्त स्थिति के। ऐसा भी नहीं कि तरही मुशायरे के दो दिन मैं इस पटल पर सक्रिय न रह सकूँ लेकिन फिर भी मैं दूरी बनाये हुए हूँ तो उसका कारण है जिसे मैनें कभी व्यक्त नहीं किया लेकिन आज उसपर भी खुलकर कहूँ तो कारण बहुत छोटा सा है और वह यह है कि जब मैंनें यह पाया कि यहॉं ग़ज़ल पर चर्चा में दो स्पष्ट समस्या दिख रही हैं तो मैनें यहॉं तरही में आना छोड़ दिया। उन दो समस्याओं में एक तो यह थी कि ग़ज़ल को उर्दू के पैमाने पर देख कर चर्चा होने लगी दूसरी यह कि ग़ज़ल में सांकेतिक भाषा के मूल स्वभाव पर ध्यान न देते हुए शाब्दिक अर्थ पर निरर्थक बहस होने लगी। मैं उर्दु में शून्य होने के कारण उर्दू लिपि और शब्द-संसार पर चर्चा की स्थिति में कभी नहीं रहा। मैंने स्वयं को ग़ज़ल में माहिर कभी नहीं माना और स्वयं को शायर मानता भी नहीं, जो भी थोड़ा बहुत कह लेता हूँ वह कुछ नैसर्गिक रूप से है और कुछ विभिन्न माध्यमों से जानकर है अत: मुझे यही उचित लगा कि मैं अन्य विषयों को समय दूँ। 

जब किसी उर्दू शब्द के प्रयोग पर मुझे शंका हाेती है तो मोहम्मद मुस्तफ़ा खां 'मद्दाह' के शब्दकोष का सहारा लेता रहा हूँ या उर्दूभाषियों से पूछ लेता हूँ।  कुुछ दिनों पूर्व आपसे सलाह कर उर्दू व्याकरण की एक पुस्तक भी ली है जिसकी लिपि उर्दू होने से उस लिपि को सीखना आवश्यक हो गया है और प्रयासरत हूँ। हम हिन्दीभाषियों के साथ तो समस्या यह है कि हम उर्दू लिपि कह दें तो हमें सिखाया जाता है कि उर्दू कोई लिपि नहीं है यह नस्तालीक लिपि में लिखी जाती है। आशय की दृष्टि से देखें तो उर्दू लिपि बोलने का अर्थ तो यही होता है न कि जो भी लिपि प्रयोग में है। 

उर्दू भाषा किसी उर्दू भाषा सीखने वाले को सिखाना और एक हिन्दीभाषी का उर्दू प्रयोग दो अलग-अलग स्थिति हैं और इसका अंतर समझना आवश्यक है। गैर उर्दूभाषी यह नहीं जानता है कि व्यवहारिक उर्दू में लघु मात्रा का प्रयोग आवश्यक नहीं है, यह बंधन केवल अदबी लेखन में ही होता है। ऐसे में हिन्दीभाषी मोहब्बत, मुहब्बत और महब्बत को अलग शब्द मानकर भ्रमित तो होगा ही कि इनमें से कौनसा सही है। ऐसे में हिन्दीभाषी उर्दू शब्दों का प्रयोग भी उसी रूप में करता है जिस रूप में वो हिन्दीभाषा में प्रचलित हैं। सही शब्द सहीह सही यह बात उर्दू लिपि में इस शब्द को पढ़ चुका व्यक्ति जानता है सामान्य हिन्दीभाषी नहीं। हिन्दी भाषी ग़ज़ल का बहुवचन हिन्दी व्याकरणानसार ग़ज़लों ही करेगा जबकि उर्दू व्याकरण अनुसार शायद इसे ग़ज़लात या ग़ज़लियात या कुछ और कहा जाता होगा। हिन्दीभाषी अख़बारों ही कहेगा अख़बारात् नहीं, वह तो यह भी नहीं जानता कि अख़बार ख़बर का बहुवचन होता है, लेकिन उसके शब्दप्रयोग को केवल उर्दू के नजरिये (या शायद नज़रिये) से नहीं देखा जा सकता है। हिन्दीभाषी उर्दू शब्दकोष अथवा व्याकरण नहीं जानता है अत: ग़ज़ल को उर्दू नहीं हिन्दी के नज़रिये से देखना होगा। वह संतुष्ट है कि उसकी बात उसकी भाषा में सामान्यजन तक पहुँच रही है और उन सामान्यजन में से जो भाषा विशेषज्ञ हैं वो उसकी बात समझने के साथ साथ यह भी समझ रहे हैं जो भी भाषा संबंधी त्रुटियॉं दिख रही हैं वो भाषा विशेष के ज्ञान के अभाव से हैं उसकी कहन क्षमता के कारण नहीं। 

अगर यहॉं सदस्यों को उर्दू सिखाना है तो उसकी कक्षा पृथक से प्रारंभ की जा सकती हैं लेकिन तरही की ग़ज़लों में मात्र भाषा के कारण दोषपूर्ण मान लेना एक गंभीर समस्या है। 

आशा है मेरी बात किसी को आहत नहीं करेगी। 

मैं आपके कथन का पूर्ण समर्थन करता हूँ आदरणीय तिलक कपूर जी।

आपकी टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि उर्दू में कईं ध्वनियाँ (देवनागरी अनुसार) एक से अधिक प्रकार से भी लिखी जाती हैं और उनमें अंतर कर पाना अच्छे-खासे उर्दू जानकार के लिए भी सरल नहीं। जैसे स (सुआद, सीन, से), त(ते, तोये), ज़् (बहुत से रूप), ह और अन्य बहुत से वर्ण।

अतः सोती क़ाफ़िये का महत्व बढ़ जाता है और प्रचलन के अनुसार शब्दों का प्रयोग ग़ज़ल की पहुँच को बढ़ाएगा ही।

आ. अजय जी,
ग़ज़ल के जानकार का काम ग़ज़ल की तमाम बारीकियां  (रदीफ़ -क़ाफ़िया-बह्र )बताने  से इतर यह भी है कि शब्द ठीक से बरते जा रहे हैं अथवा मुहावरे, इस्तिआरे ठीक हैं या नहीं.
इसी तारतम्य में उर्दू के अक्षरों, शब्दों  और वाक्य विन्यास की बारीकियों को संज्ञान में लाया जाता रहा है. इसी को इस्लाह के रूप में लिए जाना मंच की परम्परा है.
कोई यदि छत के साथ ख़त क़ाफ़िया लेता है तो यह बात उसके संज्ञान में लाती आवश्यक है कि इन दोनों में प्रयुक्त त (देवनागरी में एक ही वर्ण है) उर्दू में दो भिन्नाक्षर हैं. किसी अन्य मंच पर वह कवि यह घोषणा पहले ही कर दे अथवा उसे यह बारीक़ी कम से कम पता हो यह मंच के वरिष्ठ जन की मंशा है. 
यदि यह न बताया जाए तो इस मंच का स्तर अन्य मंचो जैसा ही हो जाएगा.
इस पर भी मानने का कोई आग्रह-दुराग्रह नहीं है .... लेकिन यह ग़ज़लकार की निरंतरसाहित्यिक यात्रा  के पड़ाव हैं . 
प्रचलन के अनुसार हर को नागरी के की तरह इस्तेमाल से कोई किसी को नहीं रोकता लेकिन यदि शब्द उर्दू का है तो उर्दू की और हिंदी का है तो हिंदी की तरकीब का इस्तेमाल हो यह प्रयास रहना चाहिए ताकि आगे जाकर हास्यास्पद स्थिति से बचा जा सके.
मैंने एक शेर कहा है..
हम जो रोते हैं कुफ़्र होता है 
मज़हब-ए-इश्क़ में मना है ये.  आ क़ाफ़िया में मना ठीक नहीं है लेकिन चूँकि यह बात मुझे यहाँ बताई गयी है इसलिए इसे पढ़ने से पहले ही मैं स्टेज के उस्तादों से क्षमा मांग कर यह घोषणा कर देता हूँ कि इसे हिंदी की तरह इस्तेमाल किया है.
इससे मेरी खिल्ली भी नहीं उड़ती और सुनने वालों को पता चल जाता है कि मैं तुकबंदी का शायर नहीं बल्कि सीरियस शायर हूँ.
पिछले तरही आयोजन में यह आग्रह दुराग्रह में बदल गया इसलिए यह स्थिति उत्पन्न हुई है. 
मैं आशा करता हूँ कि आगे भी हमें इस प्रकार की महीन बातें समझाई जाती रहेंगी.. अन्यथा सिर्फ दाद देने और वाह वाह करने वाले तो कई ग्रुप्स और प्लेटफॉर्म्स हैं.
सादर 

मेरा सोचना है कि एक सामान्य शायर साहित्य में शामिल होने के लिए ग़ज़ल नहीं कहता है। जब उसके लिए कुछ कहा जाएगा तो उसका हर तरह से साहित्यिक कसावट का परीक्षण होगा और उसी कसावट से रचना को मान्यता मिलेगी। सामान्य शायर व्यावहारिक भाषा और कसावट में व्यावहारिक ग़ज़ल कहता है और वह सभी को समझ आ भी जाती हैं। ग़ज़ल कहने वालों से बड़ा दायरा ग़ज़ल का आनंद लेने वालों का है और ये आनंद लेने वाले ग़ज़ल के उन नियमों को न जानते हैं न उसके आधार पर ग़ज़ल का परीक्षण करते हैं, वो केवल कहन का आनंद लेते हैं। जिसे ग़ज़ल की उन बारीकियों में उलझ कर रह जाना है जिनपर उस्ताद शायर भी एकमत नहीं हैं या छूट की बात करते हैं, वो इन बारीकियों में उतर सकता है; अन्य ग़ज़ल के मूल तत्वों और कहन का ध्यान रखते हुए शायरी कर सकते हैं। ऐसी शायरी के शायरों तथा पाठकों/ श्रोताओं का एक अलग और बड़ा वर्ग है।
ग़ज़ल में ऐसे बहुत से दोष गिनाए जाते हैं जो वस्तुतः ग़ज़ल के न होकर, व्याकरण के होते हैं। अतः रदीफ़, क़ाफ़िया और बह्र का कड़ाई से पालन करते हुए इन से भिन्न दोषों को धीरे-धीरे समयानुसार समझते रहें और यथासंभव उनका पालन करते रहें लेकिन उसके लिए कहन को न मारें। साहित्य की सभी विधाएं संप्रेषण के लिए हैं, उस पर केंद्रित रहें।

आदरणीय नीलेश जी, 

 

ऐसी कोई विवशता उर्दू शब्दों को लेकर हिंदी के साथ ही क्यों है ? उर्दू तो एक भाषा के तौर पर ऐसी कोई विवशता ओढ़ती नहीं देखी जाती. वहाँ तो ’ब्राह्मण’ जैसा शब्द लिखा ही नहीं जा सकता. तो उक्त भाषा को कुछ भी नहीं खलता. उर्दू भाषा-भाषाई बड़े इत्मिनान से उसे ’बिरहमन’ में परिवर्तित कर सहज हो लेते हैं. 

   

यूरोप के अधिकांश या सभी देशों की भाषाएँ सर्वथा भिन्न हैं. किन्तु उन भाषाओं की लिपि रोमन ही है, या उसका ही कोई प्रतिरूप हैं. देशों के बदलने के कारण एक ही तरह के शब्द के विभिन्न स्वरूप और उनकी बुनावट तो आपने भी देखी ही होगी. उन शब्दों का उत्स कहीं एक ही भाषा का होगा. फिर भाषानुसार शब्दों की भिन्न-भिन्न बुनावट क्यों है ? या, कैसे है? यूरोप की अक्सर भाषाओं ने अधिकांशतः लैटिन या ग्रीक आदि भाषाओं से ही शब्दों का आयात किया है. परंतु, शब्दों की बुनावट को लेकर कहीं कोई बवाल नहीं होता. जबकि, पुनः, उन सबकी लिपियाँ कमोबेश एक ही हैं? रोमन. 

 

भारत में तो उर्दू और हिंदी, दोनों भाषाओं का मूलभूत स्वरूप एक ही होने के बावजूद इनकी लिपियाँ सर्वथा भिन्न है. हिंदी भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है, जिसकी अपनी विशेषता है. उर्दू भाषा की अपनी प्रच्छन्न लिपि है जिसमें अरबी-फारसी के शब्दो को बरतने में अवश्य आसानी होती है. वैसे, एक बात अवश्य समझ लें, कि उर्दू भाषा ने अरबी-फारसी के आयातित कई-कई शब्दों के मूल अर्थ ही बदल दिये हैं, उनकी बुनावट को तो छोड़िए ही. क्या यह अरबी-फारसी भाषा के साथ घोर कॄतघ्नता नहीं हुई. अर्थात वैसे शब्दों की बुनावट को छोड़िए, उनका मूल अर्थ ही बदल दिया गया है, या बदल कर स्वीकार किया गया है. इस तथ्य पर उर्दू भाषा के विद्वानों का कुछ कहना भी बनता है क्या? लेकिन भाषाशास्त्र के हिसाब से नहीं. 

 

किसी आयातित शब्द का कोई अपनी रचनाओं में प्रयोग करना चाहे तो करे. किन्तु उन शब्दों का ’बलात’ आरोपण क्यों ? हिंदी एक भाषा है और इसमें आयातित शब्दों को एक विशेष बुनावट के साथ स्वीकार किया गया है. जैसा कि हर भाषा का अपना व्यवहार हुआ करता है. फिर उर्दू भाषा-भाषियों के पास ऐसी कम-नजरी क्यों है? साथ ही, आजकल उदारता के साथ देवनागरी लिपि में ’नुख्ते’ का प्रयोग चल पड़ा है. क्या ये नुख्ते देवनागरी लिपि का अंग हैं ? नहीं.

उर्दू भाषा में प्रयुक्त की जाती लिपि को अच्छी तरह जाने बिना आप देवनागरी लिपि में लिखने के अभ्यासी किसी व्यक्ति को यह कैसे बता सकते हैं कि ’आज’ के ’ज’ और ’आवाज’ के ’ज’ में क्या अंतर है ? आप चाह कर नहीं बता सकते. क्योंकि चवर्ग में एक ही ’ज’ है. आप उस व्यक्ति को  सीखने-समझने के लिए सीधा रट्टामार विधि ही बता पाएँगे. क्या यह किसी तौर पर भाषाशास्त्र के लिहाज से कोई वैज्ञानिक विधि है ? कत्तई नहीं.

भाई, यही सारे विवादों की जड़ है. 

उर्दू भाषा के पास सिवा शब्दों के और क्या है ? व्याकरण तो वही है जो हिंदी का है और जो कौरवी भाषा के माध्यम से हिंदी ने अपनाया है. यही मूल कारण है, गजल के नाम पर व्याप गये समस्त भदेस व्यवहार का, जिसकी व्याख्या में कोई वैज्ञानिकता नहीं है.

यहीं ओबीओ अपनी विशिष्टता के साथ सदस्यों के सामने आता है. कि, जो जिस भाषा में चाहे अपनी रचना प्रस्तुत कर सकता है. परन्तु लिपि तो बस देवनागरी होगी. ओबीओ की स्वीकार्य लिपि देवनागरी ही है. यहाँ एक प्रारम्भ में, सन् 2010-11 में कुछ सदस्य हिंदी भाषा के लिए रोमन लिपि का प्रयोग करते थे. वो जमाना और था. फिर, इसी मंच के प्रबन्धन के द्वारा देवनागरी लिपि में ही रचनाओं और टिप्पणियों का पोस्ट किया जाना अनिवार्य कर दिया गया. 

कुल मिला कर हम गजल को एक विधा के तौर पर लें. और, उसके अरूज के प्रति आग्रही हों. शाब्दिक उच्चता और हीनता के आरोपण से हम बाहर निकलें. साहित्यिक समाज पर यह एक अनावश्यक सोच और फिर बहस लाद दी गयी है. 

वैसे इस पोस्ट का एक बिन्दुवत आग्रह था. इसका अपना एक हेतु था. जिसके अंतर्गत आप सभी के समक्ष यह लाया गया था. अब जो भाषाई चर्चा शुरू हो रही है, या इसे शुरू किये जाने का प्रयास हो रहा है, वह इस पोस्ट से इतर विषय है. 

सादर

आ. सौरभ सर,

अजय जी ने उर्दू शब्दों की बात की थी इसीलिए मैंने उर्दू की बात कही.
मैं जितना आग्रही उर्दू शब्दों के प्रति हूँ उतना ही हिंदी के शब्दों के प्रति भी हूँ. 
मेरी हाल की कोई ग़ज़ल मंच पर देख लें जहाँ मैंने दीया को दिया लिख दिया हो या दीपावली को दिवाली लिख दिया हो.
यूफोनिक अमित जी की टिप्पणी पर भी मैंने साफ़ लिखा था कि मैं मंदिर को मंदर लिखे जाने का या दर्पण को दर्पन लिख कर क़ाफ़िया बनाने का घोर विरोधी हूँ. 
दर्पण को दर्पन लिखें तो कोई आपत्ति नहीं है क्यूँ  कि मात्रा  भार समान है   लेकिन न तुकांत के साथ ण का मैं विरोध करता आया हूँ.
उर्दू वालों से आग्रह है कि हिंदी को हिंदी की तरह बरतें .. कई जगह सांस और पवन को स्त्रीलिंगी लेते देखा जा सकता है जो बहुत वीभत्स लगता है. 
भाषा की शुद्धता पर और नए शब्दों का समावेश न करने पर मेरी जगह जावेद अख्तर साहब को सूना जाए वही बेहतर होगा. 
साथ ही दोष और जोश को भी मैं क़ाफ़िया में लेने से बचने की सलाह देता हूँ .. यह ठीक छत और ख़त वाला भ्रम है.
किसी को सही शब्द बताना उच्चता या हीनता कैसे है यह समझ से परे है. विवाद सिर्फ दुराग्रह का है ..और दुराग्रही हिंदी वाले हों या उर्दू वाले..दुराग्रही ही हैं. 
दिक्कत यह है कि उर्दू वाले अपने नियमों के प्रति आग्रही हैं लेकिन हिंदी ने वालों ने छूट दे दे कर शास्त्र का और मंच का बिगाड़ कर लिया है. 
यह बहस अनावश्यक नहीं है . यह हो गया तो राज़दार को राजपाट छोड़ना पड़ेगा और जलील को ज़लील होते रहना पड़ेगा. जो स्थान हिंदी में बिंदी का है वही स्थान उर्दू में नुक्ते का है.
हो सकता है कि किसी भाषा के पास कोई वैज्ञानिकता न हो .. वो भाषा सिर्फ ऊल-जुलूल हो लेकिन प्रश्न यह है कि हिंदी वालों की ऐसी क्या अडती है कि उसी अवैज्ञानिक भाषा के शब्द भी लें और उनको और भी भद्दे तरीके से लें. हिंदी अपने आप में बहुत समृद्ध भाषा है.. हिंदी किसी अन्य भाषा की मुखोपेक्षी नहीं है .. टास्क फिर यह हो कि हिंदी में ही रचा जाए..


और फिर चेहरे की सुन्दरता ऊपर लगी  बिंदी से भी बढती है और नीचे लगे  तिल से भी.

यह इस विषय पर मेरी अंतिम टिप्पणी है क्यूँ कि मैं इस से आगे और कुछ नहीं कहना चाहता ..
हाँ, शीघ्र ही  एक हिंदी ग़ज़ल अवश्य प्रेषित करूँगा 

सादर 
 

आपने, आदरणीय, मेरे उपर्युक्त कहे को देखा तो है, किंतु संभवत: समयाभाव के कारण अभी पूरी तरह से पढ़ नहीं पाये हैं। आप इसे धारे-धीरे पढ़ जाएँ। आपके कई प्रश्नों के उत्तर वहीं मिल जाएँगे। बडी टिप्पणियों की यह सीमा भी हुआ करती है। 

सर्वोपरि, जैसा कि अपनी उपर्युक्त टिप्पणी में ही मैंने अनुरोध किया है, कि प्रस्तुत पोस्ट का अपना एक विशेष हेतु था। वह लगभग पूरा हो चुका है। उक्त असहज घटना और हुई परिचर्चा से सम्बन्धित लगभग सभी बिंदु सतह पर आ चुके हैं।  पोस्ट पर जिन उपस्थित सदस्यों को जो कुछ कहना था, कह चुके हैं। आदरणीय प्रधान-सम्पादक महोदय और प्रबन्धन ने आवश्यक निर्णय से सदस्यों को अवगत करा दिया है। समस्त सदस्यों से निवेदन हैं, कि वे पटल पर तदनुरूप उपस्थिति बनाएँ।

प्रस्तुत पोस्ट को प्रबन्धन द्वारा यथोचित समय में बंद कर दिया जाएगा। 

सादर

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