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मुल्ला दाउद  के ‘चंदायन’ से मुतासिर रहे है जायसी -डॉ, गोपाल नारायन श्रीवास्तव

‘पद्मावत’ मूवी के आने पर आज का आत्ममुग्ध भारतीय यह जान सका कि मलिक मुहम्मद ‘जायसी’ नाम का भी कोई कवि भी था, जिसने अवधी लोक-भाषा में ‘पद्मावत’ जैसा महाकाव्य लिखा I साहित्य के नव अनुरागी भी जायसी को इस वजह से जानते है कि उनका काव्यांश पाठ्यक्रम में है I जायसी अकेले ही नहीं थे, जिन्होंने प्रेमाख्यानक काव्य लिखा I इस परम्परा का सूत्रपात तो डलमऊ, रायबरेली के सूफी संत मुल्ला दाउद ने अपनी कृति ‘चंदायन’ से किया था , जिसमे लोक विख्यात चनैनी कथा का आलम्बन लेकर लोरिक और चंदा की प्रेम कथा का निरूपण किया गया था I इसके बाद इस परम्परा में कुतुबन ने ‘मृगावती’, मंझन ने ‘मधुमालती’, उस्मान ने ‘चित्रावली’. शेख नबी ने ‘ज्ञान-दीप‘, नूर मुहम्मद ने ‘इन्द्रावती‘, कासिमशाह ने ‘हस-जवाहिर’ और जायसी ने ‘पद्मावत’ की रचना की i  जायसी को छोड़कर आज का विद्यार्थी सभवतःप्रेम की अलख जगाने वाले इन बड़े कवियों और उनकी रचनाओं के बारे मे नहीं जानता या बहुत कम जानता है I  वह जो कुछ जानता है महज पाठ्यक्रम की बाध्यता के कारण जानता है I जायसी को भी पढ़ा-लिखा तबका जो थोड़ा बहुत जानता है है, उसका भी मूल कारण यही है I 

प्रेमाख्यान रचने वाले इन सभी कवियों में जायसी बड़े कवि यूँ ही नहीं हैं I ‘पद्मावत’ के अतिरिक्त उनकी छह अन्य कृतियाँ वर्तमान में उपलब्ध है I अवध प्रदेश में आज जो मसले प्रचलन में है, उनकी बानगी इस प्रकार है – ‘आजइ बनिया काल्है सेठ, छूट बैल भुसैले ठाढ़, मांगे बनिया गुर नहीं देय, खावा भात उड़ावा पात, बगुला मारे पखना हाथ, आधे माघे काँबर काँधे. पांचे मीत पचासे ठाकुर, धान क खेत पयारहिं आना I’ यह मसलें हमे तुलसी जैसे महान कवि की रचनाओं से नहीं मिलीं I ये हमें जायसी के मसलानामा से प्राप्त हुये हैं I अवध प्रदेश में आज भी लोग इन मसलों का प्रयोग अपनी बातचीत में करते हैं I इससे सिद्ध होता है कि लोक का यह चहेता कवि अवध की माटी से कितना जुड़ा हुआ है और जन-मानस में उसकी पैठ कितनी गहरी है I जायसी ने सूफी सिद्धांतों और योगिक क्रियाओं को अन्योक्ति अथवा समासोक्ति द्वारा अपनी कथा में जिस तरह अनुस्यूत किया वह इस परम्परा का कोई अन्य कवि नहीं कर सका I उनकी विरहानुभूति कमाल की थी I आज भी हिदी साहित्य में वह बेजोड़ है I इस सबके बावजूद यह कहना असंगत नहीं होगा कि मुल्ला दाउद का ‘चंदायन’ ही सभी परवर्ती प्रेमाख्यानक काव्यों का प्रमुख प्रेरणा-स्रोत रहा है I परन्तु जायसी ने ‘पद्मावत’ की रचना करने में चंदायन काव्य से जो प्रेरणा ली है केवल उसी की चर्चा करना इस लेख का मुख्य अभिप्रेत है I  

 ‘चंदायन’ काव्य के आरम्भ में सिरजनहार अर्थात अल्लाह या ईश्वर की वन्दना करते हुए उसकी रचना-कर्म का एक लम्बा ब्योरा दिया गया है जैसे –

पहिले गायउं सिरजनहारा I  जिन सिरजा यह देस बयारा II

सिरजसि  धरती और अकासू i I सिरजसि मेरु मन्दर कविलासू II

सिरजसि चाँद सुरुज उजियारा I सिरजसि सरग नखत का भारा II

सिरजसि छाँह सीउ औ धूपा I  सिरजसि किरतन और सरूपा II

सिरजसि मेघ पवन अंधियारा I सिरजसि बीजू कराइ चमकारा II  (चंदायन, 1 / 1-5)

            

      ईश-वदना की इसी तर्ज को जायसी ने ‘पद्मावत’ में ज्यों का त्यों स्वीकार किया है , केवल ‘सिरजसि’ के स्थान पर ‘कीन्हेसि’ कर दिया है i यथा –

कीन्हेसि अगिनि, पवन, जल खेहा । कीन्हेसि बहुतै रंग उरेहा ॥
कीन्हेसि धरती, सरग, पतारू । कीन्हेसि बरन बरन औतारू ॥
कीन्हेसि दिन, दिनअर, ससि, राती । कीन्हेसि नखत, तराइन-पाँती ॥
कीन्हेसि धूप, सीउ औ छाँहा । कीन्हेसि मेघ, बीजु तेहिं माँहा ॥ 
कीन्हेसि सप्त मही बरम्हंडा । कीन्हेसि भुवन चौदहो खंडा ॥ (पद्मावत, स्तुत्ति खंड/1 )

 

जायसी ने मुल्ला दाउद की ही भाँति पैगम्बर, अपने गुरुओं और शाहेवक्त और स्थान का स्मरण किया है I यही नहीं उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा भी की है I दाउद के गुरु शेख जैनुद्दीन थे, जो चिश्ती वंश के संत हजरत नसीरुद्दीन महमूद अवधी ‘चिराग ए दिल्ली’ की बड़ी बहन के बेटे थे I

शेख जैनदी हौं पथिलावा । धर्म पंथ जिन्ह पाप गंवावा ॥ (चंदायन, 9 /1)

 

दाउद ने हिजरी सं० 781 में  चंदायन की रचना प्रारम्भ की I उस समय शाहेवक्त दिल्ली के सुलतान फिरोजशाह तुगलक थे I कवि डलमऊ में निवास करता था I

बरिस सात सै होइ इक्यासी । तिहि जाह कवि सरसेउ भासी ॥

साह फिरोज  दिल्ली सुल्तानू । जौनासाहि वजीरु बखानू ॥

डलमउ नगर बसहिं नवरंगा । ऊपर कोट तले बह गंगा ॥ (चंदायन, 17 /1-3 )

 

 ‘पद्मावत’ का समारंभ करते हुए जायसी ने भी इन्ही सब बातों का उल्लेख किया है I अंतर केवल इतना है कि जायसी ने जायस और मानिकपुर–कालपी शाखा के गुरुओं की पूरी परम्परा दे दी है, जिसके कारण आज तक उनके असली दीक्षा-गुरु अनेकानेक कयासों के मकडजाल में फंसे हुए हैं I

सैयद असरफ पीर पियारा । जेहि मोंहि पंथ दीन्ह उँजियारा ॥
लेसा हियें प्रेम कर दीया । उठी जोति भा निरमल हीया ॥
(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/18)

सेख मुहम्मद पून्यो-करा । सेख कमाल जगत निरमरा ॥(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/19)

गुरु मोहदी खेवक मै सेवा । चलै उताइल जेहिं कर खेवा ॥
अगुवा भयउ सेख बुरहानू । पंथ लाइ मोहि दीन्ह गियानू ॥
(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/20)

 

 जायसी ने  ‘पद्मावत’ की रचना हिजरी सं० 927 में प्रारम्भ की i उनके समय में शेरशाह सूरी दिल्ली के सुलतान थे I जायसी ने जायस नगर में रहकर उन्होंने अपना काव्य रचा I

सन नव सै सत्ताइस अहा । कथा अरंभ-बैन कबि कहा ॥(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/24)

सेरसाहि देहली-सुलतान । चारिउ खंड तपै जस भानू ॥ (पद्मावत, स्तुत्ति खंड/13)

जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कबि कीन्ह बखानू ॥(पद्मावत, स्तुत्ति खंड/23)

 

 मुल्ला दाउद ने मुहम्मद साहब के परवर्ती चार खलीफाओं का जिक्र भी ‘चंदायन’ में किया है I

अबाबकर, उमर, उस्मान, अली सिंह ये चारि I

जे निदतु कर विज विस , तुरहि झाले मारि (चंदायन, 7 /6-7)

 

ये खलीफ ‘चार यार’ के नाम से जाने जाते है I चूंकि जायसी के अपने चार यार (बड़े  शेख, मिया सलोने, सालार कादिम और युसूफ) अलग थे i अतः उन्होंने इन्हें मुहम्मद साहब के स्थान के ‘चार मीत’ कहा है –

चारि मीत जो मुहमद ठाऊँ । जिन्हहिं दीन्ह जग निरमल नाऊँ ॥
अबाबकर सिद्दीक सयाने । पहिले सिदिक दीन वइ आने ॥
पुनि सो उमर खिताब सुहाए । भा जग अदल दीन जो आए ॥
पुनि उसमान पंडित बड गुनी । लिखा पुरान जो आयत सुनी ॥
चौथे अली सिंह बरियारू । सौंहँ न कोऊ रहा जुझारू ॥  (पद्मावत, स्तुत्ति खंड/12)

 

      ‘पद्मावत’ में मानसरोवर और मन्दिर का जो वर्णन हुआ है, उसकी नीव मुल्ला दाउद ने पहले ही अपने काव्य में रख दी थी I

नारा पोखर कुंड खनाये I महिदेव जेंहि पास उठाये II (चंदायन, 20 /1)

सरवर एक सफरि भरि रहा I झरना सहस पांच  तिंह पहां II (चंदायन, 21/1)

 

 जायसी ने ‘पद्मावत ‘ में सिघल द्वीप का वर्णनं ‘चंदायन’ के गोबर नामक राज्य के वर्णन के आधार पर किया है I यह अवश्य है कि दाउद ने अपनी बात संक्षेप में एक या दो कड़वक में की है जबकि जायसी ने योगिक सदर्भों की अन्योक्ति से उसे लम्बा और रहस्यमय बना दिया है I यह रहस्यवाद उनके काव्य की अन्यतम विशेषता है I यथा –

नव पौरी पर दसवँ दुवारा । तेहि पर बाज राज-घरियारा ॥
घरी सो बैठि गनै घरियारी । पहर सो आपनि बारी ॥
जबहीं घरी पूजि तेइँ मारा । घरी घरी घरियार पुकारा ॥
परा जो डाँड जगत सब डाँडा । का निचिंत माटी कर भाँडा ?

                       (पद्मावत, सिंघलदीप वर्णन खंड /18)

 

प्रेमाश्रयी काव्यों में नायिका का सौन्दर्य देखकर नायक या प्रतिनायक का मूर्च्छित  हो जाना या नायक के शारीरिक सौष्ठव को देखकर नायिका का संज्ञा खो बैठना एक आम बात है I पर यह अनुकरण परवर्ती प्रेमाक्यानों में ‘चंदायन’ की तर्ज पर ही हुआ है I       ‘चंदायन ‘ में वज्रयानी योगी बाजिर नायिका ‘चाँद’ को देखकर बेहोश हो जाते हैं I इसी प्रकार चाँद भी नायक लोरिक को देखकर अपना होश खो बैठती है I

धरहुत जीउ न जानैं कितगा, कया भई बिनु सांस II (चंदायन, 66 /7 )

चाँदहिं लोरक निरखनि हारा I देखि  विमोहि गयी बेकरारा II

नैनं झरहिं मुख गा कुंवलाई  I अन्न न रुच नहीं  पानि सुहाई II

सुरुज सनेह चाँद कुँभलानी I जाइ विरस्पत छिरका पानी II (चंदायन, 147 /1-3)

 

       ‘पद्मावत‘ में भी नायिका पद्मावती को देखकर नायक राजा रत्नसेन मूर्च्छित हो जाते  हैं i प्रतिनायक अलाउद्दीन खिलजी तो दर्पण में उसकी झलक मात्र ही देखकर होश गवां बैठता है I

पारस रूप चाँद देखराई । देखत सूरुज गा मुरझाई ॥

भा रवि अस्त, तराई हसी । सूर न रहा, चाँद परगसी ॥
जोगी आहि, न भोगी होई । खाइ कुरकुटा गा पै सोई ॥                                

                                 (पद्मावत, पद्मावती-रत्नसेन भेंट खंड /14 )

बिहँसि झरोखे आइ सरेखी । निरखि साह दरपन महँ देखी ॥
होतहि दरस परस भा लोना । धरती सरग भएउ सब सोना ॥
रुख माँगत रुख ता सहुँ भएऊ । भा शह-मात, खेल मिटि गएऊ ॥

                                 (पद्मावत,चित्तौरगढ़ वर्णन खंड /18)

 

यहाँ शह-मात में श्लेष है I एक अर्थ शतरंज के खेल से संबंधित है I दूसरा शाह का मात खा जाना या मतवाला हो जाना या मूर्च्छित हो जाना I काव्य में यह योजना नायिका के सौन्दर्य की विराटता का परिचायक है I पर यह अवधारणा परवर्ती कवियों ने दाउद से उधार ली है i जायसी के काव्य में चूंकि नायिका में ब्रह्म का रूपकत्व है अत: ‘ वेणी छोरि बार जो झारा I सरग पतार भयो अंधियारा II‘ जैसे अत्युक्तिपूर्ण वर्णन जहाँ नायिका के अनिंद्य सौदर्य का बोध कराते है वही ब्रह्म की व्यापकता का भी रहस्य खोलते हैं I साथ ही यह भी सिद्ध करते हैं कि जायसी किस प्रकार बड़े कवि है I

 

सभी प्रेमाख्यानक काव्यों में नायक-नायिका के जन्म पर ज्योतिषियों का आकर उनका भविष्य बताना शायद उस काल का एक सामाजिक रिवाज रहा होगा I आज भी हिन्दुओं में लोग बच्चे की पैदाईश पर पंडित बुलाते हैं और उनकी बनायी हई कुण्डली का उपयोग शादी-व्याह के मामले में करते है I किन्तु हर प्रेमाश्रयी कवि का काव्य नायक अनिवार्य रूप से जोगी का रूप धारण करे, यह महज इत्तेफाक नहीं है I ‘चंदायन’ में काव्य नायक लोरिक नायिका ‘चाँद’ को पाने के लिए जोगी का रूप धारण करता है I उसका वेश इस प्रकार है –

सुवन फटिक मुंदरा सरसेली I कंठ जाप रुदरा कै मेली II

चकर जगौटा गूँथी कंथा I पाय पावरी गोरख्पन्था II

मुख भभूत कर गही अधारी I छाला बैस क आसन पारी II

दंड अखर बैन कै पूरी I नेह चारचा गावइ झोरी II (चंदायन, 174 /1-4)

 

      ‘चंदायन’ के अनुकरण पर कुतुबन की ‘मृगावती’ का नायक चन्द्रकुंवर (चन्द्रगिरि के राजा गणपति देव का पुत्र ) मृगावती के लिये, मंझन की ‘मधुमालती’ का नायक मनोहर (कनेसर के राजा सूरजभान का पुत्र) मधुमालती के लिए, उस्मान की ‘चित्रावली’  का नायक सुजान (नेपाल के राजा धरनीधर पंवार का पुत्र ) चित्रावली के लिये , नूर मुहम्मद की ‘इन्द्रावती’ का नायक राजकुंवर (कालिंजर के राजा का पुत्र ) इन्द्रावती के लिए जोगी का बाना धारण करते हैं I मुल्ला दाउद की इस मौलिक अवधारणा का उपयोग लगभग सभी  परवर्ती कवियों ने किया I जायसी के ‘पद्मावत’ में न केवल काव्य नायक राजा रत्नसिह  जोगी का रूप धारण करते हैं, अपितु उनके साथ सोलह हजार कुंवर भी जोगी के वेश में पद्मिनी की खोजने निकल पड़ते हैं I

निकसा राजा सिंगी पूरी । छाँडा नगर मैलि कै धूरी ॥
राय रान सब भए बियोगी । सोरह सहस कुँवर भए जोगी ॥
॥चला कटक जोगिन्ह कर कै गेरुआ सब भेसु ।
कोस बीस चारिहु दिसि जानों फुला टेसु ॥    (पद्मावत, जोगी खंड /9 )

 

 काव्य में नायिका के नख-शिख वर्णन की परम्परा आर्षग्रंथों में पायी जाती है I इसी प्रकार संस्कृत के काव्यों में षट–ऋतु के बड़े ही मनोहारी चित्र मिलते हैं I यह परम्परा कालिदास के ‘मेघदूत’ में भी मिलती  है I ‘ऋतु-संहार’ तो मुख्य रूप से ऋतु-वर्णन पर ही आधारित है I दंडी के ‘काव्यादर्श’ और भामह के ‘काव्यालंकार’ में भी षट–ऋतु वर्णन के सन्दर्भ प्राप्त होते हैं I प्राकृत कविता-काल में यह परम्परा काफी समृद्ध रही है I इस ऋतु वर्णन के समानांतर बारह्मासे की परम्परा का विकास अपभ्रंश साहित्य ग्यारहवीं शती से प्रारम्भ हुआ I बारहमासा वस्तुतः कविता, प्रकृति एवं लोक जीवन की तरलतम अनुभूति का एक विशिष्ट रूप है I अतः ये वर्णन यदि प्रेमाख्यानक काव्यों में प्रचुरता से मिलते हैं तो इन्हें ‘चंदायन’ काव्य का अनुकरण नहीं  कहा जा सकता I 

प्रेमाख्यानक काव्यों में अनिवार्य रूप से यह कथा मिलती है कि नायिका के अप्रतिम सौन्दर्य से अभिभूत होकर नायक आकुल–व्याकुल बीमार हो जाता है या खाट  पकड़ लेता है I उसकी स्थिति इतने खराब हो जाती है कि उसे देखने कविराज और नायक के अन्यान्य हितैषी आते है I उसका प्रेम रोग जग जाहिर हो जाता है I अनेक विधियों से उसका उपचार होता है I  जैसे ही नायक के मन की दशा तनिक सँभलती है वह अपनी प्रिया की खोज में जोगी बनकर दुर्गम यात्रा पर निकल पड़ता है I  उसे मार्ग में अनेकानेक संकट एवं बिघ्न का सामना करना पड़ता है I यहाँ तक की कई बार नायक की जान पर बन आती है I इन सब के बाद भी  अंततः वह सभी  बाधाओं को पार कर नायक नायिका को पाने में सफल होता है I प्रायः सभी कवियों ने मार्ग की दुर्गमता का अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन किया है i इसका निर्देश भी उन्हें ‘चंदायन’ से ही प्राप्त हुआ है I लोरिक भादों की अंधियारी रात में कमंद लेकर ‘चाँद; के शयनकक्ष में जाने हेतु प्रयत्नशील है I कवि कहता है –

छठ भादों निसि भइ अंधियारी I नैन न सूझे बांह पसारी II

चला बीर बरहा गर लावा I  जियकै परे दूसरहिं बुलावा II

खिन गरजे फिर दहइ बरीसा I खोर भरे जर बाट न दीसा II  (चंदायन, 200 /1-3)

 

जायसी के ‘पद्मावत’ में तो राजा रत्नसेन की मार्ग बाधा का बड़ा ही अत्युक्तिपूर्ण वर्णन हुआ है I वह क्षारसमुद्र, क्षीरसमुद्र,  दधिसमुद्र, उदधिसमुद्र, सुरासमुद्र , किलकिला समुद्र की दुर्गम बाधाओं को पार कर सातवे मानसरोवर समुद्र में पहुंचता है जो उसके अभीष्ट स्थान सिंघलगढ़ के चारों ओर स्थित है I इतना ही नहीं पद्मावती का सन्देश पाकर जब रत्नसेन सिंघलगढ़ के किले में धंसता है, वह भी कम अगम नहीं है I  

सो गढ देखु गगन तें ऊँचा । नैनन्ह देखा, कर न पहुँचा ॥
बिजुरी चक्र फिरै चहुँ फेरी । औ जमकात फिरै जम केरी ॥
धाइ जो बाजा कै मन साधा । मारा चक्र भएउ दुइ आधा ॥
चाँद सुरुज औ नखत तराईं । तेहि डर अँतरिख फिरहिं सबाई ॥
पौन जाइ तहँ पहुँचै चहा । मारा तैस लोटि भुइँ रहा  II (पद्मावत, सिंघलदीप खंड /3)

        परमेश्वरीलाल गुप्त अपनी संपादित पुस्तक ‘चंदायन’ के पृष्ठ 66 पर कहते है कि –‘चंदायन से सबसे अधिक प्रभावित पद्मावत है I पद्मावत की कथा का पूर्वार्ध, जिसे रामचन्द्र शुक्ल एवं कुछ विद्वान् ऐतिहासिक समझते रहे हैं, वस्तुतः चंदायन की कथा का ही पूर्वार्ध है I नामों को बदलकर जायसी ने उसे अविकल रूप से आत्मसात कर लिया है I‘  

     

‘चंदायन’ में चाँद को झरोखे पर खड़ी देखकर बाजिर मूर्च्छित होता है और वह जाकर रूपचन्द्र से उसके रूप की प्रशंसा करता है I उसे सुनकर रूपचन्द्र गोबर (राज्य) पर आक्रमण करता है I ठीक यही कथा पद्मावत की भी है I इसमें बाजिर, चाँद और रूपचन्द्र के स्थान पर राघव-चेतन , पद्मावती और अलाउद्दीन का नाम दिया गया है I जिस ढंग से दाउद ने चाँद का रूप वर्णन किया है  ठीक उसी ढंग से जायसी ने  पद्मावती का किया है I ‘

 ‘पद्मावत‘ में अलाउद्दीन खिलजी के सम्मान में रत्नसेन एक विशाल भोज का आयोजन करते हैं I इस भोज का विस्तृत वर्णन जायसी ने परिगणनात्मक शैली में किया है I जिन पक्षियों का मांस उस भोज में पकाया उनके नाम जायसी ने इस प्रकार दिए हैं -

तीतर, बटई, लवा न बाँचे । सारस, कूज , पुछार जो नाचे ॥
धरे परेवा पंडुक हेरी । खेहा, गुडरू और बगेरी ॥
हारिल, चरग, चाह बँदि परे । बन-कुक्कुट, जल-कुक्कुट धरे ॥
चकई चकवा और पिदारे । नकटा, लेदी, सोन सलारे ॥ (पद्मावत, बादशाह भोज खंड /1)

 

 इस परिगणनात्मक शैली का अनुकरण जायसी ने शत प्रतिशत ‘चंदायन’ की तर्ज पर किया है I ‘पद्मावत’ में पक्षियों के नाम इस प्रकार गिनाये गए हैं I

बटेर , तीतर , लावा धरे I गुडरू, कंवां खाचियं भरे II

बहुल, बिगुरिया औ चिरयारा I उसर तलोवा औ भनजारा II

परवा , तेलकार ,  तलोरा I रेन टिटहरी  धरे टटोरा II

बनकुकरा  केरमोरो घने I कूज महोख जानी नहिं गिने II

धरे कोयरें अँकुसी बनॉ I पंखि बहुल नांव को गिना II (चंदायन, 154 /1-5)

 

 पद्मावत‘ और ‘चंदायन‘ में उक्त प्रकार की अन्य अनेक समानताएं है I यहाँ तक कि कुछ काव्यांश तो हू-बहू एक जैसे है I यथा –

           पद्मावत

      चन्दायन

चकई-चकवा केलि कराहींI(सिघल-दीप वर्णन,खंड /9) ओझा, बैद, सयान बोलाए (प्रेम खंड /2)

पदुमति धौराहर चढी (रत्नसेन-पद्मिनी विवाह खंड /4)

तिलक दुवादस मस्तक कीन्हे (लक्ष्मी समुद्र खंड /13)

             

      

चकवा चकई केरि कराहैं (22/1)

पडित, बैद, सयान बोलाए (164/3)

चाँद धौराहर ऊपर गयी (145/1)

तिलक दुवादस मस्तक काढा (420 /2)

इस प्रकार की समानताएं यह सिद्ध करती है कि जायसी ने मुल्ला दाउद का प्रभाव ग्रहण कर ही अपने काव्य का ताना-बाना बुना है I यह बात और है कि उनका कवित्व, उनकी भाव विदग्धता उनका विस्तार और उनकी सी मार्मिक अनुभूति किसी अन्य प्रेमाख्यानक काव्य में नहीं है I हर लेखक अपने समकालीन और पूर्ववर्ती साहित्य से जुडा होता है I वह चाहे-अनचाहे उसका प्रभाव भी ग्रहण करता है जो उसकी रचनाओं में प्रतिफलित होता है I जायसी ने स्वयं अपने समकालीन काव्यों की चर्चा ‘पद्मावत’ में की है बिक्रम धँसा प्रेम के बारा । सपनावति कहँ गएउ पतारा ॥
मधूपाछ मुगुधावति लागी । गगनपूर होइगा बैरागी ॥
राजकुँवर कंचनपुर गयऊ । मिरगावति कहँ जोगी भएऊ ॥
साध कुँवर खंडावत जोगू । मधु-मालति कर कीन्ह वियोगू ॥
प्रेमावति कहँ सुरपुर साधा । ऊषा लगि अनिरुध बर बाँधा  II

                  (पद्मावत, राजा गढ़-छेंका खंड / 17 )

 

 उक्त पंक्तियों से स्पष्ट है कि जायसी ने अपने समय में प्रचलित पांच काव्यों का उल्लेख इन चौपाईयों में किया है – सपनावती, मुग्धावती, मृगावती, मधुमालती और प्रेमावती  I इनमे मृगावती और मधुमालती ही वर्तमान में उपलब्ध हैं i आश्चर्य यह है कि लोरिक और चंदा के प्रेमाख्यान ‘चंदायन‘ जो  पद्मावत’ के भाँति अवध की माटी पर रचा गया और जिसका सर्वाधिक प्रभाव जायसी ने स्वयं ग्रहण कर अपने महाकाव्य की रचना की, उसका स्मरण तक उन्होंने नहीं किया I  ‘चंदायन’ के उद्धारक और संपादक परमेश्वरीलाल गुप्त का स्पष्ट कथन है कि ‘चंदायन’ और ‘पद्मावत’ के कथा शिल्प में जो सादृश्य इतना स्पष्ट दिखता है  वह ---‘ मात्र आकस्मिक, संस्कारजन्य अथवा किसी अविच्छिन्न विचार का परिणाम कहना, किसी के लिए कठिन ही नहीं असम्भव होगा I ‘

 

 अब तक उपलब्ध साहित्य के आधार पर मुल्ला दाउद का ‘चंदायन’ प्रेमाख्यानक परम्परा का पहला काव्य है I  कवि ने इस काव्य को अमिधा में लिखा है I इसमें वह भावप्रवणता नहीं है जो परवर्ती काव्यों में मिलती है I  किन्तु यह काव्य उन सभी प्रेमाश्रयी काव्यों की नींव रहा है जो इसके बाद रचे गए I उक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि जायसी ने ‘चंदायन’ का प्रभाव सबसे अधिक ग्रहण किया I मुल्ला दाउद भी सूफी ही थे, किन्तु उनके काव्य में सूफी मत का ज़रा भी प्रचार नहीं है I उनकी जायसी से तुलना करना भी बे-मायने है  I निस्संदेह जायसी अपने समय के सबसे बड़े कवि हैं I कुछ विद्वान् तो भाषाई कारणों से ‘पृथ्वीराज रासो’ को बरतरफ कर ‘पद्मावत’ को ही हिन्दी का पहला महाकाव्य मानते है I

 

 (मौलिक /अप्रकाशित )

                     

 

 

 

 

 

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जनाब डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,बहुत उम्दा आलेख,बहुत सी जानकारी मिली इससे,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

आ० समर कबीर साहिब , आपसे मुतासिर हूँ i आप हमेशा मेरा हौसला बढ़ाते हैं I 

आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तवजी, आपका "चंदायन" और "पद्मावत" से सम्बंधित तुलनात्मक आलेख पढ़ा। ये बात बिलकुल सत्य है कि फिल्म पद्मावत के बाद बहुत से लोगों को पद्मावत और मालिक मुहम्मद जायसी के विषय में ज्ञात हुआ होगा। अन्यथा साहित्यिक अभिरुचि एवं साहित्य के विद्यार्थियों को छोड़कर जनसामान्य को इस बारे में बहुत काम जानकारी थी। प्रस्तुत आलेख में जिस "चंदायन" और मुल्ला दाऊद की बात आपने की है उनके बारे में तो अभी भी अधिकतर साहित्यिक अभिरुचि एवं साहित्य के विद्यार्थियों को भी जानकारी या तो नहीं है या बहुत ही कम है। अपने आलेख में आपने "चंदायन" और "पद्मावत" की बहुत ही सटीक तुलना की है। जो भी तथ्य आपने प्रस्तुत किये हैं वो निश्चय ही विस्मित कर देने वाले हैं। इतना अधिक साम्य और कहीं कहीं तो पूरी की पूरी पंक्तियाँ ही जायसी के द्वारा "चंदायन" से उठा ली गयी हैं। आपके इस आलेख ने "चंदायन" पढ़ने की उत्सुकता जगा दी है। मैं ही नहीं बल्कि जो भी आपके इस आलेख को पढ़ेगा निश्चित ही "चंदायन" को padhna चाहेगा। आपके इस उपयोगी आलेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद भी कि आपने इस महत्त्वपूर्ण आलेख को इस पटल पर डालकर हमें इससे भिज्ञ होने का सुअवसर प्रदान किया।

प्रिय अलोक , आपकी टीप  से ही साबित होता है कि आपने आलेख को ध्यान से पढ़ा है I मैं आपका आभारी हूँ i सस्नेह I 

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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे हुए हैं।हार्दिक बधाई। भाई रामबली जी का कथन उचित है।…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय रामबली जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । बात  आपकी सही है रिद्म में…"
Tuesday
रामबली गुप्ता commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"बड़े ही सुंदर दोहे हुए हैं भाई जी लेकिन चावल और भात दोनों एक ही बात है। सम्भव हो तो भात की जगह दाल…"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई लक्ष्मण धामी जी"
Monday
रामबली गुप्ता commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"हार्दिक आभार भाई चेतन प्रकाश जी"
Monday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई।…"
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
Sunday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . संबंध
"आदरणीय रामबली जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार ।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
Sunday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"रोला छंद . . . . हृदय न माने बात, कभी वो काम न करना ।सदा सत्य के साथ , राह  पर …"
Sunday

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