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"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-61 में सम्मिलित सभी ग़ज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

परम आत्मीय स्वजन ६१वें तरही मुशायरे का संकलन हाज़िर है| मिसरों को दो रंगों में चिन्हित किया गया है, लाल अर्थात बहर से खारिज मिसरे और नीली अर्थात ऐसे मिसरे जिनमे कोई न कोई ऐब है|

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मिथिलेश वामनकर

सिमरन, पूजन और-आवाहन प्रतिदिन आठों याम किया
प्रेम मिलन में आतुर मन ने केवल इतना काम किया
वह तो एक विशाल हृदय है, हर इच्छा करता पूरी
उसने खुद को श्याम किया तब इच्छित को बलराम किया


मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थककर चूर हुईं
जब बच्चों को हँसते देखा, आँखों ने आराम किया

‘उसकी माया वो ही जाने’ इसका मतलब यूं समझो
धरती पर खुद रावण भेजा फिर धरती पर राम किया

जब-जब मेरी आँखें बरसीं, तब-तब समझाया दिल ने
सारा जीवन दोनों ने ही अपना - अपना काम किया

कैसे बाज़-आ जाए बनिया, आखिर अपनी फितरत से
खेतों में जो पाला देखा, उसने घर गोदाम किया

पापों के साए में खुद को, यूँ जीवित रखते है हम
घट भरने की बारी आई, सीधा तीरथ धाम किया

अवसादों में घिरकर भी आँखों से इतना रीता हूँ
जब भी छत पर बादल आया, उसको देख सलाम किया

दुनिया की मस्ती में डूबा, भटका बस मृगतृष्णा में
तेरा आज दयार मिला तो पहली बार कयाम किया

प्रेम विरह में विकल हृदय अब...... केवल इतना करता है
“रात को रो-रो सुबह किया या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया”

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दिनेश कुमार

इस दुनिया में उस इन्साँ ने, अपना ऊँचा नाम किया
जिसने एक ही सपना देखा, और न फिर आराम किया

पानी को होंठों से छूकर, बादा-ए-गुलफ़ाम किया
साक़ी ने अपने जल्वों से, सबको अपना ग़ुलाम किया

थे मुश्किल हालात प हमने, आखिर ये भी काम किया

ज़िन्दा रहने की कोशिश में, ख़्वाबों को नीलाम किया

आँख के बदले आँख है लेनी और ख़ून का बदला ख़ून
एक यही तो सोच है जिसने, सारा क़त्ले-आम किया

धीरे धीरे हम भी यारों, दुनियादारी सीख गए
झूठ का कारोबार चलाया, औरों को बदनाम किया

हमको भी इक हुस्न-परी के, ज़ुल्फ़ों के ख़म याद आए

महफ़िल में जब आज किसी शायर ने ज़िक्र-ए-दाम किया

दौर-ए-हिज्र में कैसे मैंने, वक़्त बिताया ये मत पूछ
" रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया "

प्यार वफ़ा के हर गुलशन में, ऐसा मंज़र आम 'दिनेश'
जब भी किसी ने गुल को तोड़ा, बुलबुल ने कोहराम किया

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rajesh kumari

बोला दिल हर-दम तुमने मुझको अबस बदनाम किया
इजहार-ए-मुहब्बत की खातिर नैनों ने गुपचुप काम किया

दिल देकर तुझको क्या पाया खुद का चैन तमाम किया
रात जगी तारे गिन-गिन जब दुनिया ने आराम किया

भीगे जाने कितने मौसम बिन तेरे इन अश्कों से
रात को रो रो सुबह किया,या दिन को ज्यों त्यों शाम किया

तल्खी झूठे वादों की सब भूल गई मैं इक पल में
सारे शिकवे धो बैठी जब उसने आज सलाम किया

नींद खुली तो तब ही जानी हमने उसकी मजबूरी
उसकी पाक़ मुहब्बत पर क्यूँ ‘राज’ ख्याले-खाम किया

तेरी तहरीरों में अपना सीता नाम हुआ न हुआ
अपने जीवन के बर्खों में हमने तुमको राम किया

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shree suneel

दुनिया दारी में उलझा था, ये ये वो वो काम किया
अपनों की खातिर तो मैंने हर आराम हराम किया.

तेरी उल्फ़त पोशीदा थी और मेरी थी जग जाहिर
सो इश्क़ में उम्दा ये कि मुझको हीं सबने बदनाम किया.

ख़त मेरा यूँ सरे राह भला उनके हाथों में देकर
ऐ कासिद! तू सोच ज़रा, क्या ठीक ये तूने काम किया.

जो दिन रात खुशी से वो काट गये, मैंने हाय! वही
रात को रो रो सुब्ह किया या दिन को ज्यूँ त्यूँ शाम किया.

वक़्त ख़फा़ था, लोग ख़फ़ा थे, हाल बुरा था कैसा, और
हस्वे हाल न रहना था सो ख़ुद को हीं इब्राम* किया.

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इमरान खान

पोशीदा थे जो दिल के उन अरमानों को आम किया,
अपने अफ़साने का कैसा ये हमने अंजाम किया।

जब जब उसकी याद आई तो हम खुद को भी भूल गए,
रात को रो रो सुबह किया या दिन को ज्यों त्यों शाम किया।

शहरों शहरों घूमा हूं पर मंज़िल से फिर भी दूरी,
किस्मत ने ही आवारापन शायद अपने नाम किया।

उम्रे रवां से दिल जलता है, जलती रूह मुसलसल है,
अब तो ये भी भूल गए हम कब हमने आराम किया।

एक चमकते सूरज ने मुझको रानाई बख्शी थी,
डूब के उस सूरज ने फिर मुझको भी नाकाम किया।

तुझको ऐ 'इमरान' कहां पहचान हुई इंसानों की,
खूब यकीन किया था जिस पर उसने काम तमाम किया।

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अरुण कुमार निगम

हम दोनों को बस्ती वालों ने माना बदनाम किया
लेकिन इस बदनामी ने ही हमको राधा-श्याम किया

सुंदरता की चाहत ने जुल्फों का काम तमाम किया
आला घर की बेटी को भी है इसने हज्जाम किया

वाह ! गरीबी ने रोटी को चन्दा की उपमा दे दी
मूँगफली के दानों को भी इसने ही बादाम किया

जीवन की आपाधापी में यह भी याद नहीं है अब
उनकी जुल्फों के साये में कब बैठा आराम किया

बन न सका इक अच्छा मिसरा सच कहता हूँ मैं यारों
"रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया"

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laxman dhami

पेट भरा उसका ही तूने जिसने चक्का जाम किया
भूखे पेट मिला सोने को जिसने दिनभर काम किया

संतों के पथ कंटक कंटक दुर्जन के पथ फूल खिले
लिखकर उलटा तकदीरों को ये क्या तूने राम किया

देखो कैसे आज पिता वो गलियों गलियों फिरता है
जिंदा रहते जिसने घर को कल बेटों के नाम किया

सच है जग में खाकर थाली छेदों से भर देते हैं
हमसे ही थी जिसकी हस्ती उसने ही बदनाम किया

इस दिल ने तो राज की बातें खूब छिपाकर रख्खी थी
पर आखों ने आंसू से मिल सब राजों को आम किया

नादानी में जिसको पाने धूप न देखी बारिस भी
प्यार में लूटकर उसके हमने जीवन भर आराम किया

मत पूछ 'मुसाफिर' तेरे बिना घर में अपनी कैसे कटी
रात को रो-रो सुबह किया या दिन को ज्यों - त्यों शाम किया

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Samar kabeer

तुम ने अपने तर्ज़-ए-अमल से मज़हब को बदनाम किया
लोगों को मुश्किल में डाला जब भी कोई काम किया

जानाँ तेरे इश्क़ ने हमको दुनिया में बदनाम किया
फिर भी हम ने राह-ए-वफ़ा में सजदा हर हर गाम किया

चाहत की इक रस्म निभाकर हासिल ये इनआम किया
ख़ुशियाँ तेरे नाम रक़म कीं हर ग़म अपने नाम किया

आशिक़ से माशूक़ का मिलना दुनिया में कम होता है
तुमने दिल के अफ़साने का,देखें क्या अंजाम किया

ले दे कर ये जान-ओ-दिल हैं,आँखों में कुछ सपने हैं
जो भी कुछ था पास हमारे सब कुछ तेरे नाम किया

जाहिल,आक़िल ,शैख़,बरहमन ,कोई भी महफ़ूज़ नहीं
तेरी आँखों के जादू ने सब को ज़ेर-ए-दाम किया

इक मिट्टी से पैदा हैं पर फ़र्क़ बड़ा है दोनों में
इक ने चमन में फूल खिलाए,एक ने क़त्ल-ए-आम किया

माँ के चरणों में जो पाया और कहीं वो मिला नहीं
बैठ के इन पावन चरणों में तीरथ चारों धाम किया

और तो कोई काम नहीं है ,शग़्ल यही है अपना तो
"रात को रो रो सुब्ह किया या दिन को जूँ तूँ शाम किया"

क़िस्मत में जो लिख्खा है ,वो अपने वक़्त पे होता है
तुमने "समर" की मौत पे फिर क्यूँ बरपा ये कुहराम किया

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Sachin Dev

लोगों ने तो किस्मत को बस मुफ्त यहाँ बदनाम किया
नाम दिया तकदीरों को जब करमों ने नाकाम किया

उसने अपनी चाहत का चर्चा बस ऐसे आम किया
लव से कोई बात नहीं की नजरों से पैगाम किया

मेरे हमदम चाहत में तुमने कैसा ये काम किया
हाथ छुड़ा खुद दूर हुये औ सर मेरे इल्जाम किया

होंठो से पैमाना छूकर पेश नशीला जाम किया
मदहोशी का आलम था कल रात कहाँ आराम किया

तेरी उल्फत ने जाने-जां दिल का ये अंजाम किया
रात को रो-रो सुबह किया या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया

नाम दिया पहले रिश्तों को फिर उनको बे-नाम किया
तेरी चाहत मशहूरी थी बस मुझको गुमनाम किया

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Ravi Shukla


अपने ही हाथों से हमने अपना घर नीलाम किया
यानी सर पर साया था जो उसका काम तमाम किया

जिसको खून पसीना देकर बनवाया था अब्‍बा ने
सीमो जर की खातिर हमने उसको भी इकराम किया

जिस घर की तामीर ने मॉं के सारे जेवर बेचे थे
वक्‍ते रुखसत दीवारों ने हमको अपना दाम किया

बांट लिया था हमने सारा माल बराबर दोनो में
सारी बस्‍ती जान गई अब्‍बा ने और मकाम किया

आधा आधा साल बराबर दोनो भाई रखते है
मॉं ने बेबस होकर यारो किश्‍तों में आराम किया

अब पैसा है पास हमारे लेकिन ऐसे जीते है
रात को रो रो सुब्‍ह किया या दिन को जूँ तूँ शाम किया

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Dr Ashutosh Mishra


इत्तेफाक से जिस गुल के घर गुजरी रात कयाम किया
उसके ही दिल में नजरों ने तय अब मेरा मुकाम किया

हुस्न आग था हाय जवानी तूने घी का काम किया
आँखों को मीना कर डाला इन अश्कों को जाम किया

तपती साँसे बढ़ती धड़कन सूने पन ने आँखों के
छिपी आग को उल्फत की है देखो कैसे आम किया

हिन्दू- मुस्लिम लड़ें तो रोटी सेंकें मुल्ला पंडित अपनी
मगर नवयुगी नयी सोच ने साजिश को नाकाम किया

तन तो सोता रोज मगर मन जगता रहता जीवन भर
गले लगे जिस घड़ी क़ज़ा के दोनों नें आराम किया

गुल मेरे दिल में बसता क्यूँ गुल के दिल बसता कोई
हाय अधम ने सोच यही क्या उल्फत का अंजाम किया

जिंदा लाश बना बचपन मलवे से निकल रहा रटता
रात को रो रो सहर किया या दिन को ज्यों त्यों शाम किया

प्रेम नहीं आशक्ति जिसे है वही कहेगा ऐसी बात
रात को रो रो सहर किया या दिन को ज्यों त्यों शाम किया

जर जमीन बंट जाये पिया का प्यार बंटे मंजूर नहीं
सुन सौतन का नाम महज बीबी ने है कुहराम किया

उल्फत को पाकीजा कहते औ उल्फत के दुश्मन भी
कभी खुदा उल्फत को माना कभी उसे बदनाम किया


सूली पे लटके हैं आशू मगर दीवाना पन देखो
शोख हसीन नजर आयी तो आँखों से ही सलाम किया

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गिरिराज भंडारी


नामवरों के नामों ने जब ऐसा वैसा काम किया
तभी समय ने उन्हें हाशिये पर रक्खा, बेनाम किया

तेरी यादों की कुछ बून्दें टपका कर , ये काम किया
पानी भरी सुराही हमने , मय से लबालब जाम किया

आखों की सुर्खी औ ख़ंज़र यही शिकायत करते हैं
किसी मुआफ़ी की ख़ातिर क्यों ख़ुद से ही संग्राम किया

फिक्रे ग़िजा से गर थोड़ी फ़ुर्सत मिलती, हम भी कहते
“रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया”

मजदूरी कर अभी पसीना बहा रहा है , वो सुन ले
उम्र रही तालीम की तू ने जी भर के आराम किया

सच को ज़िन्दा रखना है तो , तुम भी चीखो ज़ोरों से
आज झूठ हो जाता है सच गर उसने कुह्राम किया

आज घरौंदा मेरा बिखरा, सूना सा जो लगता है
शुब्हा की कुछ दीवारों ने घर का ये अंजाम किया

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लक्ष्मण रामानुज लडीवाला


अडचन जब जब आई तब तब बाधा को प्रभु नाम किया
सुख में सब रहते मस्ती में खा पीकर आराम किया |

महँगाई के चलते मानव घूम रहा कुछ पाने को,
काम मिला संतोष मिला कुछ,जब मालिक का काम किया

जाने कितने सपने देखे मन में कुछ सपने पाले
पर जीवन में मुश्किल चलते आज नहीं आराम किया

भौतिक युग में बढती रहती आये दिन ही कठिनाई
संगत पायी संतों की जब साँसों को प्रभु नाम किया

जीवन की हर कठिनाई को, झेल सके मुश्किल लगता,
संत समागम मन को मानो पान गले सुख जाम किया |

दिन भर श्रम कर कर थकते तब शाम पड़े घर को लौटे
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया

दो बेटों के होते भी माँ ने कष्ट सदा ही भोगा
ऐसे बेटों के रहते माँ ने न कभी आराम किया |

आतुर लक्ष्मण प्रेम मिलन को, समझ न पाया क्या बोलें
खुश करने अपनी पत्नी के हाथ हवाले दाम किया |

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मोहन बेगोवाल

नींद से वो मिल के आए कुछ पल बैठ कयाम किया
ऐसा करके सपनों ने भी कुछ तो मेरा काम किया

कब इस दुनिया माँ को अपना घर का हिस्सा समझा है
बाप की जेब को हर पल देखा सुबह व् शाम सलाम किया

मुझ को अक्सर आ के वो बात तेरी बतलाती थी जो
दुनिया आखर रौशन होगी अंधेरा जब नाकाम किया

रोज तो उस से मिलता हूँ और कहाँ फिर गुम जाये वो
साथ तो उसका पाया अक्सर याद मेरी गुमनाम किया


बीत गई जिंद सोच में उलझे कैसे होती तो फुर्सत
"रात को रो रो सुबह कि या या दिन को ज्यों त्यों शाम किया"

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भुवन निस्तेज

मैदानों-वादी-परबत में भागी दौड़ी काम किया
और समंदर की बाँहों में नदिया ने आराम किया

जिसको मैंने ईश्वर माना झुक झुक कर प्रणाम किया
उसने मेरे घर का चर्चा बीच सड़क पर आम किया

खार ओ गुल, सहरा ओ गुलशन, चिड़िया-बाज, खिज़ां व बहार
कुदरत की देखी फनकारी सज़दा और सलाम किया

देखो दीवानापन सा निस्तेज ये शौक सुखन का है
जैसे मजनूं, राँझा हो इसने मुझको बदनाम किया

आंसू, सिसकी, आह, पुकारें सब को घोल के पी जाएँ
यूँ हमने जीना सीखा खुदकी हस्ती को जाम किया

तेरे जो अहसान है मुह्पर कैसे यार उतारूँ मैं
मेरी वफ़ा नीलाम की तू ने खूब है ऊँचा दाम किया

जन अधिकारों की नीलामी बाजारों में ये कर दें
चुन चुन कर कैसे लोगों को है हमने हुक्काम किया

झूठ हजारों एक ही सच उसपर चर्चा बहुमत का है
मुझ को किन लोगों के बीच में तू ने मेरे राम किया

जीने के हक में हमने भी सर को खूब खपाया है
"रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया"

गुलदस्ते में मुरझाये से फूल देख बोला माली
क्या मैंने आगाज़ किया था क्या तू ने अंजाम किया

उड़ती चिड़ियों की खुशियों पे ये जो जश्न मनाता है
वो इन्सान फ़रिश्ते सा है जिसने इतना काम किया

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शिज्जु "शकूर"


दिल से अपने बोझ हटाया इतना सा बस काम किया
आँखे मूँदीं सबकुछ भूला और ज़रा आराम किया

हालात ने मेरे कुछ ऐसे मुझको अपना ग़ुलाम किया
खुद को ही थक हार के मैंने आख़िर ज़ेरे दाम किया

रफ़्ता रफ़्ता दिखने लगा तब ख़ुमार मेरी आँखों में
ख़्वाबों को मय मान के मैंने जब काग़ज़ को जाम किया

यूँ समझो ये रब्त हुआ है कर्ब ओ कनाअत में मेरे
हर ख़्वाहिश के बदले मैंने अंगारों पे क़याम किया

हर इंसाँ में होते हैं शैताँ भी और फ़रिश्ते भी
दिल को आज सुकून मिला जब शैताँ को नाकाम किया

मंसूब किया था शे’र उनसे वो समझे तो अच्छा है
खुलकर कह देता तो कहते मुझको क्यों बदनाम किया

कुछ और नहीं था बस में मेरे क्या करता तब मैंने
“रात को रो-रो सुबह किया या दिन को ज्यूँ त्यूँ शाम किया”

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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव


चोरी-चोरी दिल में आये क्यों तुमने यह काम किया
भोरी नीलोफर को मधुवन वीथी में बदनाम किया

जब से झटका इन हाथों को, नजरें फेरी, मोड़ा मुख
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया

विधि का लेखा ही खोटा था आते कैसे अच्छे दिन
प्रति दिन हमने जीवन के हित दुर्दिन से संग्राम किया

उठकर लड़कर भिडकर तपकर जीवन से लड़ने वाले
विथकित होकर आखिर तुमने यह कैसा विश्राम किया

हंसना रोना ये दो तट थे जीवन-सरि उमड़ा इनमें
जग ने दूषित कर डाला पर सागर ने अभिराम किया

तन-वृन्दावन की लीला में सांसो का घोला सरगम
जीवन की आपा धापी में मन को राधा श्याम किया

राही बनकर चलना जाना मंजिल पर किसने पायी
मरने से पहले कब जग ने जीवन में आराम किया

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Dr. (Mrs) Niraj Sharma

जब जब तेरा नाम लिया ,खुद को खुद ही बदनाम किया।
और तबीयत से पलकों को, आंसू से इक़राम किया॥

नींदें रुसवा, दिल भी ग़ाफ़िल, और ज़माना बेदर्दी।
पहरे में रहकर दुनिया के, बस यादे अय्याम किया॥

मज़हब , ज़ात ,ज़रायम से क्या, राम, ज़मानए-हाल हुआ।
आज सियासत के गुर्गों ने, सूबे को इक़साम किया॥

महफिल महफिल बात चली औ बेपर्दा जज़्बात हुए।
शोख अदा से शर्म हया ने, रंगत को गुलफ़ाम किया॥

यादों की बारात ने दस्तक जब भी दी दरवाज़े पर।
रात को रो-रो सुबह किया या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया॥

ओ बेदर्दी ! देख ज़रा, जो ज़ख्म दिए तूने गहरे।
अपने गीतों में उनको बस हमने तो इरक़ाम किया॥

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मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो अथवा किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो अविलम्ब सूचित करें|

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Replies to This Discussion

आदरणीय राणा प्रताप सिंह जी, मुशायरे के सफल आयोजन के लिए आप बधाई के पात्र हैं। संकलन जैसा मुश्किल काम करने के लिए अलग से धन्यवाद सर।
मेरी गजल के लाल मिसरे को यूँ कर दीजिए आदरणीय --
थे मुश्किल हालात प हमने, आखिर ये भी काम किया
शुक्रिया सर..ताकि लाल रंग हट जाए।
बहुत जल्दी में ग़ज़ल लिखी गयी थी आदरणीय, इसलिए गलती हो गई थी।

आदरणीय दिनेश कुमार जी वांछित संशोधन कर दिया है|

आदरणीय राणा सर, ६१वें तरही मुशायरे के सफल आयोजन के लिए आपको बधाई. संकलन के श्रमसाध्य कार्य हेतु हार्दिक आभार. 

मेरी ग़ज़ल में नीले रंग के दो ऐब वाले मिसरों को सुधारकर पुनः गज़ल प्रस्तुत कर रहा हूँ मूल ग़ज़ल के स्थान पर संशोधित ग़ज़ल प्रतिस्थापित करने का का निवेदन है- 

सिमरन, पूजन और-आवाहन प्रतिदिन आठों याम किया
प्रेम मिलन में आतुर मन ने केवल इतना काम किया

वह तो एक विशाल हृदय है, हर इच्छा करता पूरी
उसने खुद को श्याम किया तब इच्छित को बलराम किया

मंदिर मस्जिद के सपनों में अक्सर थककर चूर हुईं
जब बच्चों को हँसते देखा, आँखों ने आराम किया

‘उसकी माया वो ही जाने’ इसका मतलब यूं समझो
धरती पर खुद रावण भेजा फिर धरती पर राम किया

जब-जब मेरी आँखें बरसीं, तब-तब समझाया दिल ने
सारा जीवन दोनों ने ही अपना - अपना काम किया

कैसे बाज़-आ जाए बनिया, आखिर अपनी फितरत से
खेतों में जो पाला देखा, उसने घर गोदाम किया

पापों के साए में खुद को, यूँ जीवित रखते है हम 
घट भरने की बारी आई, सीधा तीरथ धाम किया

अवसादों में घिरकर भी आँखों से इतना रीता हूँ
जब भी छत पर बादल आया, उसको देख सलाम किया

दुनिया की मस्ती में डूबा, भटका बस मृगतृष्णा में 
तेरा आज दयार मिला तो पहली बार कयाम किया

प्रेम विरह में विकल हृदय अब...... केवल इतना करता है 
“रात को रो-रो सुबह किया या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया”

आदरणीय मिथिलेश जी वांछित संशोधन कर दिया है|

उब सुन्दर और  सफल आयोजन के लिए आप बधाई 

आदरणीय राणा प्रताप सर जी, बधाई आपको इस आयोजन के सफल संचालन और संकलन की प्रस्तुति हेतु. मेरी ग़ज़ल में कुछ त्रुटियां पाई गईं हैं जिसमें कुछ बह्र संबंधित भी हैं. हालांकि लाल मिसरे की तक़्तीअ मैनें की तो त्रुटि दिखी नहीं. कृपया मार्गदर्शन करें.

सर्वप्रथम मतले को यूँ कर दें आदरणीय..

दुनिया दारी में उलझा था, ये ये वो वो काम किया
अपनों की खातिर तो मैंने हर आराम हराम किया.

सो/इश्/क़ मे/उम्/दा/ये कि/सब/ने/मुझ/को/हीं /बद/ना/म कि/या

जो/दिन/रा/त खु/शी/से/वो/का/ट ग/ये/मैं /ने/हा/य व/ही

सादर..

आदरणीय सुनील जी आपके मतले को प्रतिस्थापित कर दिया गया है|

आपने जो तकती कि है वह सही नहीं है और तकती का सही तरीका भी यह नहीं है| आप हर्फों को उच्चारण के अनुसार गिनिये और उच्चारण के अनुसार ही उनकी जुजबन्दी कीजिये| मिसरे अब भी बेबहर ही हैं|

sir maine bhi apni gazzel post ki thi pr wo kahi nazer nahi aa rehi

  

संशोधित तरही गज़ल
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

नींदों से जब मिलकर आये कुछ पल बैठ कयाम किया 
ऐसा करके सपनों ने भी कुछ तो मेरा काम किया 
कब ये दुनिया औरत को घर अपने का हिस्सा माने 
मर्द की जेब को हर पल देखा सुबह व् शाम सलाम किया 
मुझ को अक्सर आके वो बातें ऐसी बदलाती है 
रौशन कैसे दुनिया होगी न अँधेरा नाकाम किया 
हर पल उसके पास रहूँ मैं,फिर भी गुम हो जाती है 
साथ तो उसका पाया अक्सर याद मेंरी गुमनाम किया 
बीत गई जिंद सोच में उलझे कैसे होती तो फुर्सत 
"रात को रो रो सुबह किया या दिन को ज्यों त्यों शाम किया"

"मौलिक व अप्रकाशित" 

कृपया,इस संसोधित गज़ल के बारे मार्गदर्शन करें

आदरणीय मोहन बेगोवाल जी तीसरे शेर का सानी मिसारा अब भी बे बहर है ..उसे भी दुरुस्त कर लें तो एक साथ प्रतिस्थापित कर दिया जायेगा|

एक से बढ़कर एक खूबसूरत और तेजधार कलाम ..बधाई सभी को और संयोजक श्री राणा जी को !!

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Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व स्नेहाशीष के लिए आभार। जल्दबाजी में त्रुटिपूर्ण…"
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सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आयोजन में सारस्वत सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी। शीत ऋतु की सुंदर…"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"शीत लहर ही चहुँदिश दिखती, है हुई तपन अतीत यहाँ।यौवन  जैसी  ठिठुरन  लेकर, आन …"
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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सादर अभिवादन, आदरणीय।"
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सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सभी सदस्यों से रचना-प्रस्तुति की अपेक्षा है.. "
Saturday

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