For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-65 में स्वीकृत रचनाओं का संकलन

श्रद्धेय सुधीजनो !

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-65, जोकि दिनांक 12 मार्च 2016 को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है. इस बार के आयोजन का शीर्षक था – “धूप”.

 

पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.

 

सादर

मिथिलेश वामनकर

मंच संचालक

(सदस्य कार्यकारिणी)

 

*****************************************************************

1. आदरणीय गणेश जी “बाग़ी” जी

धूप (अतुकांत)

=====================

 

वर्षों से बंद था

यह मकान,

तुमने खोल दी

बंद खिड़कियाँ,

मैला सने अपने हाथों से.

 

गहरा और बदबूदार निशान

छोड़ दिया तुमने,

धवल मकान पर.

 

तुम्हारा भी क्या दोष

खुद भी तो समाये थे

मैले में,

फिर भी....

तुम हो

धन्यवाद के पात्र.

 

अब उन खिडकियों के रास्ते

आ रही है तेज धूप,

बिलबिला-बिलबिला कर

निकल रहे हैं...

जहरीले कीड़े मकोड़े

जो पल रहे हैं 

वर्षों से

सियासत के संरक्षण में

और......

पोषित हो रहे हैं

हमारे ही खून पसीने से.

 

-------------------------------------------------------------------------------------------------------

 

2. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

धूप (अतुकांत)

=====================

मेरा अनुभव कुछ और है , शायद आपसे अलग भी हो 

इस धूप के विषय में

 

मै तो एक इंसानी प्रवृत्ति देखता हूँ

धूप में

मेरा अनुभव तो बोलता है , कि 

सुबह की गुनगुनी धूप प्यारी लगती है

निर्दोष , ऐसी जिसे..

बाहरी हवायें जिसे छू भी नही गई है

ठीक वैसे ही जैसे

साफ दिल, निर्दोष इंसानी बच्चा

प्यारा सा , प्यार बांटता हुआ , प्यार पाता हुआ सा

दुनियावी कुरूपता से दूर

 

दो पहर की धूप

गर्म मिजाज़ , अहंकारी ,

दूषित हो चुकी / कर दी गई

दूषित वातावरण के द्वारा

निर्द्वंद्व , उच्छृंखल ,

ठीक इंसानी जवानी की तरह

बहकी हुई या बहकाई हुई सी , दिशा विहीन

या दिशा तलाशते हुई

 

और शाम की धूप

थकी हारी , अलसाई

किसी तरह अपनी अंतिम लक्ष्य की ओर अग्रसर

मौत मे ही चिर शांति तलाशती

कहीं पुनर्जन्म की दबी हुई आशा समेटे

बिलकुल इसानी बुढ़ापे की प्रतिमूर्ति

इन तीन अवस्थाओं से क्या हम दोनो नही गुज़रते ?

धूप और इंसान

------------------------------------------------------------------------------------

 

3. आदरणीय समर कबीर जी

धूप (ग़ज़ल)

=====================

 

बढ़ गई आज इतनी तपन धूप में

हो गया लाल,नीला गगन धूप में

 

आप घर से निकल कर ज़रा देखिये

शूल जैसी लगे है पवन धूप में

 

लूटता कोई ठंडी हवा के मज़े

और कोई करे है हवन धूप में

 

आग सूरज उगलने लगा इस क़दर

हो गये देख काले हिरन धूप में

 

दश्त-ए-बे आब में हम अकेले नहीं

जल गये हैं बहुत से चमन धूप में

 

जान लेवा हुई ये तपिश आज तो

काटता है "समर" पैरहन धूप में

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

4. आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी

धूप (गीत)

=====================

 

बुद्धि पर सांकल चढ़ी

मन भी अंध कूप है

उनके बंद द्वार से ,लौट गई धूप है

 

वहाँ तिरंगे में लिपट 

लाल रोज जा रहे

ये घर को तोड़ने के

गीत यहाँ गा रहे

 

आँखों में कुहरा जमा

भूलते गलत सही

इनके दर माथा पटक

धूप भी सुध खो रही

 

बुझी बुझी सी देखती

ये अजीब रूप है

उनके बंद द्वार से, लौट गई धूप है

 

साजिशों में आज कौन

रंग यहाँ भर रहा

किसके हाथों डोर है

कौन यहाँ नच रहा

धूप  आज अनमनी है

पास प्रश्न हैं कई

द्वार ये जो खोल दे

है कहाँ किरण नई

 

तर्क भारी गढ़ रहे हैं

पर विवेक मूक है

उनके बंद द्वार से ,लौट गई  धूप है

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

5. आदरणीय मनन कुमार सिंह जी

ग़ज़ल (संशोधित)

=====================

 

रोशनी जब बढ़ी धूप है

आज की मनचली धूप है।

 

जुल्फ का कर अँधेरा यहाँ

छा गयी हर गली धूप है।

 

बाद लों की कहूँ बात क्या

आज तो बरसती धूप है।

 

थक गया है 'मनन' टेर अब

झाइयाँ हो रही धूप है।

 

माँगती है सदा तिष्णगी

अब रजा हो गयी धूप है।

 

रोशनी जब जँची है तुझे

तिलमिला क्यूँ चली धूप है?

 

प्यार बस तू बसा आँख में

बोल मत जा रही धूप है।   

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

6. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी

धूप (कुण्डलिया छंद)

=====================

 

बदला बदला सा हुआ,है जन का भी हाल

पल में हिम सी ठण्ड है,धूप हुई फिर लाल

धूप हुई फिर लाल,हाल मौसम सा होता

पल-पल तेवर बदल,लगे हँसता या रोता

सतविंदर कविराय,नहीं वह है अब जिदला

देखो उसका हाल,बहुत है बदला बदला।।

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

7. आदरणीया कांता रॉय जी

धुप -छाँव से हम-तुम (गीत)

=====================

 

धुप -छाँव से हम-तुम,  तुम-हम

लुका-छिपी खेला करें

 

सूरज नें किरणों से

यह कैसी अटखेली , खेली

चुप-चुप से हम-तुम ,तुम-हम

टुका-टुकी देखा करें

 

रिम-झिम सी बारिश की बूंदें

मन फुहारों की छींटा , छींटी

छाँव-ठाँव से हम-तुम ,तुम-हम

भींगा-भींगी हुआ करें

 

रौनक-से तुम, रौशन-सी मै

सितारों सी झिलमिली , झिलमिल

चाँद-चाँदनी हम-तुम ,तुम-हम

साँस- साँस हम जगा करें

 

रिश्तों की अकिंचन दूरी

नहीं संभलती बेबस-सी - बेबसी

काँच-काँच से हम-तुम ,तुम-हम

वक्त -बेवक्ती टूटा करें

 

गीतों में भावों की माला सी

तारों में सजी सप्तम सुर-की

बाँस-बाँसुरी हम-तुम ,तुम हम

राग-रागनी बजा करें

-----------------------------------------------------------------------------------------

8. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी

धूप (कुकुभ छंद) (संशोधित)

=====================

 

पंछी चहके डाली डाली, लाल सूर्य मन को भाये।         

धूप खिली तो खिला कमल भी, गुंजन कर भौंरा गाये।।  

 

फागुन से तपते हो सूरज, खूब कहर बरपाते हो।

मजा ठंड में देते हो पर, गर्मी भर तड़पाते हो।।          

 

सुबह सबेरे आ जाते हो, सांझ ढले तुम जाते हो।                                                                                               

गर्म प्रकृति के तुम हो सूरज्, हर पल ताप बढ़ाते हो।।   

 

सहन नहीं होती हैं किरणें, कांटो सी चुभ जाती है।

तेज धूप है दोपहरी की, तन को झुलसा जाती है।।             

 

हर दिन आँच तेज करते हो, ख्याल करो इस धरती का।

देव तुम्हें हमने माना है, मान रखो इस विनती का।।      

 

ताल तलैया सूख गए क्या, हम पे तरस न खाओगे।

त्राहि-त्राहि मच जाएगी यदि, और आग बरसाओगे।।                                                                                                       

 

हे सूर्य आँच कुछ कम कर दो, इतनी तो दया दिखाओ।

धरा जलाशय पशु पक्षी हम, सब को राहत दे जाओ।।       

 

डरो ना ग्लोबल वार्मिंग से, हे मानव अकल लगाओ। 

धूप बदल दो ऊर्जा में औ’, शाकाहारी बन जाओ।।

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

9. आदरणीय डॉ टी. आर. शुक्ल जी

इन्द्रधनुष ( अतुकान्त )

================

ये उजले प्रतीत हो रहे चेहरे!

सचमुच, भीतर से...

कुरूप ही हैं।

यों तो हड्डियों के ऊपर

मास और चाम का लेप हैं ही,

रंग भी, मात्र परावर्तित धूप ही हैं।

और , अधपेट भोजन भी जिन्हें

घोर परिश्रम के बाद मिलता है!

वे, प्रफुल्लित हो मस्त हैं अपने खेतों में!

दिन रात का भेद मिटा,

लगे हैं सिर्फ भोजन की तलाश में!

पर ये तथाकथित श्रेष्ठ,

मारते हैं हर क्षण लात, उनके पेटों में!

‘क्वार‘ मास की ये बदरी धूप... एक ओर तो,

श्रम कणों से अपवर्तित हो इन्द्रधनुष बनती है!

वहीं दूसरी ओर,

एसी और कूलर से घिरे ‘‘स्वरूपों‘‘ को फिर भी अखरती है!

मैं, संयमित हो,

खोज रहा हॅूं प्रकृति के इस अद्भुद रहस्य को,

हर दिन हर ओर,

हर पल हर छोर....

गोद लिये नीरवता के हास्य को!

-----------------------------------------------------------------------------------------

10. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी

धूप है (ग़ज़ल)

=====================

 

पहले चश्मा अपनी आँखों पर लगाओ धूप है |

 फिर ख़रीदारी को तुम बाज़ार  जाओ धूप है |

 

जारहे हो घर से बाहर ले लो छतरी हाथ में

रंग अपना काला पड़ने से बचाओ धूप है |

 

मैं हूँ मुफ़लिस साइकिल भी पास में मेरे नहीं

दोपहर में मुझको घर पर मत बुलाओ धूप है |

 

कैसे नेता जी बताओ लोग बैठेंगे यहाँ

खेत में इक शामियाना तो लगाओ धूप है |

 

आशियाने में सभी आई हैं यह थक हार के

मार के पत्थर न चिड़यों को उड़ाओ धूप है |

 

उनके माथे का पसीना तो अभी सूखा नहीं

उनको मत शरबत अभी ठंडा पिलाओ धूप है |

 

राहगीरों मान  लो कहना सफ़र अब मत करो

वक़्ते गर्मी पेड़ के नीचे बिताओ धूप है |

 

ख़ौफ़ है मुरझा न जाएँ ज़ुल्फ़ नाज़ुक हैं बहुत

जानेजाँ इनको न तुम छत पर सुखाओ धूप है |

 

काम पर निकले हो लापरवाही मत इतनी करो

सर पे तुम तस्दीक़ इक टोपी लगाओ धूप है |

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

11. आदरणीय डॉo विजय शंकर जी

धूप, वाह री धूप (अतुकांत)

=====================

 

सवेरे आँगन में धीरे धीरे से

उतरती हुई आती धूप ,

बूँदें ओस की चमकाती और

ओस को उड़ा ले जाती धूप ,

दोपहर तक चढ़ती तेज होती धूप ,

आँगन में फैले कपड़े सुखाती धूप

ढलने लगे तो सायों को लम्बा करती धूप

फिर आँगन से सिमटती घटती चली जाती धूप।

वाह , वाह री धूप...........

 

खेतों में दूर तक फैलती जाती धूप

गेंहूँ की बालियों को सुनहलाती ,

कुछ खिलखिलाती ,

कुछ चिलमिलाती धूप ,

आम ,खरबूजे , तरबूज खूब पकाती धूप।

वाह , वाह री धूप...........

 

सिर चकरा दे , ऐसी दमकती धूप ,

रोग , रोगाणु मिटा दे ऐसी छा जाती धूप ,

यहां से वहाँ तक बरसती धूप ,

धरती से पानी उड़ा दे ऐसी धूप

बादल बना के , उड़ा के ले जाती धूप।

वाह , वाह री धूप...........

 

अपने पे आ जाए तो आग लगा दे ,

तालाब नदियों का पानी सुखा दे धूप ,

आदमी चाहे तो बिजली बना के रख ले ,

अन्धेरा रात का मिटा दे , दिन की धूप।

वाह, वाह री धूप...........

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

12. आदरणीय आशीष पैन्यूली जी

धूप (अतुकांत)

=====================

 

भानु ज्यों ज्यों चढता जाता

बढती जाती है ग्रीष्म ऊष्मा

बढती जाती है तपन-अगन

और खिलती जाती धूप है।

 

पहली बारिश में स्नान कर तो

और खिला इस सुंदरी का रूप है

मस्तक पर कोई तिलक हो जैसे

फलक पर ऐसी दिखती धूप है

 

कागज की कश्ती पानी में डगमगाती है जैसे

बादलों के बीच में ऐसे लङती धूप है

नील गगन में श्वेतांबर ओढे

तेज़युक्त यह शक्ति स्वरूपा धूप है

 

सूरज की यह कोख से निकले

गौमुख से गंगा जैसे निकलती है

श्रृंगार किए हुए कोई रूपवान

नवयुवती जैसे निकलती है

इसकी आभामंडल में ऊर्जावान स्वरूप है

मस्तक पर कोई तिलक हो जैसे

फलक पे ऐसे दिखती धूप है।

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

13. आदरणीया राजेश कुमारी जी

किसको कितनी मिलनी धूप  (गीत)

=====================

 

महल अटारी खेत झोंपड़ी

सागर नदिया नाले कूप

लिख देती कुदरत पहले से किसको कितनी मिलनी धूप

 

स्वर्ण यान पर आती लेकर  

पीत पीत स्वर्णिम भण्डार

नए पुरातन महा सूक्ष्म को

देती  जीवन के उपहार

धूप छाँव के अंश बाँटने

मेघ चल दिया लेकर सूप

लिख देती कुदरत पहले से किसको कितनी मिलनी धूप

 

अपने घर से रोज निकलकर 

स्वयं करे सर्वस्व समर्पण 

एक तुच्छ सी बदरी आकर

ढक देती है उसका दर्पण

सूर्य मुखी या गेहूँ बाली

देखें जिसमे अपना रूप

लिख देती कुदरत पहले से किसको कितनी मिलनी धूप

 

द्वार खोलता जो स्वागत में

नूर उसी दर पर बरसाये

बंद किये जो बैठा दम्भी 

अंधकूप में कैसे जाये

जिसने जितना आँचल खोला

मिला उसी को प्रेम अनूप

लिख देती कुदरत पहले से किसको कितनी मिलनी धूप

 

जीवन उसका एक चुनौती

इतनी  सरल नहीं पथ रेखा

ऊँची नीची  दीवारों से

कटते फटते हमने देखा

छिल छिल कर पत्थर से मुखड़ा

होता देखा है विद्रूप

लिख देती कुदरत पहले से किसको कितनी मिलनी धूप

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

14. आदरणीय लक्ष्मण धामी जी

धूप (ग़ज़ल)

=====================

 

चलो उस छोर की जानिब उधर कुछ धूप तो होगी

हवा विपरीत कितनी  भी मगर  कुछ धूप तो होगी

 

बहुत  गर्दिश  का  मारा है गरीबी  भूख  चाहे हो

मगर उस गाँव में अब भी नगर कुछ धूप तो होगी

 

तेरी छाया  में हैं  इससे  नहीं  उम्मीद  रखते कम

कभी पतझड़ के मौसम में शजर कुछ धूप तो होगी

 

कि गुरबत भूख की ठिठुरन गरीबों को सभी जानिब

न सोचो  तुम  पहाड़ों से उतर कुछ  धूप तो होगी

 

चले आते  हैं हम भी  नित इसी  उम्मीद से यारो

कहीं  जिश्मों की  मंडी में इतर कुछ धूप तो होगी

 

भले ही नाव  कागज की  चलो  दरिया  में तैराएँ

उठाए  हाथ में  यारो लहर  कुछ  धूप  तो होगी

 

बहुत सीले  हैं रिश्ते सब ठहर बंदिश के कमरों में

चलो कर लें  अधूरा  ही सफर कुछ धूप तो होगी

 

परिंदे  लौट  आते  हैं सबब इसका  यही  तो है

शिखर पर साँझ को तेरे शजर कुछ धूप तो होगी

 

परेशाँ तम  से तो हैं पर नहीं इतना कि मर जाए

लिखी हिस्से में अपने भी सहर कुछ धूप तो होगी

 

नजर आता नहीं कुछ पर न घबरा धुंद से इतना

फजर का वक्त है ये तो ठहर कुछ धूप तो होगी

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

15. आदरणीय पवन जैन जी

बड़ा हो गया हूँ (अतुकांत)

=====================

 

बचपन में

मेरी खिड़की से

सूर्य किरण

मुझे जगाती थी

तन मन में न जाने क्या

प्रवाहित कर जाती थी।

अब मैं बड़ा हो गया हूँ

समझदार हो गया हूँ

बंद कर दी है खिड़की

लगा दिए हैं चिलमन

जलाता हूँ ट्यूब लाइट

जब मन चाहे।

मिलता है उजाला,कह नहीं सकता

और उष्मा ?

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

16. आदरणीय सचिन देव जी

धूप (कुण्डलिया छंद)

=====================

 

रहती धूप न एक सी, बदले हर ऋतू रूप

शरद रूप सुन्दर दिखे,   गर्मी रूप-कुरूप

गर्मी  रूप-कुरूप,  छुडाये  धूप  पसीना

अंग जलाती धूप,  लगे जब मई महीना

रंग बदलती धूप,   यही हमसे है कहती

जीवन में हर चीज, सदा न एक सी रहती

 

काला तन हो धूप में, रखें नारियाँ ध्यान

बाहर जाना हो अगर,  लें इसका संज्ञान

लें इसका  संज्ञान,  धूप में तपती काया

धुल सकता मेक-अप, पसीना बह जो आया

रहें धूप  से दूर,  कुँवारी सारीं बाला

रिश्ते में तकलीफ, अगर मुखड़ा हो काला

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

17. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी

धूप (दोहा छंद)

=====================

 

जो थी कभी गुलाब वह, लगती आज बबूल |

धूप दिनोदिन तीव्र हो , चुभो रही है शूल ||

 

हुआ स्नेह कम देश में, सहे पीर हर गाँव |

बैर भाव की धूप ने , जहाँ पसारे पाँव ||

 

बदले का वातावरण, पनप रहा है नित्य |

कहती है यह धूप भी, क्रोधित है आदित्य ||

 

कहती है यह सभ्यता, उसको आज कुरूप |

जिसने जीवन की सही , यहाँ तीव्रतर धूप ||

 

शुष्क हो गई जब धरा, बढ़ा सूर्य का ताप |..............(संशोधित)

सागर से उठने लगी , हौले-हौले भाप || 

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

18. आदरणीय सुशील सरना जी

धूप (अतुकांत) (संशोधित)

=====================

 

ठहरो ठहरो 
अभी से कहाँ जाने लगी हो?
कुछ देर तो ठहरो.

बनके हयात आयी हो 
सारी कायनात साथ लाई हो 
तुम्हारी हर शरर में गहराई है 
ज़िंदगी की सच्चाई है 
बिन शज़र की राहों पर 
तुम हकीकत बन के आई हो 
ये बात और है 
तुम मौसम के साथ चलती हो 
अपना अहसास बदलती हो 
कभी तीखी लगती हो 
कभी गुनगुनी लगती हो 
तुम्हारा बचपन हसीं लगता है 
यौवन में चटख होती हो 
थकती हो जब साँझ को तो 
सफर का सार होती हो 
सरकते वक्त की छन्नी से 
उजाला भी छन छन के आता है 
अपनी अहमियत बताता है 
अर्श पर अब्र आते ही 
तुम आँख मिचौली करती हो

सच में ऐ धूप !
तुम अपने उजाले से हर स्याह को उजागर करती हो 
जीवन के हर मर्म को पल-पल समझाती हो 
कितना अँधेरा हो जाता है 
जब ऐ धूप !
तुम थक कर सो जाती हो

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

19. आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी

टुकड़े-टुकड़े छितरी धूप (नवगीत) छन्द प्रेरणा - चौपई छन्द

======================

साढ़े सात बजे 

कमरे में

टुकड़े-टुकड़े छितरी धूप !!

 

सुबह हुई एलार्म बजे से

’जमा करो पानी’ का जोर

इधर बनानी टिफिन सुबह की

उधर खाँसते नल का शोर

दो घण्टे के इस ’बादल’ से

करना बर्तन सरवर-कूप !

टुकड़े-टुकड़े छितरी धूप !!

 

लटका टूटा कान लिये कप

बुझा रही गौरइया प्यास

वहीं पुराने टब में पसरे

मनीप्लाण्ट में ज़िन्दा आस

डबर-डबर-सी आँखों में है

बालकनी का मनहर रूप !

टुकड़े-टुकड़े छितरी धूप !!

 

एक सुबह से उठा-पटक, पर

इस हासिल का कारण कौन

आँखों के काले घेरों से

जाने कितने सूरज मौन..

ढूँढ रहे हैं आईने में

उम्मीदों का सजा स्वरूप !

टुकड़े-टुकड़े छितरी धूप !!

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

20. आदरणीय ब्रजेन्द्र नाथ मिश्रा जी

धूप जा पहुँची अपने गाँव (गीत)

=====================

 

सुबह हुई, अम्बर में

जैसे छूटा हो आतिशबाजी।

किरणों की बौछार हो रही,

धरा नहाईं, हुई वो ताज़ी।

 

पीला हुआ रंग क्षितिज का,

लाल था पहले, जैसे जलते अलाव।

धूप जा रही अपने गाँव।

 

सूरज जैसे चढ़ता ऊपर,

बचपन बीता, आई जवानी।

किरणों में तपिश बढ़ रही,

जैसे यौवन में आये रवानी।

 

सूखी धरती पर चले अगर,

सिर होता गरम, जलते पाँव।

धूप जा रही अपने गाँव।

 

दोपहर बाद सूरज भी,

चलता पच्छिम, मद्धम - मद्धम।

जब भी ढँकता बादल सूरज को,

गरम धूप हो जाती नरम।

 

इतना चलकर, भागकर, घूमकर.

सूरज ढूढ़ रहा अपना पड़ाव।

धूप जा रही अपने गाँव।

 

आतुर नयनों से वाट जोह रही,

प्रेमी की याद में पलती आस।

संध्या रानी वैसे ही

सूरज से मिलने को खड़ी उदास।

 

सूरज जब आया, चुम्बन ले,

आरक्त कर दिए उसके गाल।

स्फुरण दौड़ रही रोम - रोम में,

धूप हो गई अरुणिम लाल।

 

विछुडन के उपरांत मिलन का,

सुख ने ढूढ़ लिया अपना ठाँव।

धूप जा पहुँची अपने गाँव।

 

सूरज जैसे एक जिस्म है,

धूप बनी है उसकी छाया।

परछाईं कभी अलग नहीं है,

अस्तित्व में जब तक है काया।

 

आत्म विलय हो परमात्म तत्व में,

तब आ जाता ठहराव।

धूप जा पहुँची अपने गाँव।

धूप जा रही अपने गाँव।

धूप जा पहुँची अपने गाँव।

-----------------------------------------------------------------------------------------

21. आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा ‘वात्सायन’ जी

धूप (द्विपदियाँ)

=====================

 

सुबह में धूप जरा जो खिली ।

नींद से जाग उठी वो कली ।।

 

व्योम में सौर किरण बिखरी।

चहकती चिड़ियाँ उड़ के चलीं।।

 

अंशु और ओस कणों का मिलन

घास पर बिखरे हीरा कण।।

 

निकलकर छोटा सा खरगोश

धूप का ढूंढें है आगोश।।

 

गिलहरी पेड़ों पर चढ़ती

फुदकती धरती पर फिरती।।

 

हिरन के झुण्ड टहलते हैं।

इधर तो उधर उछलते हैं।।

 

वानर दल भी निकले हैं।

डाली डाली उछले हैं।।

 

धूप से पत्तों को है प्यार।

करते हैं भोजन तैयार।।

 

रश्मियाँ जीवन दाता हैं।

सूर्य ही भाग्य विधाता है।।

 

धूप (गीत)

=====================

 

इस चेहरे को समझ के दर्पण, संवर रही हो काहें बोलो ?

मेरे मन के भावों को तुम, पढ़ लेती हो काहें बोलो ?

 

अधर तेरे मेरे गीतों पर, आखिर गुनगुन क्यों करते हैं ?

मुझे देख पायल के घुंघरूं, आखिर रुनझुन क्यों करते हैं ?

मुझे देख करके खिल जाना, और फिर धीरे से मुस्काना।

चुपके से मेरा अभिनन्दन, तुम करती हो काहें बोलो?

 

चिंता से यह मन जलनें पर, चन्दन-तन क्यों लिपटाती हो ?

तेज़ धूप में तन जलनें पर, कुंतल घन क्यों फैलाती हो ?

मेरी पीड़ा के घन तेरी, आँखों से क्योंकर झरते हैं ?

दर्द मेरा और तेरा क्रंदन, होता अक्सर काहें बोलो?

 

कहती हो ना ना ना फिर भी, बाँहों में क्यों पिघल रही हो ?

छोड़ के अपने तन को ऐसे, तुम बाहर क्यों निकल रही हो ?

मेरे प्रश्नों के उत्तर आँखों में तुम्हारी क्यों मिलते हैं ?

अनुनय मेरा तेरा समर्पण, प्रेम नहीं तो क्या है बोलो ?

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

22. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी

धूप (दोहा छंद)

=====================

 

बंधा हुआ था यज्ञ-पशु तना हुआ था यूप

धुवाँ-धुवाँ आकाश था  अलसाई सी धूप

 

पीपल की छाया घनी  तरु के नीचे कूप

आती है छन-छन भली क्वांरी-क्वांरी धूप 

 

शासन है उसका बड़ा वही महीपति भूप

जिसका यश-पर्याय है निखरी-बिखरी धूप

 

अन्धकार अज्ञान का था साम्राज्य अनूप

जीव मुक्त भव से हुआ मिली ज्ञान की धूप

 

धूप-व्रती अनिकेत सब सबका सधा स्वरुप

तन तप कर कंचन हुआ स्वर्ण-मूरि है धूप

 

धूप-धूप में भेद है  आतप एक अरूप

द्रव्य एक पावन सुभग अगरु सुगन्धित धूप

 

बड़ा भयावह ग्रीष्म है चिलक रही है धूप

सूरज की किरणे हुयी अग्नि बाण अनुरूप

 

दिवस ढला रवि वृत्त का लोहित हुआ स्वरुप 

संध्या विस्मय में पड़ी  सूरज है या पूप !

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

23. आदरणीय रतन राठौड़ जी

धूप (अतुकांत)

=====================

 

छतेनुमा गुलमोहर पेड़

के बीच से

छितराई हुई सी

बिखर गई ज़मी पे।

कुछ धूप!

अटक सी गई,

सुर्ख फूलों के तन पे।

थोड़ी धूप!

पसर सी गई,

घास की हरी पत्तियों पे।

गुनगुनी धूप!

राहत सी हो गई,

बूढ़ी दर्द भरी हड्डियों पे।

एक कतरा धूप!

पेड़ की शाख से

होती हुई पसर गई,

पहाड़ो की ढलानों

से होती हुई,

झील में विसर गई।

धूप!

ढलने की कगार पर

क्षितिज पर अटक गई।

बस!

पल दो पल में,

लील जाएगा सूरज उसे।

उम्र! भी लगभग,

ज़िन्दगी की एक

धूप है।

कहीं पसर जाती है,

कहीं बिसर जाती है,

कहीं बिखर जाती है,

कहीं अटक जाती है,

कहीं फिसल जाती है,

कहीं खो जाती है,

कहीं खो जाती है,

यह धूप!!

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

24. आदरणीय चौथमल जैन जी

धूप (आल्हा/ वीर छंद)

=====================

 

कड़कड़ाती धूप जिन्दगी , कहाँ छाँव के हैं आसार।

नफरतों की आँधियाँ हैं , कहाँ प्यार का हैं आधार।।

डोल रही है नैया तट पर , फंसे हुऐ हम हैं मझधार।

डगमगाते कदम हमारे , मिलता कहाँ हमें है प्यार।।

औ महलों के रहने वालों , तुम्हें मुबारक नई बहार।

हम गलियों के नस्तर हैं , हमें मिली है खाक हजार।।

है गरीबी और लाचारी , इस जीवन के ये दिन चार।

मतलब परस्त यहाँ सभी हैं , कोई नहीं है अपना यार।।

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

25. आदरणीया डॉ नीरज शर्मा जी

धूप (अतुकांत)

=====================

 

हां, धूप पसंद है मुझे।

सुबह की सलौनी

दोपहर की चिलचिलाती

शाम की तमतमाती

कैसी भी हो,

 धूप पसंद है मुझे।

 

पहाड़ की चोटी से

 पैर पटकती अल्हड़ सी उतरती।

अपने तेज से आंखे चौंधियाती,

मिचमिचाती,

टकराकर उस कोने को रौशन करती

जहां न पहुंच पाता रवि।

जमे पर्वत को अपने आंचल की

 तपिश से सहलाती,

  मां सी ।

हां, धूप पसंद है मुझे।

 

कल-कल धारा पर

वेग से जब आती

शीत , उष्ण का

अद्भुत मिलन कराती।

नदी की गहराइयों में

डूबती उतराती।

सारा दर्द समेट लाती

 प्यारी सखि सी।

हां, धूप पसंद है मुझे।

 

उतरती लहराती

पहरों से बाट जोहते

 खेत-खलिहानों के

अश्रु पोंछती।

धरतीपुत्र के श्रम

 को नहलाती

 लाल-पीली  लपटों से

धधकाती  चूल्हा

 जो देता  जीवनदान 

उन्मुक्त सांसें , शुध्ध हवा

 अन्नपूर्णा सी।

हां, धूप पसंद है मुझे।

 

बादल की ओट से झांकती

कभी शरमाती।

तो कभी आंखमिचौली खेलती,

बतियाती बदलियों संग,

इतराती तो कभी

तीर सी निकल जाती,

ओढ़्कर सतरंगी चूनर

 चंचल  ललना सी

हां, धूप पसंद है मुझे।

 

 

कालिमा से लड़कर

आस का दीप जलाती

सोए  तन में  प्राण

और मन ऊर्जा से भर देती

शंख, घंटियों  संग

आत्मग्यान कराती

हर प्रहर कद से

पहचान कराती

जगती के यथार्थ का

 पाठ पढ़ाती

गुरुवर सी।

हां, धूप पसंद है मुझे।

 

समय का

ग्यान ।

सतत  गतिमान ,

 यह संसार

रितुपरिवर्तन

जन्म-मरण भी

इह संसारे, खलु दुस्तारे

कृपया पारे, पाहि मुरारे

ईश्वर सी

हां, धूप पसंद है मुझे।

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

26. आदरणीय पंकज अग्रवाल जी

धूप का बस्ता (नवगीत)

=====================

 

बालकनियाँ

रोकती हैं धूप का रस्ता

धूप किस इस्टूल पर रक्खे

किरन के बोझ का बस्ता

 

धूप ने टांगा किरन को

या किरन ने धूप

पास आ फटकारती है

द्वंद्व का निज सूप

 

मात्र इतना काम करके ही हुई है

धूप की हालत यहाँ खस्ता

 

धूप को मुहलत मिले ,

करती हवा से बात

यहाँ पहले से हमारे

सर्द हैं हालात

 

कौन लेकिन है हमारे

हाल-ओ-हालात से भी

आज वाबस्ता

 

शाम तो है दूर

पर जल्दी मचा रखती

बस, ज़रा-सी गुनगुनाहट में

फँसा रखती

 

धूप महँगी हो गई है

छाँव का आना हुआ सस्ता

 

ठिठुरता संकल्प-जल

औ' माघ की खिचड़ी

जीतता सद्भाव

दूषित भावना पिछड़ी

 

स्वर्णपात्रों पर न साधो !

फेरिएगा छद्म का जस्ता

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

27. आदरणीय नयना(आरती)कानिटकर जी

फागुन की धूप (गीत)

=====================

छोडो अविश्वास

तिरस्कार छोड दो

सफलता के सब द्वार खोल दो

शिशिर की बयार संग

आ रही देखो  फ़ागुन की धूप है

 

छोडो घमंड को

ईर्ष्या को छोड दो

सदभावना के आसार खोल दो

शिशिर की बयार संग

आ रही देखो  फ़ागुन की धूप है

 

छोडो खामोशी

आँसू पीना छोड दो

ख़ुशियों के सारे द्वार खोल दो

शिशिर की बयार संग

 देखो आ रही फ़ागुन की धूप है

 

छोडो शर्ते

बंधन छोड दो

अजनबीपन का ढोंग छोड दो

शिशिर की बयार संग

आ रही देखो  फ़ागुन की धूप है

 

विरान  नज़ारा

दर्द छोड दो

रिश्तों के सारे डोर खोल दो

शिशिर की बयार संग

आ रही देखो  फ़ागुन की धूप है

 

खिलती जिंदगी

अधिकार छोड दो

दहकते हुए अंगार छोड दो

शिशिर की बयार संग

 आ रही देखो  फ़ागुन की धूप है

 

खोलो खिड़की

सब द्वार खोल दो

जीवन के आसार खोल दो

शिशिर की बयार संग

 आ रही देखो  फ़ागुन की धूप है

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

28. आदरणीय योगराज प्रभाकर जी

धूप (ग़ज़ल)

=====================

 

कर देती शैदाई धूप

अलसाई अलसाई धूप

.

बापू के कहने पर चलती

सूरज की ये जाई धूप

.

जब ठिठुरी धरती तो बोली

भेजो सूरज भाई! धूप

.

सहम उठी थी नाज़ुक दूब

अंगारे जब लाई धूप

.

मचला जब मतवाला बादल

तब थोड़ा शरमाई धूप

.

छाया रानी डरकर छुपती

जब लेती अँगड़ाई धूप

.

काँपी है कमरे की सीलन

खिड़की खोली आई धूप

.

घर महका, तन-मन भी महका

माँ ने जब सुलगाई धूप

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

29. आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी

धूप (सिंहावलोकनी दोहा आधारित मुक्तक)

=====================

 

घृणित विचारो से घिरे, जैसे मेढक कूप ।

कूप भरे निज सोच से, छाय कोहरा घूप ।।

घूप छटे कैसे वहां, बंद रखें हैं द्वार ।

द्वार पार कैसे करे, देश प्रेम का धूप ।।

 

देश द्रोह विष गंध है, अंधकार का रूप ।

रूप बिगाड़े देश का, बना रहे मरू-कूप ।।

कूप पड़ा है बंद क्यो, खोल दीजिये द्वार ।

द्वार खड़ा रवि प्रेम का, देने को निज धूप ।।

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

30. आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी

धूप (गीत)

=====================

 

चिंता मत करना माता

तुम करना अपना काम

सूरज से अपनी मित्रता

धूप क्यों होती बदनाम

 

दे मेरी गोदी में छोटी

बापू संग तू भी जाना

भूख तो कम ही लगती

भोजन तू कम पकाना

पेट भर तू खाना माता

तू करती इतना काम

सूरज से अपनी मित्रता

धूप क्यों होती बदनाम

 

पापा, मम्मा कहने वाले

भूख, धूप नहीं सह पाते

हमको भूखे-नंगे धूप में

देख अचरज कर जाते

दया भाव इनमें न आता

साया, छाया इनके नाम

सूरज से अपनी मित्रता

धूप क्यों होती बदनाम

 

धूप से भी तीखी लागे

निर्धनता अब हमको

ममता-क्षमता माँ-बाप की

देती अद्भुत शक्ति हमको

भाग्य हमें जितना जो देता

बस देता रहे सब अविराम

सूरज से अपनी मित्रता

धूप क्यों होती बदनाम

 

 

पढ़े-लिखे दौलत वाले

सूरज से क्या सीखें

उल्टी-सीधी लत वाले

हम पर ज़ुल्मी सरीखे

तेज तुम दोनों में दिखता

और सीरत का आयाम

सूरज से अपनी मित्रता

धूप क्यों होती बदनाम

 

-----------------------------------------------------------------------------------------

समाप्त 

Views: 3461

Reply to This

Replies to This Discussion

वाह ! संकलन तैयार !
मैं नितांत व्यक्तिगत कारणों से आयोजन के दूसरे दिन दोपहर बाद बाहर चला गया था. आयोजन की समाप्ति के बाद एक-एक पृष्ठ पलटता हुआ पढ़ता जा रहा था. उन रचनाओं का कायदे से पाठ हो, यह तो है ही, रचनाकर्म में आवश्यक सुधार हो इस हेतु रचनाकार प्रयास करें, इसके लिए भी संकलन की बहुत ही आवश्यकता है.
इस द्रुत गति से संकलन को उपलब्ध कराने केलिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय मिथिलेश भाई.
शुभ-शुभ

 आदरणीय सौरभ सर,  आपने सही कहा कि संकलन के बाद रचनाकर्म में सुधार का भी बढ़िया अवसर होता है. वास्तव में आयोजन का कार्यशाला के रूप में होने इसी प्रक्रिया के बाद पूर्ण और सार्थक होता है.

इस बार मैं भी व्यस्त रहा हूँ. बस इसी कारण अपनी कोई प्रस्तुति भी नहीं दे सका. जितना भी सक्रीय रहा, वह देर रात वाली कालावधि में ही रहा. मेरे प्रयास को अनुमोदित करने के लिए हार्दिक आभार.सादर 

महाउत्सव के सफल आयोजन,संचालन के लिए हार्दिक बधाई एवम् त्वरित संकलन प्रस्तुति पर हार्दिक आभार आदरणीय मिथिलेश जी।

आदरणीय सर मैंने कुछ और प्रयास किए हैं इस विषय एवम् इसी छंद पर संकलन में उनको स्थान मिले ऐसी प्रार्थना है।इस प्रयास में श्रद्धेय योगराज जी के संशोधन को भी साभार स्थान दें।पूरा प्रयास इस प्रकार है:-

१.
बदला बदला सा हुआ, है मौसम का हाल
पल में हिम सी ठण्ड है, पल में सूरज लाल
पल में सूरज लाल, हाल मौसम सा होता
पल-पल बदले रूप, लगे हँसता या रोता
सतविंदर कविराय, करे यूँ मौसम घपला
देखो उसका हाल, बहुत है बदला बदला।।

२.
अपने पीछे कैद की,जब बादल ने धूप
समझ स्वयं को था लिया,उसने सबका भूप
उसने सबका भूप,गर्व पर था इतराया
भूला सारी बात,कहाँ से जीवन पाया
बिना धूप के नाहि, कभी हों पूरे सपने
समझी ऐसी बात ,गर्व को भूला अपने ।।

३.
जीवन का आधार है,खिलती छुपती धूप
भरती भी औ सोखती, ताल-तलैया-कूप
ताल-तलैया-कूप,खान औ पानी न्यारे
धूप दिलाती जाय,जीव-पेड़ों को सारे
ना हो इसका खेल,पनपता कैसे तन-मन
खिलती-छुपती धूप,बनी है सबका जीवन।।

आदरणीय सतविंदर जी, निवेदन है कि दूसरे और तीसरे कुण्डलिया छंद को कथ्य की दृष्टि से तनिक और समय दीजिये. फिर एक साथ संशोधन कर दिया जाएगा. सादर 

मोहतरम जनाब मिथिलेश वामनकर साहिब, लाइव महोत्सव अंक 65 -के बेहद कामयाब संचालन और पलक झपकते ही त्वरित संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं

आदरणीय तस्दीक जी, हार्दिक आभार आपका 

आदरणीय मिथिलेश जी रचनाओं के इतना त्वरित संकलन के लिए आप निश्चित रूप से बधाई के हकदार हैं , हार्दिक बधाई। सर संकलन में मेरी रचना को स्थान देने का हार्दिक आभार। अनुरोध है की संकलित रचना को निम्न संशोधित रचना से प्रतिस्थापित कर अनुग्रहित करें। असुविधा के लिए खेद है।

ठहरो ठहरो
अभी से कहाँ जाने लगी हो?
कुछ देर तो ठहरो.

बनके हयात आयी हो
सारी कायनात साथ लाई हो
तुम्हारी हर शरर में गहराई है
ज़िंदगी की सच्चाई है
बिन शज़र की राहों पर
तुम हकीकत बन के आई हो
ये बात और है
तुम मौसम के साथ चलती हो
अपना अहसास बदलती हो
कभी तीखी लगती हो
कभी गुनगुनी लगती हो
तुम्हारा बचपन हसीं लगता है
यौवन में चटख होती हो
थकती हो जब साँझ को तो
सफर का सार होती हो
सरकते वक्त की छन्नी से
उजाला भी छन छन के आता है
अपनी अहमियत बताता है
अर्श पर अब्र आते ही
तुम आँख मिचौली करती हो

सच में ऐ धूप !
तुम अपने उजाले से हर स्याह को उजागर करती हो
जीवन के हर मर्म को पल-पल समझाती हो
कितना अँधेरा हो जाता है
जब ऐ धूप !
तुम थक कर सो जाती हो

अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार 

यथा निवेदित तथा प्रत्यास्थापित 

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी आपका  हार्दिक अाभार। 

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सादर, ओ बी ओ लाइव महा-उत्सव अंक-६५ के सफल संचालन और प्रस्तुत रचनाओं के शीघ्र संकलन पर हार्दिक बधाई.

महा-उत्सव में प्रस्तुत मेरी  दोहावली के अंतिम दोहे के प्रथम पद का मैं संशोधन प्रस्तुत कर रहा हूँ, कृपया उसे संकलन में स्थान देने का कष्ट करें. सादर आभार.

शुष्क हो गई जब धरा, बढ़ा सूर्य का ताप |

सागर से उठने लगी , हौले-हौले भाप || 

 

अनुमोदन हेतु हार्दिक आभार 

यथा निवेदित तथा प्रत्यास्थापित 

सादर आभार.

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई।…"
5 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते
"आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सृजन आपकी मनोहारी प्रतिक्रिया से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय "
7 hours ago
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार "
7 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . संबंध
"आदरणीय रामबली जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से सम्मानित करने का दिल से आभार ।"
7 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
12 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।"
13 hours ago
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"रोला छंद . . . . हृदय न माने बात, कभी वो काम न करना ।सदा सत्य के साथ , राह  पर …"
13 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सालिक गणवीर's blog post ग़ज़ल ..और कितना बता दे टालूँ मैं...
"आ. भाई सालिक जी, सादर अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
16 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"सतरंगी दोहेः विमर्श रत विद्वान हैं, खूंटों बँधे सियार । पाल रहे वो नक्सली, गाँव, शहर लाचार…"
19 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"आ. भाई रामबली जी, सादर अभिवादन। सुंदर सीख देती उत्तम कुंडलियाँ हुई हैं। हार्दिक बधाई।"
20 hours ago
Chetan Prakash commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"रामबली गुप्ता जी,शुभ प्रभात। कुण्डलिया छंद का आपका प्रयास कथ्य और शिल्प दोनों की दृष्टि से सराहनीय…"
21 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168
"बेटी (दोहे)****बेटी को  बेटी  रखो,  करके  इतना पुष्टभीतर पौरुष देखकर, डर जाये…"
yesterday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service