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हिन्दी और अंग्रेजी साहित्य में नायिका-भेद का स्तर :: एक मूल्यांकन

      हिंदी साहित्य मे नायिका उसे  कहते है जो रस शृंगार से युक्त हो और किसी आश्रय का आलंबन हो I शृंगार में प्रकृति के अनुसार नायिकाओं के तीन भेद बतलाए गए हैं—उत्तमा, मध्यमा, और अधमा । प्रिय के अहितकारी होने पर भी हितकारिणी स्त्री को उत्तमा  I प्रिय के हित या अहित करने पर हित या अहित करनेवाली स्त्री को मध्यमा और प्रिय के हितकारी होने पर भी अहितकारिणी स्त्री को अधमा कहते हैं। धर्मानुसार इनके तीन भेद हैं— स्वकीया, परकीया और सामान्या । अपने ही पति में अनुराग रखनेवाली स्त्री को स्वीया या स्वकीया, परपुरुष में प्रेम रखने वाली स्त्री को परकीया या अन्या और धन के लिये प्रेम करनेवाली स्त्री को सामान्या या  साधारण अथवा  गणिका कहते हैं। वयःक्रमानुसार स्वकीया तीन प्रकार की मानी गई हैं—मुग्धा, मध्या और प्रौढ़ा । इनके भी कई भेद या उपभेद है I

अंग्रेजी साहित्य में नायिकाओ के इतने भेद-विभेद है अथवा नहीं इसे तो कोई अंग्रेजी काव्य-शास्त्र  का ज्ञाता  ही स्पष्ट कर सकता है परन्तु अंग्रेजो कवियो ने अधिकांश वर्णन ऐसे किये है जो भारतीय नायिकाओ से मेल खाते है I सर्व प्रथम नायिका की ही बात करे तो यह शब्द जेहन में आते ही आँखों के सामने एक सुलक्षणा, अनिंद्य सुन्दरी की कल्पना साकार हो उठती है I अंग्रेज कवि भी नायिका को इसी रूप में देखता है I टी लाज की पक्तियां देखिये-

 

       With orient pearl, with ruby red

       With marble white, with sapphire blue

        Her body every way is fed,

        Yet soft in touch and sweat in view

                    Heigh ho, fair Rosaline!

        Nature herself her shape admires;

        The Gods are wounded in her sight;

        And Love forsakes his heavenly fires,

        And at her eyes his brand doth light;

                   Heigh ho, would she were mine !

 

       कवि कहता है उसका शरीर कही लाल मणि, कहीं श्वेत संगमरमर और कही नीलम से पोषित है I हे हो सुन्दर रोजालिन I प्रकृति स्वयं उसके काया की प्रशंसा करती है I देवता उसे देखकर घायल है और प्रेम का देवता कामदेव स्वतः अपने दिव्यास्त्र फेंक देता है और उसकी आँखों में उसका वह चिर-परिचित प्रकाश नहीं रहता i हे हो क्या वह मेरी होगी I

       भारत के पुराने हिंदी चल -चित्र ‘हिमालय की गोद में’ का एक प्रसिद्ध गीत जिसे मुकेश ने गया था –‘ चाँद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था ?  हाँ, तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था i’  स्वकीया  नायिका के बारे मे विवाह पूर्व हर मानव अपने  मन में एक छवि बनाता है और ऐसा ही उस नायिका के साथ भी है वह भी कल्पना में कई मनोरम चित्र बनाती है  i किन्तु भारतीय स्वकीया  इस मामले में उत्तमा कही जायेगी क्योंकि भारत की नारी में यह भावना दृढ है कि—भला है, बुरा है, जैसा भी है,  मेरा पति मेरा देवता है I भारतीय नारी को गरीबी में, अवसाद में, विपन्नता मे, कष्ट में कही भी प्रिय के सानिध्य में भय नहीं लगता i उसे भविष्य की चिंता नही सताती I जैसा भी होगा जी लेंगे I सीता राम के साथ सहर्ष बन जाने को तैयार हो जाती है I प्रिय के बिना महलो का सुख बी इस देश की नारी के लिए तुच्छ है I अंग्रेज नारी इतनी उदात्त है या नहीं पर प्रिय का साथ उसे भी अभीष्ट है

 

          Were I as high as heaven above the plain

          And you, my Love, as humble and as low

          As are the deepest bottom of the main

          Whereso’er you were, with you my love should go.

 

            अर्थात, यदि मै मैदानों के ऊपर स्वर्ग की ऊँचाई पर होती और मेरे प्रिय पाताल के गहरे तल तक नीचे, उतने ही विनम्र तुम जहाँ कहीं भी होते मेरे प्यार मै तुम्हारे साथ जाती I इस कथन में यौवन की उद्दामता है I जवानी का पागलपन है I भारत सा गाम्भीर्य और आदर्श नहीं है I

       भारतीय साहित्य में अधमा नायिका की परिकल्पना है जो प्रिय के प्रेम जताने पर सदैव उसका तिरस्कार करती है I यह अधिकांशतः स्वकीय होती है I अंगरेजी साहित्य में एक व्यक्ति अपने सखा से उसकी आप बीती सुनकर उसे समझाते हुए कहता है ऐसी नायिका को परिभाषित करता है –

 

            Why so pale and wan, fond lover ?

                         Prythee, why so pale ?

            Will, when looking well can’t move her,

                         Looking ill  prevail ?

            If of herself she will not love

                         Nothing can make her,

                        The devil take her !

 

           अर्थात, इतने उदास और मुरझाये क्यों हो ? प्रिया से मिले  ?  प्रथी इतने उदास क्यों ? जब स्वस्थ रहकर तुम उसे द्रवित नहीं कर सके तो बीमार अवस्था में क्या होगा I  यदि उसकी खुद की चाहत नहीं  है तो उसे कोई राजी नहीं कर सकता I  उसे अब पिशाच ही ले जाएगा I

        “आंसू ‘ काव्य में जयशंकर प्रसाद कहते है –

          रो –रो कर सिसक-सिसक कर

          कहता  मै  करुण   कहानी I 

          तुम   सुमन  नोचते  सुनते

          करते   जानी    अनजानी I   

       उक्त पंक्तियों में नायिका की निष्ठुरता का वर्णन है I कवि तो अपनी विरह वेदना की गाथा रो-रो कर सुना रहा है, किन्तु नायिका फूलो को नोचने में व्यस्त है I यहाँ फूलो का मसलना या नोचना नायिका की निष्ठुर मानसिकता का सूचक है I  इतना ही नहीं वह बातो पर ध्यान भी नहीं दे रही और जानी-अनजानी करती जा रही है I अंगरेजी साहित्य में भी ऐसे द्रश्य मिलते हैं –

 

             Wi’  lightsome heart I pu,d a rose,

                     Free off its thorny tree;

             And my false lover staw the rose, 

                    But left the thorn  wi’me.

 

       अर्थात, प्रफुल्लित ह्रदय से मैंने एक गुलाब की टहनी कंटीले पौधे से अलग की I  मेरे झूठे प्रेमी ने गुलाब तोड़ लिया तथा कांटे मेरे पास ही रहने दिया I 

               एक शेर याद आता है –‘ मै जिनके हाथ में इक फूल दे के आया था,  उन्ही के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है I ‘ चल चित्र ‘मुगले आजम ‘ में जब अनारकली को प्रतियोगिता में सलीम पुरस्कार स्वरूप कांटे देता है और कहता है कि तुम्हारी किस्मत में कांटे ही आये है तो अनारकली का जवाब था – कांटो को मुरझाने का खौफ नहीं होता, हुजूर I इसे साहित्य में उत्तमा नायिका कहते है जो प्रिय के तिरस्कार को जब्त कर ले वही तो उत्तमा है I

            किन्तु तिरस्कार और बात है, यदि नायक कही अन्य स्थान पर रात बिताकर आया है और उसके प्रामाणिक चिन्ह भी है तब नायिका द्वारा प्रिय का सम्मान करना कठिन है तथाप यदि कोई नायिका ऐसा करती है तो उसे ‘मध्य-धीरा’  नायिका कहते है I  यहाँ नायिका के मन में छोभ तो होता है पर वह अपने स्निग्ध व्यवहार से छोभ प्रकट नहीं होने देती और पति का उचित सम्मान करती है I अंगरेजी के महान कवि कालरिज ने भी ऐसी नायिकाओ का वर्णन किया है  I  यथा-

 

             But now her looks are coy and cold,

                    To mine they ne’er reply,

             And yet I cease not to behold,

                     The Love-light in her eyes .

        

          अर्थात, लेकिन उसकी निगाहें अब लज्जालु और ठंढी  है I जहां तक मेरा सवाल है वे मुझे उत्तर नहीं देती  और फिर भी मै निहारना बंद नहीं करता I उसकी आँखों में प्रेम की दीप्ति है I

            ‘मध्य-धीरा’ में जितना संतोष है इसका लेश भी ‘कलहंतरिता ‘ में नहीं होता I  यह प्रिय को पाकर भी  कलह करती है I  अब यदि प्रिय नाराज होकर या रूठ कर चला जाए तो यह पीछे पाश्चात्ताप करती है I पाश्चात्ताप ही ‘कलहंतरिता‘ की अंतिम परिणति है I अंगरेजी साहित्य में ‘कलहंतरिता‘ का एक चित्र देखिये –

 

           I  loved him not, now he is gone,    

                       I feel I am alone.

           I cheeked him while he spoke; yet could he

                       A  las !  I  would not check .

 

        अर्थात, मैंने उसे प्यार नहीं किया  I  अब वह चला गया I  जब वह बोला,  मैंने उससे धृष्टता की i वह क्या करता I  आह ! मै नियंत्रण नहीं रख सकी I

                एक प्रख्यात नायिका है – वासकसज्जा I खूब बनी-ठनी, श्रृंगार पटार किये एकदम लका–लक तैयार I    जैसा मधु-यामिनी में होता है I परकीया के लिए तो कभी बड़ी दुरूह स्थिति हो जाती है I मेरी एक कविता   है –

 

                     अम्बर का पट नीला –नीला I

                     चाँद  रुचेगा  आज सजीला I

                     साध  संजोये  छिपकर  बैठा

                     अंतर्मन  कुछ   गीला-गीला I

           पर तारो ने दीप जलाए I  मावस का संदेसा लाये I

                      फिर भी प्राण! सप्राण रहूँ मै

                      रे मन ! कैसे धीर गहू मैं ?

 

       अंगरेजी साहित्य का एक द्रश्य देखिये-

 

            Some  where, meek unconscious dove,

                      that sittest ranging golden hair ,

            And glad to find thyself so fair 

                     Poor child, that waitest for thy love .

            And thinking this will please him best

                     She takes air band or a rose.

 

            अर्थात, कही कोई अवचेतन भली सी लडकी जो अपने सुनहले बालो को संभालती बैठी हो और अपने को इतना सुन्दर समझकर बेचारी बच्ची प्रेम में प्रतीक्षारत हो, विचार करती हो कि यह चीज प्रिय को  अच्छी लगेगी वह कभी अपने रिबन ठीक करती है या गुलाब लगाती है I

        इस क्रम में यदि ‘प्रोषित पतिका’ नायिका का नाम न लिया जाए तो यह चर्चा अधूरी लगेगी i संस्कृत और हिंदी साहित्य तो प्रवस्यत्पतिकाओ के विरह-उच्छवासो से भूरि-भूरि संतप्त है I इस नायिका के वर्णन में तैतीस प्रकार की सभी संचारियो का प्रयोग संभव है I ‘नागमती का विरह वर्णन’ इसीलिये हिंदी  साहित्य की अमूल्य निधि मानी जाती है I जायसी की अतिशय लोकप्रियता के पीछे इस विरह वर्णन और गोरा की पत्नी के विलाप वर्णन का बहुत बडा हाथ है I मैथिलीशरण गुप्त ने भी उर्मिला के विरह वर्णन से साकेत में चार चाँद लगाये है I नागमती, शकुन्तला, सीता और उर्मिला ये सभी प्रोषितपतिका नायिकाये थी I आचार्य रामचंद्र शुक्ल तो जायसी के निम्नांकित दोहे के कायल थे –

                पिव से कहेव सन्देसड़ा     हे भौरा ! हे काग !

                सो धनि विरहै जरि मुई तेहिक धुआ हम लाग I

        अंगरेजी साहित्य में भी प्रवस्यत्पतिकाओ के वर्णन है परन्तु उनमे वह उत्ताप दिखाई नहीं देता I  इसका मूल कारण सांस्कृतिक विभेद है I  पति को परमेश्वर मानने जैसी अंध-श्रध्दा वहां नहीं है I  विवाह वहां सात जन्मो का बंधन नहीं है I निम्नांकित उदाहरण में भारतीय और अंगरेजी प्रोषितपतिका नायिकाओ का अंतर कुछ कुछ स्पष्ट होता है I

 

          Come ye ,yet once again , and set your foot by mine,

          Whose woeful plight and sorrows great no tounge may  well define,     

          My love and lord, alas!  In whom consists my wealth,

          Hath fortune sent to pass the seas, in hazard of his health

          Whom I was won’t embrace with well contended mind.

          Is now amid foe foaming floods at pleasure of the wind .

 

     अर्थात, तुम फिर एक बार आओ और मेरे साथ मुझ पर निर्भर होकर रहो I तुम्हारे भयानक कष्टों और पीडाओ को जुबां बयां नहीं कर सकती I आह , मेरे प्यार, मेरे मालिक I तुम में ही मेरा प्रेम-धन बसता है I तुम्हे सौभाग्य ने बुरे स्वास्थ्य में भी समुद्र पार करने के लिए भेज दिया है I मैंने तुम्हे संपूर्ण मनस तुष्टि के साथ गले भी नहीं लगाया I तुम इस समय पवन के भरोसे समुद्र में उठनेवाले भयानक तूफ़ान के थपेड़ो में पड़े होगे I  

 

 

                                                                                                            ई एस I/436, सीतापुर रोड योजना

                                                                                                             अलीगंज, सेक्टर-ए , लखनऊ

[मौलिक व अप्रकाशित ]

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आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, 

वैसे तो शृंगार पर बहुत कम लिखा है लेकिन आपका हिंदी और अंग्रेजी साहित्य में नायिकाभेद का विवेचन बहुत ज्ञानवर्धक लगा. इस विस्तृत आलेख के लिए आभार. आपकी अध्ययनशीलता और श्रमसाध्य कर्म को नमन.

 

आ० मिथिलेश जी

जिन लेखों को किसी ने पढ़कर टीप नहीं दी  उसे आप पढ़ भी रहे ही और अपने विचार भी दे रहे हैं अब लगता है इन्हें लिखना सार्थक हुआ. सादर आभार .  

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