प्रायः ऐसा होता है कि एक निश्चित कालखंड में एक विशेष प्रकार का साहित्यिक आन्दोलन समाज को पूरे वेग से आलोड़ित कर सहसा धीरे-धीरे शांत होकर इतिहास बनता है और फिर एक नया कालखंड सर्वथा नवीन प्रवृत्ति या गतिविधि का मार्ग प्रशस्त करता है I वीरगाथाकाल में एक अलग किस्म की सामरिक साहित्यिक प्रवृत्ति थी I भक्तिकाल में ज्ञानाश्रयी, प्रेमाश्रयी शाखा और राम भक्ति धारा, कृष्ण भक्ति धारा प्रभावी रहे I रीति काल में भी रीतिसिद्ध, रीतिबद्ध और रीतिमुक्त कवियों की अपनी-अपनी प्रवृत्ति रही I आधुनिक काल में तो काव्य-प्रवृत्तियों की भरमार रही है I इसी युग में 1930-50 के बीच का साहित्यिक रुझान उमरखैयाम की रुबाइयो के हिन्दी रूपातरण का रहा है I
ईरान के प्रसिद्ध नगर नैशापुर में जन्मे दार्शनिक कवि हकीम गयासुद्दीन अबुलफतह उमर बिन इब्राहिम अल खैयाम (1048– 1131) की रुबाइयात का पहला अनुवाद फिट्ज़-जेराल्ड (1809-1883 ने अंग्रेजी में किया और इसी के साथ यूरोप में एक साहित्यिक क्रान्ति उत्पन्न हो गयी I कुछ लोगों का कहना था कि फिट्ज़-जेराल्ड की रचना मूल से भी अधिक अच्छी मानी गयी I इस प्रकार इस अनुवाद के माध्यम से उमर खैय्याम के शुरुआती दीवाने तो यूरोपवासी ही थे I नई सभ्यता का स्वप्न देखने वालों को उमर की कविता में बुलबुल का संगीत, वसंत का वैभव, गुलाब का सौन्दर्य, शराब की मस्ती और सुंदरियों के कल-गान में अपने हृदय का अक्श दिखाई दिया I एक समय इस दीवानगी का यह आलम था कि रुबाइयात पर चर्चा करने के लिए यूरोप में अनेक उमर-क्लब खुल गए थे I यूरोप की कोई ऐसी भाषा नहीं थी जिसमें खैय्याम की रुबाइयात का अनुवाद न हुआ हो I इस दीवानगी का दुष्परिणाम यह हुआ कि मूल ग्रन्थ जिसमे मुश्किल से तीन सौ रुबायत रही होंगी उनकी संख्या बारह सौ हो गयी I लोगों ने अन्य कवियों की रुबाइयात भी उसी में जोड़ ली -
‘रूसी पं० शुकीभेस्की ने अपने ग्रन्थ ‘रुबाइयाते उमर खैय्याम’ प्रबध में उद्धृत करके बताया है कि उमर के नाम से प्रचलित प्रायः 82 रुबाईयाँ हाफ़िज़, निजामी, जलालुद्दीन, रूमी आदि फारसी कवियों की रचना है I’ -मैथिलीशरण गुप्त ग्रन्थावली, खंड 11, पृष्ठ 331
यूरोप से चलकर यह दीवानगी भारत में आयी और यहाँ भी कई भाषाओँ में उसका अनुवाद हुआ I हिन्दी में तो इसके अनुवाद की एक बड़ी समृद्ध परम्परा है I अब यह प्रमाण-सम्मत हो गया है कि राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपने साहित्यकार मित्र रायकृष्णदास ‘सरकार’ के अनुरोध पर उमर ख़ैयाम की रुबाइयात को पहली बार हिन्दी में काव्यांतरित किया है I पंडित सूर्यनाथ तकरू इस रेस से बाहर हो चुके है I गुप्त जी का’ ‘रुबाइयात उमर खैय्याम’ सन् 1931 ई० में प्रकाश पुस्तकालय, कानपुर से प्रकाशित हुआ I इसकी भूमिका ‘आवेदक का आवेदन’ में गुप्त जी लिखते हैं –
‘इस बीच में हिन्दी में भी उमर खैय्याम की रुबाइयों की कुछ चर्चा होने लगी है I दो एक सज्जन मूल फारसी और मूल से भी प्रसिद्ध अंग्रेजी अनुवाद से उसका अनुवाद कर रहे हैं – और बड़े आकार प्रकार में I -मैथिलीशरण गुप्त ग्रन्थावली, खंड 11, पृष्ठ 325
खैय्याम के अनुवाद के प्रारम्भिक हिन्दी कवियों में मूल फारसी ग्रन्थ किसी ने नहीं पढ़ा I मुंशी इक़बाल वर्मा ‘सेहर’ के पहले जितने भी अनुवादक कवि हुए, सभी ने फिट्ज-जेराल्ड के अंगरेजी पद्यानुवाद का ही आलम्बन लिया है I मैथिलीशरण गुप्त इस बात को स्वीकार करते हुए “रुबाइयात उमर खैय्याम” की भूमिका वे लिखते हैं –
‘यदि फिटजेराल्ड अपने अनुवाद में मूल की काँट –छाँट कर सकता है तो दो एक स्थान पर वैसा करने का मैं भी अपना अधिकार कैसे छोड़ सकता हूँ ? ----- जिस संतोष के साथ फिटजेराल्ड ने अपना अनुवाद समाप्त किया होगा, वह मेरे भाग्य में नहीं I फिर भी मेरे न्यायाधीश मुझे क्षमा करें या न करें, मूल ग्रंथकार की आत्मा के निकट मैं निराश नहीं i’ -मैथिलीशरण गुप्त ग्रन्थावली, खंड 11, पृष्ठ 326
उक्त विवरण से यह प्रतीत होता है कि हिंदी में खैयाम की रुबाइयात के अधिसंख्य रूपान्तर मूल कृति (फारसी) से न होकर एडवर्ड फिट्ज़-जेराल्ड कृत अंग्रेजी अनुवाद से ही हुए है I फिट्ज-जेराल्ड के बारे में प्रसिद्ध है कि उन्होंने मूल काव्य के अन्दर पैठ कर उसका कायाकल्प किया है I उन्होंने मूल का अविकल अनुवाद नहीं किया है I कहीं-कहीं उन्होंने एक रुबाई को तोड़कर उसे दो या अधिक quatrains में व्यक्त किया है तो कहीं दो या तीन रुबाइयात को एक ही quatrain में समेटा भी है I उल्लेखनीय यह भी है कि जहाँ कहीं भी उन्होंने मूल कविता के भाव को नया परिच्छद देने का प्रयास किया है उन्हें चमत्कारी सफलता मिली है I इन्हीं सब का आलंबन लेकर मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी “रुबाइयात उमर खैय्याम” की रचना की जो हिदी में उमर खैय्याम के भावों को आत्मसात करने का पहला प्रयास है I इसका एक छंद उदाहरणस्वरुप प्रस्तुत है –
मधुशाला के खुले द्वार से अभी अभी गोधूलि समय
दबी चाल से घडा दबाये कोई देवदूत सहृदय
बाहर आया रस चखने का उसने मुझे निदेश दिया
और -अरे बस कुछ मत पूछो बोलो अंगूरी की जय
-मैथिलीशरण गुप्त ग्रन्थावली, खंड 11, पृष्ठ 351
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 1931 ई० में ही नवरत्न-सरस्वती भवन, झालरापाटन, राजस्थान से द्विवेदी युगीन पंडित गिरिधर शर्मा नवरत्न का अनुवाद भी छपकर आ गया I गिरिधर शर्मा बड़े उद्भट विद्वान् थे I इन्होने बाद में इन रुबाइयात का अनुवाद संस्कृत में भी किया जो 1933 ई0 में प्रकाशित हुआ I सन् 1932 ई० में डा. बलदेव प्रसाद मिश्र का अनुवाद मेहता पब्लिशिंग हाउस, सूतटोला, काशी ने ‘मादक प्याला‘ नाम से प्रकाशित किया I इस ग्रन्थ की भूमिका (FORE WORD) शीर्षक से त्तत्कालीन विद्वान् एवं अधिवक्ता डा. हरी शंकर गौर द्वारा लिखी गयी थी I इस भूमिका में उन्होंने भी फिट्ज-जेराल्ड के अनुवाद का उल्लेख किया है, जिससे लगभग सिद्ध हो जाता है कि उमरखैयाम की रुबाइयात का हिन्दी में रूपांतरण करने का आधार प्रायशः फिट्ज-जेराल्ड का अंग्रेजी अनुवाद ही रहा है I डा. गौर अपनी भूमिका में कहते हैं –
‘The real translation of some of his stanzas by Fitz Gerald took the world by storm because Fitz Gerald was happy in his selection of theme and metre which closely follows the music of the original , while at the same time it is sufficiently quaint to haunt the memory . His rendering was infact the tribute of one poet to another ,
- मादक प्याला, भूमिका (FORE WORD), डा. हरी शंकर गौर, पृष्ठ 7-8
‘मादक प्याला‘ की ‘प्रस्तावना’ से पता चलता है कि उमर खैय्याम के जीवनकाल में उनके दार्शनिक सिद्धांतों का समादर नहीं हुआ और लोग उन्हें कोरा ‘पियक्कड़’ और समान्य ‘तुक्कड़ ही समझते रहे I इतना ही नहीं उनका जबरदस्त विरोध भी हुआ [ लोगों ने उनके शांत जीवन को अशांत और अवसादपूर्ण बना दिया I इनकी शायरी में पीड़ा के जो उदगार हैं उनका उत्स इसी विरोध में छिपा हुआ है I डा. बलदेव प्रसाद मिश्र अपनी पुस्तक की भूमिका में कहते है –
‘खैय्याम के ऐसे-ऐसे विरोधाभास ही उनके वर्ण्य विषय की सम्यक पुष्टि करते हैं I वे अविश्वास, भय और दुःख के दानवों से बचना चाहते थे I वे जगत को अपने ही ढंग का बनाना चाहते थे और अपने उत्कर्ष के लिए प्रयत्नवान भी हुए थे, परन्तु उन्हें जब सफलता मिल ही न सकी तो उन्होंने अपना दृष्टिकोण बदला और बहुत विचार के बाद यह स्थिर किया कि विधि-विधान एकदम अटल है I’ - मादक प्याला, प्रस्तावना, डा. बलदेव प्रसाद मिश्र, पृष्ठ 17
डा. बलदेव प्रसाद मिश्र ने उमर खैय्याम के स्वछंदतावाद के रहस्य को आत्मसात किया और यह माना कि Eat drink & be merry का सिद्धांत वहीं तक वाजिब है जहाँ तक वह आसक्ति का रूप लेकर निरंकुश न हो जाय I यदि स्वछंदता आनंद के सात्विक उपयोग हेतु है तो फिर मानव सांसारिक होकर भी जीवन्मुक्त है I उसी कृती ने सत्य और मिथ्या के सच्चे रहस्य को समझा है I डा, मिश्र ने खैय्याम के दार्शनिक प्रत्यक्षवाद को अपने ग्रन्थ में बहुत सलीके से दर्शाया है. जिसमें खैय्याम भूत और भविष्य की चिंता न कर केवल वर्तमान को फोकस करते हैं I पवित्र और प्रांजल आत्मा इस जगत में आते ही कैसे मलिनता से आच्छदित होती है उसका एक निदर्शन ‘मादक प्याला’ में इस प्रकार है –
आये थे किस निर्मल नभ से आकर कैसे हुये मलीन ?
शांति सरीखी वस्तु गवांकर, अब कैसे बन बैठे दीन
अश्रु बिन्दुओं से ढलकर हम हृदय ज्वाल में जले तुरंत
प्राण पवन के साथ उड़ाकर, धँसे धुल में फिर हा -हंत
- मादक प्याला, डा. बलदेव प्रसाद मिश्र, छंद 31 ,पृष्ठ 79
वर्ष 1932 ई० के आसपास ही इंडियन प्रेस लिमिटेड, जबलपुर से पंडित केशव प्रसाद पाठक का अनुवाद भी ‘रुबाइयात उमर खैय्याम‘ शीर्षक से ही आया I यह अनुवाद सरस और मधुर तो था ही इसमें कवि की अपनी मौलिकता भी थी I एक उदाहरण प्रस्तुत है -
पा न सका मैं ताली जिसकी ऐसा एक वहां था द्वार I
पर्दा एक पड़ा था, जिसके नहीं सूझता था उस पार II
मेरी तेरी चर्चा होते दीख पड़ी केवल पल चार I
इसके बाद मिट गया सहसा तू मैं का सारा व्यापार II
-रुबाइयात उमर खैय्याम. पं० केशव प्रसाद पाठक, पृष्ठ 32
उक्त रचना के अगले ही वर्ष 1933 ई० में डॉ. गया प्रसाद गुप्त का अनुवाद हिन्दी साहित्य भंडार, पटना से साया हुआ I यह प्रथमतः बांग्ला में हुए किसी अनुवाद का हिन्दी रूपांतर था I इस परम्परा में उमर खैय्याम और फिट्ज-जेराल्ड से प्रभावित अगले- महत्वपूर्ण कवि हरिवंशराय ‘बच्चन’ हैं I इन्होने खैय्याम के प्रति लोगों की बनी बनायी सुखवादी छवि को ख़ारिज करते हुए स्पष्ट रूप से अपनी सम्मति दी कि एडवर्ड फ़िट्ज़-जेराल्ड ने उन्नीसवीं सदी के मध्य में अपने अंग्रेज़ी तरजुमे के अन्दर उमर खैयाम का जो खाका खींचा है उसके बारे में बिना किसी संकोच या सन्देह के कहा जा सकता है कि वह किसी सुखवादी आनन्दी जीवन अथवा किसी हिडोनिस्ट (सुखवादी) का ‘एपीक्योर’ (रसिक रचना ) नहीं है । बच्चन ने सबसे पहले फिट्ज-जेराल्ड के अनुवाद का आलम्बन लेकर ‘रुबाइयात उमर ख़ैयाम’ की रचना की I इस सम्बन्ध में उल्लेखनीय बात यह है कि यद्यपि इसकी रचना लोकप्रसिद्ध रचना ‘मधुशाला’ (1935 ई०) से काफी पहले हुयी थी किन्तु इसका प्रकाशन ‘मधुशाला’ के तीन वर्ष बाद सुषमा निकुंज, प्रयाग से 1938 ई0 हुआ I चूंकि इससे पूर्व ‘मधुशाला’ हिट हो चुकी थी और फिट्ज-जेराल्ड के अनेक भावानुवाद आ चुके थे अतः इस रचना को वह ख्याति नहीं मिल पायी जो ‘मधुशाला’ को मिली थी I ‘बच्चन’ कृत ‘रुबाइयात उमर ख़ैयाम’ का एक छंद इस प्रकार है -
जगत की आशाएँ जाज्वल्य, लगाता मानव जिन पर आँख,
न जाने सब की सब किस ओर,हाय! उड़ जातीं बन कर राख!
किसी की यदि कोई अभिलाष, फली भी तो वह कितनी देर,
धूसरित मरु पर हिमकण राशि, चमक पाती है कितनी देर !
-www.4to40.com › Poems For Kids › Poems In Hindi (अंतर्जाल से साभार )
बच्चन की कृति 'मधुशाला' ने किसी भी पूर्ववर्ती रचना का आलम्बन स्वीकार नहीं किया I यह सर्वथा मौलिक और स्वतंत्र रचना थी I भावभूमि के स्तर पर खैयाम के प्रतीकों और संकेतों के बावजूद यह रचना बिलकुल अलग है और खैय्याम से अब तक लगभग साढ़े छह सौ साल के बीच हुए बदलावों से मुतासिर है I इस रचना में नया प्रयोग यह है कि हर रूबाई ‘मधुशाला’ शब्द पर समाप्त होती है । हिन्दी साहित्य में ‘हालावाद ‘ का अभ्युदय इसी रचना के कारण हुआ जिसके प्रवर्तक हरिवंशराय ‘बच्चन’ माने गए I कवि सम्मेलनों में ‘मधुशाला’ की रूबाइयत के पाठ से बच्चन को अनिवर्चनीय प्रसिद्धि मिली और ‘मधुशाला’ उसकी वर्षों तक बेस्ट सेलर पुस्तक बनी रही I इसे जगह-जगह पर नृत्य-नाटिका के रूप में प्रस्तुत किया गया और उस काल के बड़े नामी-गिरामी नृत्यकों ने उसमें भाग लिया । प्रसिद्ध शायर निदा फाजली के अनुसार –
‘मधुशाला हिंदी काव्य साहित्य के संसार में अपना मेयार आप है. यह अकेली किताब है जो अपने जन्म से अब तक कई जन्म ले चुकी है और आज तक पाठकों के साथ चलती-फिरती है और बातचीत में मुहाविरों की तरह इस्तेमाल होती है I’ (अंतर्जाल से साभार )
मधुशाला‘ प्रारंभ में कवि की काव्यानुभूति का प्रतीक थी जिसके पीछे धर्म ,समाज, वर्ग आदि बंधनों से परे जीवन की मस्ती और थोथे अध्यात्मवाद के प्रति व्यंग्य का स्वर था I बीच में बच्चन कुछ निराशावादी भी हुए I परन्तु इसमें संदेह नहीं कि उनकी कविता जीवन की वास्तविकता के निकट थी । यद्यपि हाला का गुणगान उन्होने आलंकारिक रूप से किया है, फिर भी कुछ लोगों को उसमे हाला का स्तुति-गान सुनाई पड़ता है । इस पुस्तक का एक उद्धरण यहाँ प्रस्तुत है -
यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकी बालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।
- मधुशाला, हरिवंश राय ‘बच्चन’, रुबाई सं० 54
उमर खैय्याम की मूल फारसी रचना का पहला प्रामाणिक अनुवाद मुंशी इक़बाल वर्मा ‘सेहर’ ने किया जो इंडियन प्रेस, प्रयाग से सन् 1937 में प्रकाशित हुआ I कहा जाता है कि इस अनुवाद को फलीभूत करने में मुंशी ‘सेहर’ ने अपने जीवन के अनेक महत्वपूर्ण वर्ष खर्च किये और बड़ा परिश्रम किया I पं. ब्रजमोहन तिवारी जो लखनऊ , उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे इन्होने भी कुछ प्रयास किया था जो स्फुट रूप से एकाधिक पत्रिकाओं में छपा भी था, पर वह प्रयास पुस्तक का रूप ले पाया या नहीं इसका पता नहीं चलता I सन् 1938 ई0 में रघुवंशलाल गुप्त का अनुवाद, किताबिस्तान, प्रयाग से प्रकाशित हुआ I इन्होने अपनी पुस्तक की प्रस्तावना ‘उमर खैय्याम और उनकी रुबाईयां ‘में लिखा है कि –
‘फिट्ज़ जेराल्ड की रुबाईयों को अनुवाद कहना भाषा के साथ बलात्कार करना है I उन्होंने खैय्याम के भावों को लेकर नये सिरे से कविता की है, या यूं कहिये कि मूल रुबाईयों में जो रंग-बिरंगे, छोटे-बड़े जो रत्न थे, उन्हें चुनकर कला-कुशल जडिया की भाति जड़कर ऐसा अमूल्य आभूषण तैयार किया है जिसको पहनकर कविता कामिनी फूली नहीं समाती I’
-उमर खैय्याम की रुबाईयां, रघुवंशलाल गुप्त, आई सी एस, पृष्ठ 19-20
मैथिलीशरण गुप्त की ही भाँति रघुवंशलाल गुप्त ने भी फिट्ज़ जेराल्ड के अनुवाद के साथ वही सलूक किया जो फिट्ज़ जेराल्ड ने उमर खैय्याम के साथ किया I उन्होंने फिट्ज़ जेराल्ड के चौपदों का पूरी तरह से कायाकल्प कर उसे एक नए रूप में प्रस्तुत किया I साथ ही यह सावधानी भी रखी कि मुक्तक होते हुए भी खैयाम की प्रबंधात्मकता उसमे बनी रहे I जहाँ तक हो सका है उन्होंने खैय्याम के मूल भावों की ही रक्षा अपने अनुवाद में की है और कहीं कहीं पर तो फिट्ज़ जेराल्ड का प्रभाव बिलकुल भी स्वीकार नहीं किया है I उनके अनुवाद का एक निदर्शन यहाँ प्रस्तुत है, जिसमे खैय्याम की उस भविष्यवाणी का संकेत है जो उन्होंने अपने जीवन काल में की थी और जो उनके मरने के बाद सही सिद्ध हुयी I रघुवंशलाल गुप्त ने अपनी पुस्तक में यह भी लिखा है कि वे खैय्याम की समाधि देखकर आये है और खैयाम के दावे की सत्यता को उन्होंने वहाँ अपनी आँखों से देखा है i वह दावा इस प्रकार है -
मेरी समाधिस्थ मिट्टी से निकलें ऐसे मनहर फूल I
पूरे उपवन में छा जाएँ ऐसे मदिर गंध मृदु मूल II
कट्टर सुरा विरोधी भी जो एक बार निकले उस ओर
तो सुख से उन्मत्त हो उठे अपने नेम धर्म को भूल II
-उमर खैय्याम की रुबाईयां, रघुवंशलाल गुप्त, आई सी एस, पृष्ठ 62
अगले वर्ष 1939 ई0 में जोधपुर के किशोरीरमण टंडन का भी एक अनुवाद प्रकाश में आया I पंडित जगदम्बा प्रसाद ‘हितैषी’ ने बहुत दिनों तक रुबाइयात उमर खैयाम के ऊपर काम किया और उनकी पुस्तक का नाम ‘मधु मन्दिर’ था I वर्ष 1940 ई० में अल्मोड़ा के कवि तारादत्त पांडे ने खैय्याम की रुबाइयात का कुमांउनी में अनुवाद किया I इस अनुवाद का आलम्बन लेकर बाद में चारुचन्द्र पांडे ने कुमाउंनी भाषा से इसका उल्था हिन्दी में किया I
सुमित्रानंदन पंत कृत अनुवाद ‘मधुज्वाल’ की रचना यद्यपि 1929 में ही हो गयी थी परन्तु इसका प्रकाशन भारती भंडार,, प्रयाग से वर्ष 1948 ई० में हुआ I यह पुस्तक भी खैय्याम की मूल फारसी रचना से अनूदित है i इस संबंध में कवि पंत ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि उमर खैय्याम की रुबाईयों का ‘गीतांतर’ उन्होंने सन् 1929 ई० में उर्दू के प्रसिद्ध शायर तथा अपने स्नेही मित्र स्व० असगर साहब गोंडवी की सहायता से इंडियन प्रेस के आग्रह पर किया था I असगर साहब जिस भावुकता और तल्लीनता से उन्हे फारसी की रुबाईयों का भावार्थ समझाते और साथ ही फारसी के अन्य कवियों की मिलती जुलती रुबाइयात को भी सुनाना नहीं भूलते थे, उसी से प्रेरणा पाकर कवि ने प्रेम और सौन्दर्य के गंधोछ्वास से भरे वातावरण को गीतों की प्यालियों में ढालने का प्रयत्न किया I पर यह अनुवाद कोरा अनुवाद ही सिद्ध हुआ I इसलिये काव्य को विशेष सफलता नहीं मिल पायी I ‘मधुज्वाल’ में पहला चैप्टर ‘बच्चन के प्रति‘ बाद में जोड़ा गया है, जो हरिवंशराय ‘बच्चन’ की मधुशाला’ के प्रति कवि की सौहार्द्रपूर्ण श्रद्धांजलि थी I
जीवन की मर्मर छाया , में नीड़ रच अमर I
गाए तुमने स्वप्न रँगे मधु के मोहक स्वर II
यौवन के कवि, काव्य काकली पट में स्वर्णिम
सुख दुख के ध्वनि वर्णों की चल धूप छाँह भर II
-मधुज्वाल, सुमित्रानंदन पंत, पृष्ठ 1
पंत के बाद इस परम्परा में एक ठहराव सा आ गया और लगभग पचास वर्ष तक किसी उल्लेखनीय अनुवाद का अभाव रहा I इस सन्नाटे को लक्ष्मण दुबे ने अपने काव्य 'मधु के द्वीप‘ से तोड़ा I यह पुस्तक वाणी प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुयी I इस पुस्तक में कवि ने उमर खैय्याम की रुबाइयात का अनुवाद न तो मूल फारसी कृति से किया और न फिट्ज़-जेराल्ड के अनुवाद से, अपितु गुजराती भाषा के दार्शनिक कवि शून्य पालनपुरी द्वारा किये गए गुजराती अनुवाद का हिन्दी में उल्था कर अपना काव्य रचा I इस पुस्तक की भूमिका में शेर जंग गर्ग ने लिखा है –
‘शून्य पालनपुरी के अनुवाद में उमर खैय्याम फारसी के माध्यम से अवतरित हुए हैं तो उसमे शून्य पालनपुरी की प्रतिभा और कला भी घुली मिली है I उमर खैय्याम और शून्य पालनपुरी की इस गंगा यमुना में लक्ष्मण दुबे की सरस्वती ने इस अनुवाद को त्रिवेणी का दर्जा प्रदान किया है I यह बात भी गौरतलब है कि इसमें सरस्वती कहीं लुप्त नहीं हुयी हैं -------लक्ष्मण दुबे के अनुवाद में गूढतम दर्शन को सहज आत्मीय काव्य के रूप में बयान करने का सम्पूर्ण सौन्दर्य विद्यमान है I’ -मधु के द्वीप, लक्ष्मण दुबे, पृष्ठ 6
लक्ष्मण दुबे के अनुसार उमर की जडें पूर्वी देशों के सूफी मत और एकात्मवादी रहस्यवाद में छिपी हुयी है I सामान्य लोगों ने उमर खैय्याम को मात्र सुरा –सुन्दरी के साथ जोड़कर उसके चिंतन और दर्शन व्यापकता को सीमित करने का प्रयत्न किया है I उमर खैय्याम का जीवन दर्शन अति उदात्त था I सुन्दरी और शराब की बातें करने वालों के लिए यह रुबाई उनकी आँख खोलने का एक उपकरण है -
इस फना के रास्ते में जिन्दगी है इक पड़ाव
मूर्ख ही महसूस करते व्यर्थ में इससे लगाव
कूच करने के लिए उसके हुकुम की देर है
कौन पूछेगा यहाँ उडती हुयी मिट्टी का भाव
-मधु के द्वीप, लक्ष्मण दुबे, पृष्ठ 7
सेवा निवृत बैंकर रजनीश मंगा ने वर्ष 2015 ई० में एक बार फिर फिट्ज़- जेराल्ड के अनुवाद से अपने को अनुप्राणित कर कुछ रुबाईयात के अनुवाद किये I उनकी एक रुबाई यहाँ उदहारणस्वरुप प्रस्तुत है –
हर सुबह लाखों गुलाबों को नया मिलता शबाब.
पर कहाँ है वो जो ठहराए गए थे कल खराब.
मौसमे-गरमा भी आ पहुंचा खिला पहला गुलाब,
‘अलविदा’ दुनिया से बोले जमशेद औ’ कैकोबाद.
-myhindiforum.com › My Hindi Forum › Art & Literature › Hindi L...
युवा कवि हेमंत स्नेहीने भी कुछ अनुवाद किया है I उनकी रचना का एक नमूना इस प्रकार है –
वासंती ऋतु के जाते ही मुरझा जाते सभी गुलाब,
हो जाती तत्काल बंद फिर नव यौवन की खुली किताब।
कल तक जो बुलबुल शाखों पर गाती गीत मचाती धूम,
जाने कौन, कहाँ से आई, किधर उड़ी किसको मालूम.
-snehanchal.blogspot.com/2008/09/blog-post.html (अंतर्जाल से साभार )
हिदी साहित्य में उमर खैय्याम के छाया प्रभाव ने ‘छायावाद’ को आक्रांत कर ‘हालावाद’ को शराब की झाग की तरहस्थापित किया I लेकिन झाग कभी भी स्थाई नहीं होता I इस ‘वाद’ ने बीस वर्ष में ही दम तोड़ दिया I इसमें संदेह नहीं कि एक सीमित कालावधि में उमर खैय्याम का जादू हिंदी कवियों के सिर पर चढ़कर बोला i बाद में गोपालदास ‘नीरज’, गुलाब खंडेलवाल और देहरादून के विशाल भारद्वाज जैसे कवियों ने हालाँकि अनुवाद तो नहीं किये पर रुबाइयात को अपनी कविताओं में ज़िंदा रखा I उर्दू में भी खैय्याम पर से प्रभावित बहुत काम हुआ है और बेहतरीन अनुवाद हुए हैं I प्रोफ़ेसर वाकिफ मुरादाबादी और ताहा नसीम के अवदान को कौन भूल सकता है !
(मौलिक व अप्रकाशित )
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बहुत ही सारगर्भित जानकारी उमर खय्याम और उनकी रचना के विषय में। विभिन्न साहित्य कारों द्वारा और विभिन्न भाषाओँ में किये गए अनुवादों की वृहत्तर जानकारी आदरणीय डॉक्टर गोपाल नारायण जी द्वारा प्रस्तुत की गयी है। निस्संदेह हम सभी को उमर ख़य्याम की रचना को पढ़ने और उसका भरपूर आनंद उठाने को प्रेरित करता हुआ लेख।
प्रिय आलोक , आपसे उत्शावर्धन हुआ I आपका आभारी हूँ i
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