आदरणीय साथियो,
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आभार आदरणीय उस्मानी जी।
आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। अच्छी लघुकथा हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आभार आ.लक्ष्मण भाई।
लघुकथा- विजय
ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
"पापाजी! आपके पास इतनी रीवार्ड पड़े हैं, आप इनका उपयोग नहीं करते हो?"
" बेटी! मुझे क्या खरीदना है जो इनका उपयोग करुँ," कहते हुए पापाजी ने बेटी की अलमारी में भरे कपड़े, सौंदर्य प्रसाधन वाले सामान के ढेर को कनखियों से देखा। जिनमें से कई एक्सपायर हो चुके थे।
" इनमें 25 से लेकर 50% की बचत हो रही है। हम इसे दूसरों को बेचकर 50% कमा सकते हैं।"
" हूं।" धीरे से करके पापाजी रुक गए।
तब बेटी ने कहा," आप मुझे अपना फोन दीजिए। मैं आपको 50% की बचत करके देती हूं।"
" मेरे लिए कुछ मत मंगवाना । मुझे बचत नहीं करना है," पापाजी ने जल्दी से और थोड़ी तेज आवाज में कहा," मैं इतनी सारी बचत कर के कहां संभालता फिरूंगा।"
यह सुनते ही बेटी का पारा चढ़ गया, " पापाजी, आप भी ना, रहे तो पुराने ही ख्यालों के। आप को कौन समझाए कि ऑनलाइन शॉपिंग से कितना कमा सकते हैं?"
" हां बेटी, तुम सही कहती हो। पुराने जमाने के हम लोग यह सब करते नहीं हैं, नए जमाने वाले सभी यही सोचते हैं कि वे खरीदारी करके 50% कमा रहे हैं," कहते हुए पापा जी ने बेटी को अपना मोबाइल पकड़ा दिया, " बेटी, तुझे जो उचित लगे वह मंगा लेना। मुझे तो अब इस उम्र में कुछ बचाना नहीं है।"
कहकर पापाजी एकांतवास में चले गए।
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(मौलिक और अप्रकाशित )
आदरणीय शेख शाहजाद उस्मानी जी आपको लघुकथा में व्यंग्यगात्मकता नजर आई। यह बहुत ही बढ़िया बात है। आपका हार्दिक आभार लघुकथा पसंद करने के लिए।
नमस्कार, 'प्रकाश' साहब कमीशन का लालच देकर उपभोक्तावाद को प्रश्रय देना, युवाओं को ग़ैर ज़रूरी वस्तुएं खरीदने को प्रोत्साहित कर फिजूलखर्ची को किस तरह बढ़ावा दिया जा रहा है, को रेखांकित करती अच्छी लघुकथा कही आपने !
आ. भाई ओमप्रकाश जी, साद अभिवादन। अच्छी लघुकथा हुई है । हार्दिक बधाई।
सच ही सच ! (लघुकथा) :
"हमारी भी जय-जय! उनकी भी जय-जय! जपे जाओ जय-जय!"
"तो किनकी विजय है? अपनी या उनकी विजय है? किसका क्या नसीब तय है?"
"भय और अभय की विजय तय है, बस!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
जनाब, आदाब! यह क्या मज़ाक है? लघु कथा का कौन सा प्रकार है, यह? ज़रा समझाइएगा! न कोई पात्र, न कोई कथ्य, न कोई परिवेश! मात्र जिंगल! फिर कौन
किसी सत्य का बोध कर पाएगा, बताइये!
विजेता.....
अरे, भाई मास्टर अश्विनी ! अलस सुबह ही ठेकेदार सुखबीर आवाज लगा रहा था ! अश्विनी ने घर का दरवाजा खोलकर दबंग ठेकेदार को बैठक में सोफे पर बिठाया । "कहिए ठेकेदार साहब, और क्या सेवा कर सकता हूँ ,"
अरे मास्टर और कुछ नहीं हम तुम से बहुत खुश हैं । हमारी दोनों लड़कियों का दाखिला शहर के 'दिल्ली पब्लिक स्कूल' में हो गया। दो महीने की मेहनत कामयाब हो गयी, तुम्हारी भी और बेटियों की भी ! मास्टर तुमने उनकी अच्छी तैयारी कराई ! लो अपना मेहनताना !" और पाँच सौ रुपए नोट अश्विनी की तरफ उछाल दिया । अश्विनी की आँखे लाल हो आईं। मेज पर रखा पानी का गिलास पल भर मे वह गटक गये और ठेकेदार सुखबीर को मुखातिब होकर बोले, मास्टर अश्विनी, " चौधरी साहब आप मेरे पिता समान हैं, और आप की बेटियाँ मेरी दो छोटी बहने हैं । सो आप अपने इस बेटे को कुछ कहने की इजाजत दें ।"
"बोलो, बोलो !" , ठेकेदार ने इज़ाजत दी । पाँच सौ रुपये नोट उठाकर मास्टर अश्विनी ने वापस ठेकेदार सुखबीर के हाथ पर रखा और, बोले, " इन रुपयों से आप मेरी दोनो बहनों को उनके आने वाले जन्म दिन पर 'मास्टर अश्विनी' की ओर से कोई उपहार खरीद कर दे देना ! अब प्लीज़ मुझे इज़ाजत दीजिए, मुझे स्कूल जाने के लिए तैयार होना है।"
"जैसी तुम्हारी मरजी", कहते हुए ठेकेदार सुखबीर खुशी- खुशी अपने घर लौट गया !
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