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(१). सुश्री कांता रॉय जी 
लक्ष्य की ओर (संकल्प )

लक्ष्य को संधान कर , संकल्प को साथ ले , वह बस्ती से विदा हुआ । कच्चे रास्ते और मंजिल दूर ,लेकिन इरादा पक्का था ।
एक मुसाफ़िर की निगाह संकल्प पर पड़ी , वह मुग्ध हो उठा ,
"क्या इसका सौदा करोगे ? ढेरों रूपये दूंगा ! "
-- सुनते ही वह उखड़ गया।
" नहीं ! " -- उसकी फटी हुई कमीज़ में से झांकती चिपकी , लिज़लिज़ी गरीबी भी सहम गयी। संकल्प का हाथ थाम , आगे बढ़ गया ।

थोड़ी दूर और जाने पर एक दयावान यात्री उसके पैरों के छालों में से रिसता हुआ मवाद के मानिंद , उसके आत्मबल को भी रिसता हुआ जान , संकल्प के बदले एक चमचमाती मोटर - गाड़ी देने की पेशकश की । एक नजर उसने अपने पैरों की तरफ देख , उसके तरफ आँखें तरेर , संकल्प का हाथ और अधिक कस , गर्वोन्नत- हो, अपनी चाल तेज कर ली ।

लक्ष्य दूर था अभी भी , कि पास गुजरते व्यक्ति का दिल भी संकल्प पर अटक गया । उसके दर-दर भटकने को बेवजह बताते हुए संकल्प के सौदे में एक आलीशान मकान देने की बात कही । वह थक चुका था । संकल्प को देर तक जकड़े रहने के कारण हाथ में झुनझुनी उठ रही थी । घर की कामना या संकल्प······?
अँगुलियों के इशारे से उसको दूर रहने को कह ,बड़ी ही अकड़ से आगे बढ़ गया । इन सब बातों को देख सुन रहे अन्य यात्री प्रभावित हुए । वे लोग उसकी जय -जयकार करने लगे ।

यात्रा पूर्ण हुई कि , हठात् नजदीक से गुजरता हुआ राजनेता का काफिला उसे देख कर रूक गया । एक कार्यकर्ता गाड़ी के पास जाकर राजनेता के कान में फुसफुसाते हुए कुछ कहा , वे एकदम से चौंक उठे । नेता जी गाड़ी में से बाहर आ , उसके समक्ष अति विनम्र भाव से हाथ जोड़ , सविनय निवेदन किये , --" मै आपको अपने मंत्री मंडल में शामिल कर लूंगा , बदले में आप अपना संकल्प मुझे दे दें। "

सुनकर वह ठिठका , अपनी फटी हुई कमीज़ में चिपकी, लिज़लिज़ी गरीबी और पैरों के छालों में से रिसता हुआ मवाद देख तनिक देर सोचा ····· ! पीछे जय जयकार अभी भी जारी था । आँखें चौंधियाईं , एक स्मित मुस्कान होंठों पर कायम हुई। उसने संकल्प का हाथ छोड़ दिया ।
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(२). सुश्री नीता सैनी जी 
मेरा संकल्प

"बेटा मेरा अब कोई भरोसा नही और कितने दिन की मेहमान हूँ , तू गुड्डो के लिए कोई लड़का देख जल्दी से उसके हाथ पीले कर दे ।" माँ ने नीरज से कहा तो नीरज मंद ही मंद मुस्कुरा कर बोला "माँ पिछले चार पांच साल से यही सुन रहा हूँ ।"
"मेरी आखिरी इच्छा है कि ये काम मेरे जीते जी ही हो जाये ।"
"हां माँ , मैं भी सोच रहा हूँ कि अपनी इच्छा पूरी हुए बिना तू भी कहीँ नही जाने वाली और तब तक शायद मेरा संकल्प भी पूरा हो जाये ।"
"पहेली ना बुझा , सही से बता क्या है तेरे जी में ?" माँ ने पूछा तो नीरज ने कहा "माँ ! मैंने सोचा है कि पढ़ी लिखी नौकरी वाली बेटी ही विदा करूँगा और बहू भी ऐसी ही लाऊंगा ।"
"तेरी बात मैं समझु हूँ बेटा लेकिन चल बेटी को  तो पढ़ा ले लेकिन ज्यादा पढ़ी लिखी बहू का क्या करेगें कल को फिर वो ही म्हारे सिर पे नाचेगी ।"
"हां , जब तो तुझे बड़ा भला लग है जब तेरी बहू सब दवाइयों के नाम पढ़ पढ़कर तुझे सही दवाई दे देव है , भला हो वो प्रौढ़ शिक्षा वाली बहनजी का वर्ना तुने तो मेरे मत्थे भी अनपढ़ ही बाँध दी थी ।"
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(३). सुश्री नयना (आरती) कानिटकर

बचपन से गाँव की चिरपरिचित बुराइयों को देखती आ रही वह अब सयानी हो चुकी थी और सब कुछ समझने लगी थी. अपने ही गाँव के सारे पुरुषों को हमेशा दिन मे बड के पेड के निचले चबुतरे पर 'तीन-पत्ती’ खेलते देखा था या फिर शाम होते ही शराब के नशे मे धुत्त .. सोचती क्या यही है यह पुरुष ?
जबकि उसके गाँव की स्त्रियाँ भोर होते ही घर का काम निपटा खेतो की ओर चल देती । शाम तक खेतों में निराई-गुडाई के साथ-साथ मजदूरी करती नही थकती थी। आख़िर पापी पेट का सवाल था। वह बडी असमंजस में थी जब देखती और सुनती की साँझ ढले घर आने पर थके शरीर पर पिल पड़ते सबके मरद ...
ये देख उसका तो सारा तन-बदन अंगार की तरह जल उठाता था। उसके मन पर गहरा प्रभाव छोड़ चुकी थी यह रोज की हक़ीकत। बस अब उसने ठान ली थी की उसका बस चले तो सब कुछ बदलने की ... पर कैसे ?
बहुत सोच समझकर उसने गाँव की स्त्रियों को इकट्ठा कर इस पर चर्चा की और सबकी राय जानी। इसके बाद सहमति से पहले अवैध शराब की बिक्री पर रोक के लिए पंचायत पर धरना दिया। घर-घर जाकर पुरुषों को समझाईश .. कुछ की समझ में आया कुछ निरे खूसट निकले
सब महिलाओ ने सर्वसम्मति से "नशा मुक्ति" और" जुआ बंदी" का अभियान चलाया।
अब उसकी संकल्प शक्ति रंग दिखाने लगी थी और जल्द ही गाँव की हर स्त्री का साथ उसे मिलने लगा - वह सबका दिल जीतने में कामयाब रही थी और फिर वह दिन आ गया जब--
सगुन बाई सर्वसम्मति से ग्राम पंचायत छाईकुआं की सरपंच चुन ली गई।
उसका सपना अब सच होने वाला था उसकी आँस जाग उठी, वह खुश थी अपने गाँव की स्त्रियों के मनोबल को देखकर। उसने सरपंच की हैसियत से बचपन से हृदय में बिधे  कोलाहल को समाप्त करने की घोषणा की ---
 "शराब पीता या जुआँ खेलता गाँव का कोई भी पुरुष नजर आयेगा या पकड़ा जायेगा तो उसके जूते-टोपी उतार उसे गाँव की सीमा के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा "
आज उसका पहला साक्षात्कार था कोई विदेशी पत्रकार गाँव में आई हुई थी .. गाँव टौरियाँ की किस्मत अब दुनिया देखने वाली थी !
काश पूरा हिन्दुस्तान भी इसी तरह बेहतर हो--क्या हो पाएगा ऐसा?
"निश्चित हो सकेगा । इसी तरह की दृढ संकल्प शक्ति के साथ।"
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(४). श्री शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी 
"सहिष्णु सुगना" - (लघुकथा)

आज अपने कॉलेज के दिनों के राष्ट्रीय सेवा योजना के शिविर की तस्वीरें एलबम में देखते समय निष्ठा की नज़र जब सुगना की फोटो पर पढ़ी तो वह अतीत की कड़वी यादों में खो गई। उन दस दिनों में वह उस होनहार लड़की से सिर्फ चार-पाँच बार ही मिल पायी थी। गाँव में उस शिविर के दौरान निष्ठा ने थकी हारी सुगना को जब पहली बार गांव के मज़दूरों के साथ शाम को घर लौटते देखा था, तो उसने सुगना की दादी विमलाबाई से स्वयं सम्पर्क किया था । पता चला था कि उसकी माँ जमुनाबाई एक बेटे को जन्म देने के दो दिन बाद ही चल बसी थी। तब से उसके पिता रामदास की दिमाग़ी हालत ख़राब हो गई थी। ढाई साल पहले ही एक रात को जो घर से गया, फिर लौटा ही नहीं। गांव वालों ने बताया था कि तब से सुगना ही अपने नौ साल के भाई और अस्सी साल की दादी की परवरिश कर रही थी। भाई सरकारी स्कूल में कक्षा चार में पढ़ रहा था। उस परिवार ने कभी गांव में किसी के आगे हाथ नहीं फैलाये थे । प्रशासन के आगे कई बार मदद की गुहार लगाई, लेकिन कभी सुनवाई नहीं हुई। सुगना प्रतिदिन अपने भाई को स्कूल छोड़ने जाती थी । फिर चलने-फिरने में असमर्थ अपनी दादी को दवा और खाना देने के बाद गांव वालों के साथ मज़दूरी पर निकल जाती थी । मात्र तेरह साल की सुगना की सहनशीलता, पक्के इरादे और हौसले को देख निष्ठा ने उसकी मदद करने की ठानी थी।

"अब तुम मज़दूरी करने नहीं जाओगी , तुम भी फिर से अपनी पढ़ाई शुरू करोगी ! मैं तुम्हें सरकारी मदद दिलवाऊंगी ! " -यह आश्वासन देकर निष्ठा ने ग्राम पंचायत से लेकर तहसील तक सुगना के साथ दौड़ धूप कर उस परिवार के लिए इंदिरा आवास और बच्चों के लिए फोस्टर केयर योजना का लाभ दिलाने के लिए आवेदन लगाये थे, लेकिन जब सुगना से कर्मचारियों ने उसकी माँ का मृत्यु प्रमाण-पत्र और पिता के ग़ायब हो जाने का प्रमाण-पत्र माँगा, तो वह बेचारी क्या समझ पाती ? लेकिन पढ़ी-लिखी निष्ठा भी तो कुछ न कर पायी थी । टाला-मटोली और रिश्वतख़ोरी की असली तस्वीर उसने पहली बार देखी थी । शिक्षित लड़की रिश्वत भला क्यों और कैसे देती ? ज़िलाधीश को सी.एफ.टी. में आवेदन करने पर भी कोई कार्रवाई नहीं हुई थी । एक मामूली लड़की अपने दम पर इतना ही तो कर सकती थी । बाबुओं के बोलने का ढंग और दृष्टि कुछ भी तो उसे सहन नहीं हो पा रहा था। अंत में उसने अपनी हार स्वीकार कर ही ली थी । शासन के प्रकल्प भले ही लुभावने थे, लेकिन लचर भ्रष्ट व्यवस्था ने उसके संकल्प को करारी मात दे दी थी । सुगना के सामने ख़ुद को कितना बोना सा महसूस किया था उसने ! शायद सहिष्णु सुगना का संकल्प उसके संकल्प से बेहतर था !
संवेदनशील असहिष्णु निष्ठा के उस संकल्प की हार आँसू बनकर आज पुनः उसे ऐसी कई सुगनाओं के संकल्पों की अनुभूति करा रहे थे।
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(५) श्री सुनील वर्मा जी 
मूकदर्शक

"और बताओ भाई...इस साल इन लोगों से क्या क्या संकल्प ले रहे हो"-दिवार पर लगे नये साल के कैलेंडर के दूसरे पन्ने ने पहले पन्ने से कहा.
"अरे काहे के नये संकल्प..वो ही घीसी पीटी सूची है इनकी... रोज कसरत करेंगे,सुबह जल्दी उठेंगे,बड़ो का आदर करेंगे..मुझे तो लगता है मेरा जनम ही ये सब सुनने को हुआ है."
जनवरी की बात सुनकर खिड़की से आती हवा के साथ कैलेंडर के नीचे वाले पन्नें खीं खीं करके हँस पड़े.
"सुन भाई... मेरे जाने के बाद तू इनको इनका संकल्प याद दिलाते रहना"-हवा से ऊंचे उठे जनवरी पन्ने ने वापस नीचे आकर फरवरी पन्ने को छूते हुए कहा.
"अररे मैं और मार्च तो फिर भी इनके दिमाग में इनका संकल्प घुसाये रखते है पर सिर्फ हमारे याद दिलाने से क्या होगा नीचे वाले महिने इस काम में बिल्कुल सहयोग नही करते."
फरवरी के लगाये आरोप का तीर अपनी ओर आता देख नीचे से जून अपने स्वभाव के अनुसार लगभग आग उगलते हुए बोला.."हुंह..खुद ने संकल्प लिया है तो याद भी खुद रखो..हमारी ठेकेदारी है क्या, वैसे भी ये लोग 'लाल रंग वाली तारीखों' को अलावा हमसे सुनते भी क्या हैं"
जुलाई-अगस्त ने भी जून का ही समर्थन किया.
सितम्बर अक्टूबर ने अपनी निष्क्रिय उपस्थिती के साथ बहस से किनारा कर लिया.
गरम होती बहस को संभालने के लिए कुछ शीतलता ओढे हुए नवम्बर ने कहा- "हम मूकदर्शक नही बनेगें और एक कोशिश कर के देख लेंगे अगर ये लोग मानेंगे तो.."
तय हुआ सबसे वरिष्ठ महिना दिसम्बर नव वर्ष में किये गये संकल्प को फिर याद दिलायेगा.
उधर ऊपर रोशनदान में गोल करके रखा हुआ पुराना कैलेंडर आने वाले महिनों की बातें सुन होंठ दबाकर हँस रहा था.
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(६). सुश्री ज्योत्स्ना कपिल जी 
प्रायश्चित ( संकल्प )

" क्या हुआ ? जबसे आप ऑफिस से लौटे हैं बहुत परेशान लग रहे हैं !"
" हाँ मैं परेशान हूँ शकुन, आज भी तुमने बच्चों और मेरा छोड़ा हुए खाना घर के आगे जानवरों के खाने के लिए डाल रखा था।"
" जी हाँ,वो तो मैं रोज़ डालती हूँ। फिर... ?"
" जब मैं ऑफिस के लिए निकला तो देखा कि एक बदहाल बच्चे और श्वान में भोजन को ग्रहण करने के लिए द्वन्द चल रहा था।खुद पर झपटते कुत्ते को बच्चे ने पत्थर मारकर भगा दिया और भोजन पर टूट पड़ा। "
" अरे ?"
" मुझे निकलते देखकर बच्चे ने लज्जित होकर भोजन छोड़ दिया।तभी मौका पाकर वो कुत्ता आया और बचा हुआ भोजन चट कर गया।"
" ओह "
" बच्चे ने जिस बेचारगी से उस खत्म होते हुए खाने को देखा,मेरा दिल दहल गया।एक ओर हम जैसे लोग हैं जो अन्न की इतनी बर्बादी करते हैं।और दूसरी ओर इतने बेबस लोग ..जिन्हें पेट की आग इतना मजबूर करती है की वो कैसे भी इस ज्वाला को शांत कर लेना चाहते हैं।"
" सचमुच बहुत दुखद स्थिति है। "
" मैंने बचपन से अब तक जितना अन्न बर्बाद किया है अब उसका प्रायश्चित करूँगा।"
" अर्थात ?"
" आज से मैं सिर्फ एक वक़्त भोजन ग्रहण करूँगा।"
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(७). सुश्री रश्मि तरीका

(संकल्प ..विषय आधारित) दोस्ती

मोबाइल पर अंकित का नाम फ़्लैश हो रहा था।तीसरी बैल होते होते सुधा का टिफिन पैक हुआ और उसने खीज कर फ़ोन उठा लिया ।
"हाँ बोलो ..क्या बात है? क्यूँ फ़ोन पर फ़ोन किये जा रहे हो ? मैंने कल कहा न तुमसे कि मुझे अब कोई बात नहीं करनी तुमसे ।"
"सुधा ,मैं बहुत परेशां हूँ ।हॉस्पिटल में हूँ। कल रात ब्लड प्रेशर हाई हो गया था।अब तुम झगड़ कर और मत बढ़ाओ।प्लीज,आ जाओ एक बार मिलने।जया मायके गई है।वो कल ही आ पाएगी।अपने दोस्त के लिए इतना नहीं कर सकती ? तुम्हें देखते ही ठीक हो जाऊँगा ।" अंकित बिना रुके बस मुनहार करता गया बुलाने के लिए।
"देखती हूँ ...।"कहकर सुधा ने फ़ोन रख दिया।एक अन्तर्द्वन्द में घिर गई कि जाए या न जाए।हर बार का लिया गया प्रण ज़ाया हो जाता। यह ज़रूर था कि अंकित की प्यारी, लुभावनी बातों में अपने और सुधीर के वैवाहिक जीवन की कड़वाहटों को भूल जाती थी ।लेकिन कई दिनों से अंकित अब उसे दोस्ती की नई परिभाषा समझाने में लगा हुआ था।किसी अनहोनी की आशंका से सुधा ने अपने कदम भटकने से रोक लिए।मन ही मन एक संकल्प लिया कि इस दोस्ती को यही विराम देगी ताकि दो परिवार टूटने से बच जाएँ।विचारों की तन्द्रा एक बार फिर अंकित के फ़ोन की घंटी से टूट गई।
" अकेले बहुत घबराहट हो रही है जान ।तुम आ रही हो न ?"आवाज़ को दर्द में भिगो कर अंकित ने पूछा।
" अंकित ,घबराओ नहीं। मेरी जया से अभी बात हुई है।वो कल नहीं आज ही आने वाली है ।"
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(८). सुश्री बबिता चौबे शक्ति जी 
संकल्प
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" अरे सुनते हो जी आखिर माँ पिताजी कितने दिनो तक रहेगे यहॉ ? हमे भी घर गृहस्थी देखनी है कि नही ? मै कब तक सबका करती रहूंगी ?बच्चो को सम्भालना घर के काम सारा दिन खटती रहती हूं और अब मॉ बाबूजी भी ! मुझसे नही होगा ये सब कह देती हूं ! तुम्हे कुछ करना ही होगा !"
बहू के कमरे से आती धीमी आवाज राजेश्वर बाबू को जगा गई !
स्वाभिमान से जीने के संकल्प ने एक बार पिताजी का घर छुड़वा दिया था और आज फिर ...........
अपना घर जमीन बेटे के नाम करके सारा जीवन उसके साथ रहने का विचार त्यागकर स्वाभिमान का संकल्प ले आज वो फिर गांव लौट रहे थे और हर चेहरा मुस्कुरा रहा था !
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(९). सुश्री राहिला जी 
संकल्प
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"क्या हर बार ऐसा करना जरूरी है? और भी तो है दुनिया में, सबका जिम्मा तुमने ले रखा है !कहीं तुम्हारे स्वास्थ्य को कुछ हो गया तो मैं क्या करूगीं? ऐसी भी क्या जिद । "वो चिंतित हो उठी ।

"बस! यही वो सोच है विभा!जिसने हमारी बच्ची की जान ली है । सुखमय जीवन व्यतीत करते-करते कभी सोचा ही नहीं हमारे आस -पास कितने ही लोग कष्ट में है । और हमारा जरा सा सहयोग उन्हें उन कष्टों से उभार सकता है । जब ठोकर खाई तब सबक याद कर रहे हैं वरना हम. ..,मैं कभी नहीं भूल सकता कि सही वक्त पर खून ना मिल पाने की वजह से मेरी बच्ची. ..।कहते -कहते उसका गला रूंध गया । अब इसे तुम जिद कहो या संकल्प, ये जिम्मेदारी हमारी ही है क्योंकि हम इस लायक है दानकर सकते है धन भी और खून भी "।
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(१०). श्री राजेन्द्र कुमार गौड़ जी 
संकल्प
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"संकल्प लेना आसान हैं, कमल कोई भी निर्णय लेने से पहले अपनी क्षमता का विचार जरूर कर लेना."
"रमई काका, भावावेश में लिये निर्णय ही तो सार्थक होते हैं; वे ही तो जीवन को नई दिशा देंगे. और ये तो समय सिध्द हैं, कोई भी विचार शुन्य में तो जन्म नही लेगा न."
"बेटा, मैं तो सदा केवल इतना ही चाहता हूँ; जो भी शुरू करो उसको पूरा निभाओ. कमजोर इच्छा शक्ति फिर विकल्पों के विचार करती हैं. और कुतर्कों से अपनी गलती को सही ठहराने का प्रयास करती हैं. उस दुष्चक्र से बचना."
"काका, इसी के लिये तो आपसे आशीर्वाद की चाह हैं, कि मार्ग दुर्गम तो हैं ही और बिना प्रोत्साहन आसान भी नही."
"कमल, ईश्वर का कार्य हैं ये जो तुम शुरू करोगे, शिक्षा के लिये जीवन का होम करने के तुम्हारे :संकल्प: में तन से तो नही किन्तु मन व धन से सदैव तुम्हारा सहभागी होने का प्रयास करूँगा. ये सारी जायदाद तुम्हारे शिक्षा कार्य के निमित्त मैं आज ही तुम्हारी भावी संस्था के नाम कर दूँगा."
"काका, आखिर काका ही रहे; मैं तो मात्र कर्ता ही रहा, संकल्प तो आपका हो गया."
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(११). सुश्री जानकी वाही जी 
आरज़ू (संकल्प)

लोग शान से भव्य स्मारक के सामने तश्वीरें खिंचवा रहे हैं। यहाँ कोई धर्म,भेद-भाव और असहिष्णुता नज़र नहीं आती।
" तुम तो वर्षों से इन सबके गवाह हो। कैसा महसूस करते हो ?" निरन्तर प्रज्वलित अग्नि ने पूछा ।
" बहुत गर्व अनुभव करता हूँ । ये लोग मेरे भव्य रूप को देखने नहीं ,मुझमें समाये शहीदों को देखने आते हैं। मैं गवाह हूँ देश के लिए मर-मिटने का संकल्प लेने वालों की जज़्बों से भरी अनगिनत कहानियों का।"
" हाँ , मैं देख रही हूँ तुम्हारी, दरों-दीवारों पर उकेरे गए अनगिनत शहीदों के नाम।"अग्नि ने श्रद्धा से नतमस्तक होते हुए कहा।
"तुम भी तो निरन्तर प्रज्वलित रहती हो ?" स्मारक बोला।
" हाँ ,मैं भी उन वीरों के संकल्प से अभिभूत हूँ । स्वयं देश पर न्यौछावर होना? अपनी बाँकी ज़वानी को खून से रंग लेना? क्या हर किसी के वश की बात है। उनकी आहुति के सामने मेरी आहुति तो एक तुच्छ भेंट है।"
"देखो , उन दो बच्चों को - इनके परिवार की तीन पीढ़ियों की वीर गाथाएं मेरी छाती पर खुदी हैं।"
स्मारक और अमर ज़वान ज्योति ने वात्सल्य से उन दो नन्हें भाई-बहन को देखा जो आपस में लड़ रहे थे ।
" मैं देश के लिये मर- मिटूँगा .....नहीं मैं मर-मिटूँगी।"
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(१२). श्री सतविंदर कुमार जी 
अपमान:एक संकल्प लक्ष्य की ओर

"अरे तू नीच जात!दो आखर पढ़कै मास्टर के बण ग्या अपणी औकात ही भूल ग्या?चौधरियाँ के बालकाँ न डाँटेगा?उनपै रोब दिखावेगा?"
चौधरी सूरत सिंह ने बीच कक्षा में उसका गला पकड़कर उसे ये शब्द कहे थे।
"हम पहुँच गए सर।"
ड्राईवर के इन शब्दों से उसकी तन्द्रा भंग हुई।
"हूँssss।"
ड्राईवर ने दरवाज़ा खटखटा कर चौधरी साहब को बाहर बुलाया। और वह मिठाई का डिब्बा लिए बाहर ही खड़ा था।
"राम-राम चाचा जी।"
"राम-राम भाई।अरे तू तो......मनै सुणा उसी दिन मास्टर की नौकरी छौड़ कै,गाम ते ही भाग गया था?"
चौधरी सूरत सिंह ने थोड़ा गर्व से फूलते हुए कहा।
"हाँ चाचा जी।चला तो गया था।लो, मिठाई लो आप।"
"मिठाई क्यूँ?" फिर थोड़ी अकड़ के साथ।
"आपका और बच्चों का मुँह मीठा करवाने के लिए लाया हूँ।"
"मुँह मीठा....,किस ख़ुशी मैं?"
"चाचा जी मैंने डी.सी. बनने वाली परीक्षा पास कर ली।अब मैं डी.सी.(जिला उपायुक्त) बन गया हूँ।लो आप सब मुँह मीठा करो।"
चौधरी साहब उसके हाथ से मिठाई ले,उनकी आवभगत में लग गए।
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(१३).  सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी 

"ये करेगा श्राद्ध ?पल भर को एक जगह टिक कर बैठ नहीं सकता ये बावला "I 15  ,16 साल के मंद बुद्धि रघु को देख पंडित मिश्रा ने मुहँ बिचका दिया I"
"बच्चों जैसा भोला चंचल है ,पर हमारी तो ये ही संतान है Iचार साल का था जब इसके बाबूजी लाये थे इस अनाथ कोI आप तो सब जानते ही हैं भैया जी "I अपने से चिपक कर बैठे रघु को, माँ प्यार से थप थपा रही थीI
"अरे ,शक्ति भैया को कौन नहीं जानता बहन जी I दूर दूर तक उन जैसा तैराक नहीं था I  कसम उठा रखी थी कि कम से कम इस घाट में तो किसी को डूबने नहीं देंगे I अपनी धुन के चलते बेचारे खुद ही भेंट चढ़ गए गंगा मैया की I  उन जैसे व्यक्ति का श्राद्ध विधान से और सही हाथों से होना चाहिए कि नहीं ?"
"ये रघुवा भी अपने बाबूजी जी जैसा ही तैराक हैI,देख लेना आप किसी दिन "I  माँ के भरोसे की ख़ुशी रघु की आँखों में चमकने  लगी I
"वो सब ठीक है ,पर इसके जात धर्म का भी कुछ पता है ?"
"मिश्रा जी ,मेरा बेटा सुबह से उपवास में है Iआप श्राद्ध आरंभ करवा दें तो कृपा होगी I" भैया जी से मिश्रा जी...माँ का कड़क लहजा  भांपने में चूक नहीं की  पंडित मिश्रा ने I
"आ बैठ जा ,और संकल्प ले " तल्खी छिपा नहीं पा रहे थे पंडित जी I
रघु परेशान हो माँ को देखने लगा I
"कुछ पूजा पाठ करते हैं ना बेटा ,तो हाथ में जल और अक्षत वगेहरा लेकर पहले संकल्प लेते हैं उस पूजा को करने का I चल अंजुरी बना और हाथ बढ़ा I"  पंडित जी की नज़रों को अनदेखा कर वो बेटे में ही व्यस्त थींI
रघु की अंजुरी में सामग्री रख वो कुछ श्लोक बुदबुदा ही रहे थे कि अचानक रघु बैचैन हो उठा I घाट में कुछ शोर हो रहा था I रघु झटके से खड़ा हुआ और घाट की तरफ दौड़ लगा दी Iअगले ही पल वो लहरों में था I
"देखा ,कैसे भाग गया संकल्प अधूरा छोड़ करI बावला कहीं का "I तसले में तैरते  अक्षत रोली को देख पंडित जी भुनभुना रहे थे I
" वो ही तो पूरा कर रहा है भैया जी I देखिये , ला रहा है बचा के बाहर उस डूबते को I सच्चा बेटा है कि नहीं अपने बाबूजी का "?
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(१४). श्री मोहन बेगोवाल जी 
संकल्प
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“चलो, समाज में फैली बुराईयों को जड़ से उखाड़ फैंके” अध्यापक ने बच्चों से कहा ।
फिर उसने  खुद से सवाल किया “ये बुरईयाँ असमान से तो उतरी नहीं,इस समाज की तो हैं, इसकी जड़ें भी यहीं कहीं हैं।
फिर पहला काम तो ये पता लगाने का होना चाहिए कि बुराईयां समाज में क्यूँ हैं ?  
“ कहीं ऐसा तो नहीं कि जो लोग  इन बुराईयां को खत्म करने की बात करते हैं, वो ही इन बुराईयों के जनक हों” “नहीं, वो कैसे हो सकते हैं”, फिर अध्यापक खुद से सवाल करता  है।

“हम तो नहीं, हम तो नौकरी करते हैं, घर बना सके, बच्चों को पढ़ा सके, और बीवी की जरूरतें पूरी कर सकें ” अध्यापक ने एक बार फिर बुराईयों की बातों से खुद को बचाते हुए कहा, “बाकी बातों से हमें क्या लेना देना है। ”
“बता, जो  तुम  कर रहें हैं, उस से इस व्यस्था को कायम रखने में मदद नहीं मिल  रही” फिर उसके मन में सवाल पैदा हुआ  ।
‘कैसे’, अगर आप दूसरों से बेहतर सिथित में है, तो फिर आप  इस व्यस्था को कायम तो  रखेंगे  ।
"हाँ  “क्यूँ नहीं”  
मगर, फिर इस व्यस्था से पैदा होने वाली बुराईयों के निंदक क्यूँ हैं ।
“मैं कहाँ हूँ,अगर विकास होगा तो बुराईयाँ भी तो  साथ होंगी ”  अध्यापक ने बच्चों को बुराईयों को दूर करने का संकल्प पकड़ाते हुए,खुद से कहा । 
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(१५). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
लघुकथा – सत्य

मित्र, मित्र को देख कर चकित था, “ महात्मन् ! कुछ जिज्ञासा है. समाधान चाहता हूँ.”
“कहो वत्स !” वे मुस्काए.
“मैं, बचपन में निर्वस्त्र होने पर शरमाने वाले और आज के इस महात्मा के सत्य को जानना चाहता हूँ,” एकांत पाते ही मित्र ने पूछा.
“वत्स ! दोनों ही सत्य है.”
“समझा नहीं, महाराज !”
“बचपन में वे मातापिता के दिए गए संस्कार थे और यह सत्य को जानने का संकल्प,” कह कर महात्मा मौन हो गए और मित्र इस ‘सत्य’ को जान कर.
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(१६). श्री सुधीर द्विवेदी जी  
अघोषित संकल्प (संकल्प विषयाधारित )

ओफ..! कितनें चूहे दिख रहें हैं उसके इर्द-गिर्द ? कोई इधर कुछ कुतर रहा है तो कोई नीचे से भागता हुआ अलमारी के ऊपर जा चढ़ा है | अपनें नुकीले दांतों से एक चूहा उसकी बचपन की फोटो को ही कुतरनें लगा है| 
"हश..हश..!!" की आवाज़ करते हुए उसने चूहे को भगानें के लिए ढेरों जतन किये पर सब बेकार | तब-तक  एक अन्य चूहे ने उसके घर की दीवार में एक बड़ा सुराख कर दिया है| चारों ओर से कुतर-कुतर की आवाजें आ रहीं हैं| परेशान होकर वह सुस्ताने के लिए आरामकुर्सी पर बैठ गया, तभी एक मरियल सा चूहा उसके हाथ को स्पर्श करता हुआ भाग गया|
लिजलिजे स्पर्श से वह घृणा से भर कर हाथ झटकते हुए वह झुँझला उठा | चारों ओर से उसे कुतर-कुतर की आवाजें सुनाई दे रही हैं | वह ज़ोर से चिल्ला पड़ा | "सब बर्बाद कर देंगे ये...सब कुछ ..!"  तभी सहकर्मी के झिंझोड़ देने से वह जाग गया |
"क्या हुआ..?” सहकर्मी आश्चर्य से उसकी ओर देखते हुए पूछा | 
"कुछ नही... बुरा सपना था | " पसीने से लथ-पथ उसने ,झेंपते हुए उत्तर दिया |
थोड़ी देर वह कुर्सी पर ही बैठा रहा | कुतर-कुतर की मद्धिम ध्वनि उसे अब भी सुनाई दे रही थी | ऊब कर वह वाश-रूम में घुस गया | चेहरे पर पानीं के छींटे मार कर चेहरा पोछते हुए उसनें शीशे में जब अपना चेहरा देखा तो उसे लगा उसकी ठुड्डी सिकुड़ रही है ,और उसके क्लीन-शेव चेहरे पर लम्बी-लम्बी नुकीली मूंछे उग आई है | उसकी घबराहट और बढ़ गयी |   जल्दी-जल्दी वापस  वह अपनीं कुर्सी पर आ बैठा |
कुतर-कुतर की ध्वनि अब भी मद्धिम-मद्धिम,उसके कानों में गूंज  रही है |
हालाँकि अपने उन परिचित ठेकेदारों के टेण्डर की फाइलों को स्वीकृत करनें की सुविधा-राशि उसे मिल चुकी है ,पर अपना ध्यान बंटाने के लिए वह फिर ,दोबारा उन्हें उलटने- पलटनें लगा |
धीरे-धीरे फाइलों के कई पन्नों में उसके कलम की लाल स्याही ने अपनें निशान छोड़ दिए | टेण्डर, अब अस्वीकृत हो गया है |
उसके माथे की टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों ने अपने पैर फैला कर सीधे कर लिए |  उसने शांत-भाव से अब दूसरे टेंडर की फ़ाइल खोल ली |काम में मशगूल होकर उसे अब कुतर-कुतर की ध्वनि बिलकुल भी नहीं सुनाई दे रही है..
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(१७). श्री डॉ टी आर सुकुल जी 
संकल्प

‘ अभी तक जितनी लड़कियां देखीं हैं उनमें से जिसे कल देख कर आये हैं मुझे तो वह सबसे अच्छी व सुंदर लगी, अपने ‘हर्ष‘ को भी पसंद आई, दोनों इंजीनियर हैं एक ही कंपनी में काम भी करते हैं, एक सी सेलरी भी है, मैं तो कहती हॅूं आज ही लड़की वालों से आगे की बात कर  शुभ लग्न देखकर विवाह सम्पन्न कर दो, देरी करना उचित नहीं है‘‘

‘ मैं भी यही सोचता हूँ I यदि ‘हर्ष‘ का भी यही विचार है तो फिर मैं बात आगे बढ़ाता हूँ।‘‘
‘‘ हेलो, पाँडे जी ! मैं त्रिपाठी,  हमें लड़की पसंद है, अब आगे की रूपरेखा के संबंध में बात करना है, यदि आप यहाॅं आ जायें तो अच्छा होगा‘‘
‘‘ओहो, नमस्कार त्रिपाठी जी!, मैं आपके आदेश  का पालन करनें हेतु अभी आपके पास हाजिर होता हॅूं । ... ... ...
‘‘आइये, आइये पाँडे जी! यहाँ  बैठिये।  - - -  वास्तव में, मैं यह जानना चाह रहा था कि आपका संकल्प क्या है?‘‘
‘‘आदरणीय! मेरा संकल्प तो यह है कि, भगवान ने मुझे लडकियाँ ही दी हैं इसलिये उन्हें लड़कों के समान ही शिक्षित कर आत्मनिर्भर बना दूँ बस, धीरे धीरे वही पूरा करता जा रहा  हूँ ।‘‘
‘‘अरे पाँडे जी! वह तो सभी करते हैं, मैं तो इस विवाह के संबंध में किये गये आपके संकल्प के बारे में पूछ रहा था अर्थात् कितना खर्च करने का विचार है?‘‘
‘‘आप ही बता दें कि आप कम से कम कितना खर्च करना चाहते हैं‘‘
‘‘ इस जमाने में दस से पन्द्रह लाख तो साधारण लोग भी खर्च कर देते हैं फिर हमारा स्तर तो,,, आप जानते ही हैं‘‘
‘‘महोदय! जहाँ तक मैं जानता हूँ ‘संबंध‘ का अर्थ है ‘सम प्लस बंध‘, अर्थात् दोनों परिवारों की ओर से प्रेम और आकर्षण के एक समान बंधन, इक्वल बोंड्स आफ लव एन्ड अफेक्शन , इसलिये आप जो भी खर्च निर्धारित करेंगे हम दोनों परिवार बराबर बराबर बाॅंट लेंगे, ठीक है?‘‘
"‘अच्छा, पाँडे जी! फिर तो हमें इस विकल्प पर विचार करना पड़ेगा, नमस्कार!‘‘
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(१८).  श्री प्रदीप नील जी 
आँखों के जाले ( संकल्प )

भुवन के तो दिमाग़ का फ्यूज़ ही उड़ गया था। पिछले ही हफ्ते तो वह आफिस से छुट्टी ले कर, एक हज़ार रूपए लगा कर पिता जी का चश्मा बनवा कर लाया है और इधर पिता जी हैं कि आंखें मिचमिचा कर अखबार देख रहे हैं, बिना चश्मा लगाए।
”पिता जी, रही-सही आंखें भी फुड़वा कर चैन लेंगे क्या ?“ भुवन गुस्से से भुनभुना रहा था ” जब चश्मा बनवाया है तो लगाते क्यों नहीं ?“
शर्मा जी ने अखबार पटकते हुए कहा था ” पढने को तुम हरामजादे पत्रकार छापते ही क्या हो ? रोज़ वही अपहरण, बलात्कार और हत्याओं के समाचार। एक भी तो समाचार ऐसा नहीं जिसके लिए चश्मा लगाना पड़े। हैडलाइन्स बिना चश्मे के दिख ही जाती हैं, पढा और फैंक दिया। “
भुवन निरूत्तर रह गया, पिता जी सच ही तो कह रहे थे। उसके बाद तो पिता जी का रूटीन यही बन गया। भुवन देखता और शर्मिन्दा हो कर चुप रह जाता। .और फिर एक दिन ऐसा भी आया कि उपेक्षित हो कर चश्मा दराज में बंद भी हो गया।
”भुवन ! ओ भुवन , ज़रा मेरा चश्मा तो लाना “ एक सुबह पिता जी की उत्साह भरी पुकार सुनी तो भुवन चश्मा उठा कर भागा गया था और बोला ” आज ऐसा क्या छपा है जो चश्मे की ज़रूरत आन पड़ी ?“
शर्मा जी अखबार की एक हैडलाइन पर अपनी कांपती ऊंगलियां फिरा रहे थे और बहुत खुश थे “ ले देख, तू भी पढ लेना लेकिन पहले मैं पढ लूं। ” पिता जी हैडलाइन सुना रहे थे ” पुलिस वाले ने मालिक को ढूंढ कर खोया पर्स लौटाया ...“
आज पिता जी की आँखों में जो तेज आलोक था , वह चश्मे के मोटे लेंस से निकल कर भुवन की आँखों में जा रहा था और उसकी आँखों के जाले साफ़ होते जा रहे थे।
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(१९). सुश्री नीता कसार जी 
'प्रण '

'किताबों की दुकान पर ये पौधों का क्या काम है बाबा 'चकित होकर अमन दुकानदार से पूछ बैठा ।
"ये पौधे उपहार स्वरूप देने के लिये रखें है,बिल्कुल मुफ़्त है।"
"पर समय कहाँ है यहाँ किसी के पास पौधे लगाकर देखभाल करने का "
"समय नही है तो क्या तुम अपने बच्चे को छोड़ सकते हो" बाबा ने कहा
अमन निरूत्तर हो गया।
"ये ज़िंदगी की सच्चाई है जो मुश्किल से ही समझ आती है सब यही छूट जाता है। मैंने संकल्प किया है, बच्चों को शुद्ध पर्यावरण देना चाहता हूँ, यही मेंरा परम प्रण है। जिसे आज की पीढ़ी जागरूक हो समझे I पौधे ही तो पर्यावरण के पुरोधा है,ये ही पृथ्वी को प्रदूषण से मुक्त कराकर शुद्ध आबोहवा मुहैया करायेंगे। जिससे सब स्वस्थ्य रहेंगे, व रोगमुक्त रहेंगे।पर्यावरण बचाने का
अन्य कोई विकल्प नहीं है। मैं अपना यही संकल्प साकार करने के लिये प्रतिबद्ध हूँ।"
"मुझे एक पौंधादीजिये बाबा, कल माँ का जन्मदिन है" शतप्रतिशत बाबा की बातों से सहमत हो अमन दुकान के बाहर लिखी पंक्तियों का आशय भलीभाँति समझ गया ।
'जन्मदिन,सालगिरह को यादगार बनाये कम से कम एक पौधा ज़रूर लगायें'।
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(२०). श्री तेजवीर सिंह जी 
संकल्प -   (लघुकथा) –

"दादाजी,क्या मुसलमान हमारे दुश्मन हैं"!
सात साल के रुद्र के मुंह से यह प्रश्न सुन कर ज्ञान प्रकाश जी अचंभित हो गये!
"रुद्र, ऐसा प्रश्न तुम्हारे मन में कैसे आया"!
"दादाजी,हमारी कक्षा के सभी छात्र  बताते हैं कि  इतिहास में लिखा है कि मुसलमानों ने हमारे देश पर हमला किया था,
वे हमारे दुश्मन हैं!इसीलिये हमारी कक्षा के सभी छात्र  हमारी कक्षा में पढने वाले असलम  को भी दुश्मन मानते हैं,कोई उससे बात 
नहीं करता और उसके साथ टिफ़िन भी नहीं बांटते,
कल हम सब छात्र मिलकर  उसे मार पीट कर मज़बूर करेंगे कि वह हमारा यह स्कूल छोड जाय"!
"रुद्र, हमारे देश पर हमला तो अंग्रेजों ने भी किया था फ़िर पीटर तुम्हारा दोस्त क्यों है"!
"तो आप ही बताइये दादाजी, असलियत  क्या है"!
"रुद्र, जो इतिहास में हुआ वह अतीत था,उसे वर्तमान से जोडना गलत है"!
"शायद आप ठीक कहते हैं"!
"अब आगे तुम्हारा क्या विचार है"!
 "कल का कार्य क्रम रद्द"!
"केवल इतना ही काफ़ी होगा"!
"नहीं दादाजी, मेरा संकल्प है कि मैं असलम को अपना दोस्त बनाऊंगा,उसके साथ टिफ़िन बांटूंगा,अन्य छात्रों को भी समझाऊंगा"!.
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(२१). सुश्री सीमा सिंह जी
पुनरावृत्ति

“अरे ये कहाँ लेकर आए हो मुझे? मैं ऐसी जगहों पर सहज नहीं रह पाती...” माला ने सकुचाते हुए उससे कहा. एक तो इतने युवा ग्राहक का साथ, और कोई नाइट क्लब जैसी जगह. माला को अजीब लग रहा था.
“किसी होटल का कमरा बुक करते तो ज्यादा बेहतर.....”
आगे के शब्द माला के होठों में ही फँसे रह गए, अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था ...
उसकी बेटी मुक्ति, जिस वह दो घंटे पहले ही खाना खिला कर घर से निकली थी, वह सामने एक अधेड़ व्यक्ति के साथ अर्धनग्नावस्था में लिपटी हुई खड़ी थी i बेटी को इस हाल में देख उसे लगा मानो वह स्वयं ही हो, जब वह दो माह की नन्ही बेटी के साथ इस अनजान शहर में आई थी I.आई क्या थी, वो ही छोड़ गया था I उसने हर दरवाज़े मदद की गुहार की थी, ढूँढने पर भी कोई काम नही मिला था I एक तो औरत थी, वो भी अकेली और युवा. जो नज़र पड़ी, वह गन्दगी से ही भरी थी I आखिर परस्थितियों के आगे घुटने टेक माला उस दलदल में उतर ही गई थी. मगर मन में एक आशा और संकल्प के साथ कि चाहे जो हो जाये अपनी बेटी को इस गंदगी से दूर रखेगी I
अपना प्रण आँखों के सामने बिखरता हुआ देख माला ने आगे बढ़ मुक्ति को बाँह से पकड़ कर एक झटके में उस अधेड़ से दूर कर दिया I
"अरे अरे ! कहाँ ले जा रही हो इसे ? पूरी रात का पेमेंट किया है मैंने, वो भी एडवांस में!”
"जान ले लूंगी कमीने तेरी !" माला की आँखों से अंगारे बरसने को थे I
फिर हतप्रभ बेटी के सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उसने कहा:
“मुक्ति ! चल बेटी यहाँ से!”
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(२२). श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी
"तीन संकल्प"

वो दौड़ते हुए पहुँचता उससे पहले ही उसके परिवार के एक सदस्य के सामने उसकी वो ही तलवार आ गयी, जिसे हाथ में लेते ही उसने पहला संकल्प तोड़ा था कि 'वो कभी किसी की भी बुराई नहीं सुनेगा'| वो पीछे से चिल्लाया, "रुक जाओ तुम्हें तो दूसरे धर्मों के लोगों को मारना है|" लेकिन तलवार के कान कहाँ होते हैं, उसने उसके परिवार के उस सदस्य की गर्दन काट दी|

वो फिर दूसरी तरफ दौड़ा, वहाँ भी उससे पहले उसी की एक बन्दूक पहुँच गयी थी, जिसे हाथ में लेकर उसने दूसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वो कभी भी बुराई की तरफ नहीं देखेगा'| बन्दूक के सामने आकर उसने कहा, "मेरी बात मानो, देखो मैं तुम्हारा मालिक हूँ..." लेकिन बन्दूक को कुछ कहाँ दिखाई देता है, और उसने उसके परिवार के दूसरे सदस्य के ऊपर गोलियां दाग दीं|

वो फिर तीसरी दिशा में दौड़ा, लेकिन उसी का आग उगलने वाला वही हथियार पहले से पहुँच चुका था, जिसके आने पर उसने अपना तीसरा संकल्प तोड़ा था कि 'वो कभी किसी को बुरा नहीं कहेगा'| वो कुछ कहता उससे पहले ही हथियार चला और उसने उसके परिवार के तीसरे सदस्य को जला दिया|

और वो स्वयं चौथी दिशा में गिर पड़ा| उसने गिरे हुए ही देखा कि एक बूढ़ा आदमी दूर से धीरे-धीरे लाठी के सहारे चलता हुआ आ रहा था, गोल चश्मा पहने, बिना बालों का वो कृशकाय बूढ़ा उसका वही गुरु था जिसने उसे मुक्ति दिला कर ये तीनों संकल्प दिलाये थे|
उस गुरु के साथ तीन वानर थे, जिन्हें देखते ही सारे हथियार लुप्त हो गये|
और उसने देखा कि उसके गुरु उसे आशा भरी नज़रों से देख रहे हैं और उनकी लाठी में उसी का चेहरा झाँक रहा है, उसके मुंह से बरबस निकल गया 'हे राम!'|
कहते ही वो नींद से जाग गया|
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(२३).  सुश्री डॉ नीरज शर्मा जी
संकल्प


घर में नन्हें मेहमान के आने की खुशी में ममता के पांव ज़मीं पर नहीं पड़ रहे थे, वह दौड़ दौड़ कर बच्चे के स्वागत की तैयारियों में जुटी हुई थी। उसका उत्साह देखते ही बनता था।
अचानक फोन की घंटी बजी। उसने रिसीवर उठाया। उसके बाद उधर से जो कहा गया, वह सुनकर वह पल में आसमान से धरती पर आ गिरी। ममता को काटो तो खून नहीं। रिसीवर हाथ से छूट गया। वह संतुलन खोकर गिर ही जाती, कि तभी पति की मजबूत बांहों ने उसे घेरे में ले लिया।  आँसू थे कि रुकने नाम ही नहीं ले रहे थे।
“ हुआ क्या है? यह तो बताओ।” सुमित ने हिचकियाँ लेकर रोती ममता को संभालते हुए पूछा।
“क्‍या सचमुच मैं किसी बच्‍चे को कभी माँ का प्‍यार नहीं दे पाऊँगी।“ सिसकते हुए ममता ने सवाल किया।
सुमित ने उसे पलंग पर लिटाया व सांत्वना देते हुए उसके बालों को सहलाने लगा। वह उसकी मनःस्थिति व दर्द को शिद्दत से महसूस कर रहा था। “लेकिन हुआ क्‍या? “ सुमित ने पूछा।
लेकिन जब ममता कुछ न बोली, तो उसने खुद ही फोन लगाया।
ममता की बार बार टूटती आस ने उसे अंदर से भी तोड़ दिया था। तीन-तीन वर्षों के अंतराल पर तीन बार गर्भ ठहरने के बावजूद उसका गर्भपात हो जाता। गहराई से जांच करवाने पर गर्भाशय में रसौली होने का पता चला था। चिकित्सकों की राय पर शल्य क्रिया द्वारा रसौली के साथ गर्भाशय भी निकाल देना पड़ा था। उसके माँ बनने की रही सही उम्मीद खत्म हो चुकी थी। वह उदास रहने लगी थी।
तभी एक खुशी की किरण उसके अंधेरे जीवन में उजाला बनकर आई। कितनी खुश थी वह, जब देवर-देवरानी ने दिलासा दिया कि उनकी जो भी पहली संतान होगी, उसे वे ममता की झोली में डाल देंगे।
बड़ी प्रतीक्षा के बाद वह घड़ी आई थी। तो….
सुमित फोन पर छोटे भाई से कह रहा था, “नहीं छोटे, कोई बात नहीं। अगर तुम दोनों चाहते हो कि बच्‍चे को तुम्‍हीं पालो, तो यह तुम्‍हारा अधिकार है। मैं तेरी भाभी को समझा दूँगा। बच्‍चा वहाँ रहे या यहाँ, आखिर कहलाएगा तो हमारे परिवार का ही।“
अब तक ममता ने भी अपने आपको संभाल लिया था।
उसने आत्मविश्वास व प्रण के साथ ऐलान किया , “नहीं, अब मैं किसी का बच्चा गोद नहीं लूँगी, बल्कि हर उस बच्चे की माँ बनूँगी, जो माँ के प्यार से वंचित है।“
सुमित ने मुस्‍कराते हुए ममता के कंधों पर हाथ रखा और बोला, “यह हुई न ममता वाली बात।“
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(२४). सुश्री शशि बंसल जी
संकल्प ( विषय आधारित )

कक्षा में शिक्षिका द्वारा उपस्थिति ली जा रही थी ......" एस सी स्टूडेंट्स' खड़े हो जाइये । एक, दो ,तीन , ... ठीक है बैठिये । 'एस टी स्टूडेंट्स' खड़े होइए । एक , दो ,..... बैठिये ।' ओबीसी स्टूडेंट्स' ......। हाँ , तो बच्चों कल कौन सा पाठ पढ़ रहे थे हम ? "
कक्षा ख़त्म कर बाहर निकलते ही बगल की कक्षा से निकल रही शिक्षिका ने उसे रोकते हुए कहा - " ये क्या नैना , तू इस तरह उपस्थिति लेती है , बच्चों को बुरा लगता होगा ? "
"तो , तू क्या करती है ? "
"मैंने तो बच्चों को उनकी जाति से याद कर लिया है , नाम लेकर देखती जाती हूँ और बस गिनकर उपस्थिति - पत्रक भर देती हूँ । "
"क्या फ़रक पड़ता है कामना । बच्चे भी सब समझते हैं । हाँ , ये जरूर है कि इसके पीछे की  तंत्र-प्रणाली उनकी समझ से बाहर है ।  "
"सही कहती हो नैना ! सोचा था.... शिक्षिका बन सबसे पहले बच्चों को इंसानियत का ही पाठ सिखाऊँगी , ताकि वे कभी इंसान-इंसान के बीच  भेद न करें , पर नहीं जानती थी , शुरुआत इसी संकल्प को तोड़ने से करनी पड़ेगी ।"
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(२५). श्री विनय कुमार सिंह जी
संकल्प--

पूरी रात सो नहीं पायी थी वो , बहुत कठिन मोड़ पर ला खड़ा किया था ज़िन्दगी ने । बहुत सी जिम्मेदारियाँ थीं जिनका निर्वाह करना बाक़ी था और अपने संस्कार भी थे जिनसे दूर होना एक तरह से उसकी आत्मा की मौत थी । एक बार फिर मैसेज का टोन बजा फोन में और वो वर्तमान में आ गयी । हिम्मत नहीं पड़ रही थी फोन देखने की , उसे पता था कि मैसेज या तो बहन का होगा या बॉस का और दोनों ही स्थितियों के लिए वो निर्णय नहीं कर पायी थी ।
कई दिनों से वो दोनों को टाल रही थी , जब भी बहन का मैसेज आता तो कमज़ोर पड़ने लगती थी । घर के एकलौते कमाऊ सदस्य होने के चलते उसकी पढ़ाई लिखाई की जिम्मेदारी उसको उठाना अपना कर्तव्य लगता लेकिन कहाँ से करे इंतज़ाम । बड़ी मुश्किल से थोड़े पैसे बचते थे जिसे वो बिला नागा घर भेज देती थी , लेकिन या तो घर वालों को उसकी हालत का इल्म ही नहीं था , या वो यक़ीन नहीं करना चाहते थे । बॉस उसे व्यवहारिक बनने की सलाह देता और साथ ही साथ उसकी समस्याओं के हल का आश्वासन भी ।
आख़िरकार उसने फोन उठाया , मैसेज बहन का ही था और दो दिन में ही पैसे भेजने के लिए लिखा था । वो फिर से कमज़ोर पड़ने लगी और उसे लगने लगा कि अब दोनों को ही हाँ बोलने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था । अचानक उसकी नज़र सिरहाने रखी पिता के तस्वीर पर पड़ी और उसे उनके आखिरी समय में लिया गया संकल्प याद आ गया कि जिम्मेदारियाँ जरूर उठाना लेकिन अपने संस्कारों और इच्छाओं की कीमत पर नहीं ।
उसने अपना पहला संकल्प पूरा करते हुए दोनों को हाँ का जवाब भेज दिया और फोन रखते हुए उसने पिता की तस्वीर उल्टी कर दी ।
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(२६). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी

संकल्प

 

"अरे ! डॉ . साहब कहाँ हैं आप ? मेरे इकलौते बेटे को बचा लीजिये " आगन्तुक की जानी-पहचानी आवाज सुनकर एम्. डी.साहिबा मीता स्वयं बाहर निकल आयी।तब तक मरीज को गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया जा चुका था।सांत्वनावश मरीज के परिजनों से कहा -

"धीरज रखिये " आगे के शब्दों ने उनका साथ नहीं दिया और वे मरीज के परिजन राजेश को फटी आँखों से देखती रह गयी और ना चाहते हुए भी वह अतीत के सागर में विचरण करने लगी-

"मैं तुम्हारे साथ और नहीं रह सकता ।खर्चे के लिए तुम्हे मैं पैसा दे दूंगा लेकिन कोई बवाल नहीं चाहिए।"

"राजेश , क्या कह रहे हैं आप ? हमारे बेटे का क्या होगा सोचिये ? हम कहाँ जायेंगे?"

"जाओ अपने नट-बोल्ड बेचने वाले बाप के पास "

"लेकिन ऐसा उसमे क्या हैं जो मुझमे नहीं ? "

"वह पढ़ी- लिखी हैं, सोसायटी में उठना-बैठना जानती है।कोई तुम्हारी तरह जाहिल-गवाँर थोड़े ही हैं ।"

उसके पश्चात लड़ाई- झगड़े और शारीरिक प्रताड़ना से हारकर उसने पिता के घर की शरण ली ।पिता की सहायता से ऑटो-पार्ट्स की दूकान खोली। जीवन की पथरीली राहों पर चलना आसान् नहीं था फिर भी संकल्प लिया बेटे निलय को अच्छी शिक्षा देने के साथ- साथ स्वयं को भी शिक्षित करने का।

कार्डियोलॉजिस्ट बेटे निलय की आवाज सुन वह वर्तमान में लौट आयी वह राजेश से कह रहा था

"आप चिंता ना करिये। वक्त-बेवक्त आपात स्थिति में मैं उपस्थित रहूंगा।"

साथ ही मीता ने जोड़ दिया "आपके इकलौते पुत्र को कुछ नहीं होगा । आप मेरे पुत्र पर भरोसा रखिये।"

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(२७). श्री सौरभ पाण्डेय जी 

मुझे जीना ही होगा (संकल्प)

"सऽऽऽर.. ! सर्जेण्ट कांबळेऽऽऽ !.. होश में रहियेऽऽ.. सर प्लीज़... शरीर मत छोड़ना.. "

लांसनायक गोडबोले बमों की लगातार होती धमक और गोलियों की लगातार होती तड़तड़ाहटों के बीच एक सुर में चीखे जा रहे थे. सर्जेण्ट कांबळे नीम बेहोशी में थे. लांसनायक गोडबोले सर्जेण्ट को होश में रखने के लिए हर संभव उपाय कर रहा थे. गोली सर्जेण्ट की दाहिनी पसलियों को चीरती हुई बाहर निकल गयी थी. दूसरी ठीक बायें कंधे में आ धँसी थी. ढेर सारा ख़ून निकल चुका था. गोडबोले ने पूरा दो क्वार्टर उसके घावों पर उड़ेल दिया था. वे गड्ढे से बाहर आये. सर्जेण्ट को खंदक तक खींच ले जाना ज़रूरी था. सो गड्ढे से बाहर निकल कर सार्जेण्ट के लसर गये शरीर को खींचने लगे.

"ठिचिक्क !"

एक भेदती हुई गोली लांसनायक गोडबोले की गर्दन में धँस गयी. बग़ैर एक शब्द बोले गोडबोले वहीं ढेर हो गये. सर्जेण्ट के शरीर पर निढाल !

इधर आकाश लाल होने लगा था. सर्जेण्ट कांबळे के शरीर में हरकत हुई. उसे अपने ऊपर लांसनायक गोडबोले के शरीर का बोझ महसूस हुआ. कांबळे के ’जागते’ मन में एक-एक कर कई नाम उभरने लगे, पत्नी विद्यावती, नन्हीं मीनू, आठ महीने का उसका मुन्ना, बार-बार बीमार होती माँ. एक वही कमाने वाला ! उसके मन में विचारों के बुलबुले उठने लगे - ’अरे नहीं.. मुझे मरने का कोई अधिकार नहीं है ! एक मेरे न रहने भर से बाकी सभी मर जायेंगे.. मुझे जीना ही होगा.. मुझे जीना ही होगा !’

 

कांबळे को तभी अपनी तरफ़ आती हुई खोज़ी जीप की आवाज़ महसूस हुई. उसने गर्दन उठा कर उस ओर देखा. फिर उसने पूरी ताकत बटोर कर ज़ोर की चीख लगायी - ’हेऽऽऽऽल्प !..

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(२८). श्री पंकज ओशी जी
संकल्प-नशा उन्मूलन

मुरारी बाबू के शव को प्रणाम कर उनके बचपन के मित्र सोमेश उनकी धर्मपत्नी को सांत्वना देने पहुंचे
"अरे भाभी जी यह सब अचानक कैसे हो गया?"
"क्या कहें भाईसाहब कल रात ये खाना खाने के बाद सोने जा रहे थे कि अचानक से इनके सीने में दर्द उठा -और बस ।"
"सचमुच आप लोंगों के साथ बुरा हुआ परमात्मा आप लोगों को इस असमय दुःख को सहने की I" सोमेश जब तक अपने शब्दों को विराम देते तब तक पास में बैठा मुरारी बाबू का सुपुत्र रवि यह सब सुन कर अपनी भावनाओं को काबू में ना रख पाया और जोर से फूट फूट कर रोने लगा:
"यह सब मेरे कारण हुआ है माँ ! ना मैं कल रात नशे की हालत में घर आता और ना ही बाबू जी इस तरह बिना इलाज के तड़पते हुए प्राण छोड़ते "
सुमित्रा उसके पास आकर उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली:
"यह सब तो विधि का विधान है , इसमें तेरा क्या दोष । हाँ , अगर तुम अपने अंदर की पश्चाताप की आग में जल रहे हो तो बेटा अपने पिता के सामने प्रण लेना होगा कि आज कि आज के बाद तुम ना केवल इस कुरीति का त्याग करोगे बल्कि औरों को भी नशा त्यागने के लिए भी प्रेरित । यही तुम्हारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धाजंलि होगी ।"
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(२९).  श्री मनन कुमार सिंह जी

    संकल्प

-हाँ भई, औरों की सुनना तो चाहिए ही।
-अरे यहाँ तो बस अपनी कहने की पड़ी है।
-वह भी प्रतिकारस्वरूप,अपनी बात हो तो भली।
-बिलकुल यार, हो-हल्ला मचाया जा रहा है
-वह भी सहिष्णुता को उछालकर।
-हाँ,तुम असहिष्णु,मैं सहिष्णु बस।
-जनता को भटकाने जैसा लगता यह।
-पक्ष-विपक्ष तो जनतंत्र में होते ही हैं।देश और सरकार चलाने का दायित्व दोनों का होता हैं
-हाँ विरोध वाले मुद्दे पर विरोध करो,पर राष्ट्र हित के सही मुद्दे को सही बोलने में तेरे बाप का क्या जाता है;बोलो सही-सही।
-बिलकुल,अब लो न सरकार अच्छा करे या संयोग से उसका कुछ किया तुझे न भाये,बस ससुरे एक ही झंडा लिए फिरते हैं बस विरोध का;हो-हल्ला मचाये चलते हैं।
-वही तो,हम तो अपने बच्चों को यही सिखायेंगे कि किसी भी बात की पूरी परख किये बिना कुछ भी कहना मुनासिब नहीं।
-हाँ भई भोला,अक्षरशः सत्य यही है।
-क्या कहूँ नज़ीर भाई,लोग भी वही हो गये हैं।कोई कह दे कि कौवा कान ले गया तो कौवे के पीछे दौड़ जायेंगे,कान नहीं देखेंगे
-पढ़े-लिखे सब का भी यही हाल है;अपढों की क्या कहें।
-बुद्धिजीवी वर्ग ही अब जमात बनाने लगा है।जनता तो बँटने-कटने को है ही।
-छोड़ भाई भोला-नज़ीर की जोड़ी सलामत रहे!,नज़ीर बोला।
-और सारी जोड़ियाँ जो बिखर रही हैं
-ये अक्ल के अंधे लोगों को बस बाँटना जानते हैं,भोला गुस्से से बोला।
-चल भई हम न बंटेंगे,कहेंगे तो सुनेंगे भी;गुन कर कुछ भी करेंगे',चलते-चलते नज़ीर बोला।
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(३०). श्री पवन जैन जी
।। रिवाज ।।
   .
पारित संकल्प के अनुसार सतर्कता जागरूकता सप्ताह में शपथ ली ।
"लोक सेवक के रूप में भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए कार्य करेंगे ,
अपने कर्त्तव्य का पालन पूर्ण ईमानदारी से करेंगे ।"
फोटो खिंचवाई ।
"साब फाइनल बिल का चैक अभी तक नहीं बना ।"
"बडे बाबू ,ठेकेदार साब का चैक नहीं बना ?"
"साब बिल नहीं आया ।"
"बिल तो प्रस्तुत कर दिया था ,सत्यापन भी करा दिया , आपने ही तो टीप दी थी ,पूरी फारमेलिटी हो चुकी हैं ।"
"ठेकेदार साब एक फार...मे...लिटी बची है ।"
"बडे बाबू मैं सोच रहा था ,यह जो आपका सप्ताह चल रहा है, सुबह शपथ ली थी ।"
"जी हाँ ,हर साल लेते हैं , हम सरकारी कर्मचारी है ,सरकार के सब आदेशों का पालन करना हमारा कर्तव्य है , आदेश था तो हमने शपथ ली ।"
"इसका मतलब यह तो नहीं कि हम वर्षों पुराने रिवाज ही खत्म कर दें ।"
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(३१). सुश्री श्रद्धा थावाईत जी
निर्णय

ईश्वर ने पृथ्वी के निर्माण के लिए पंचद्रव्यों के अलावा बहुत से गुण-अवगुण, भावों, क्रियाओं के रंग-बिरंगे डिब्बे भर कर रखे थे. उनके दिमाग में पृथ्वी कैसे बनेगी, कैसी होगी विचार उमड़ते रहते लेकिन ऐसे रचना करूँ या वैसे रचना करूँ के फेर में पृथ्वी कोरे कागज सी ही बनी रही. अपने मानसिक झंझावातों में उलझे हुए एकदिन उन्होंने तूफानी समुद्र रच दिया. अचानक उन ने पाया कि उस तूफानी समुद्र ने उनके दो डब्बों को खींच लिया है.

ईश्वर ने देखा कि संकल्प का डब्बा बड़ा है वह कुछ देर मदद का इंतजार कर सकता है. उन्होंने  छोटे डब्बे में भरे विकल्प को बचाने की कोशिश की. उसे लहरों से निकाल समुद्र तट पर छोड़ा और फिर संकल्प की ओर हाथ बढ़ाये. वह संकल्प तक पहुंचे तो उन्होंने पाया कि विकल्प लहरों के आगोश में आ फिर डूब रहा है. संकल्प अभी भी संभला हुआ था. वह फिर विकल्प की ओर बढ़ गए.

ऐसा ही पुनः हुआ. पुनः-पुनः हुआ. अब तक संकल्प का डिब्बा भी कमजोर पड़ डूबने लगा था. ईश्वर ने विकल्प की ओर ध्यान देना छोड़ कर संकल्प की ओर कदम बढ़ा दिया. उन्होंने जैसे ही संकल्प को बचाने के लिए कस कर पकड़ा तो विकल्प से भरे डिब्बे को लहरों ने खुद ही किनारे छोड़ दिया.

समुद्र की लहरों से संघर्ष करते, संकल्प को कस कर पकड़े हुए ईश्वर ने उसी क्षण निर्णय कर लिया कि जिस भी मानव को रचने में वे संकल्प के डिब्बे से रंग लेंगे अंततः उसकी जिंदगी इन्द्रधनुषी रंगों से सज जाएगी और जल्दी ही पृथ्वी भी इन्द्रधनुषी रंगों से सज गई.
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(३१).  योगराज प्रभाकर
संकल्प (लघुकथा)
    .
आखिर डॉक्टरों ने नन्हे कबीर के ऑपरेशन को पूरी तरह सफल और उसे पूरी तरह स्वस्थ घोषित कर दिया I बच्चे के माँ-बाप ऊपर वाले का लाख लाख शुक्रिया अदा कर रहे थे I कुछ ही हफ्ते जिस नन्हे से बेटे के बचने की कोई उम्मीद नहीं थी उसे तंदरुस्त और मुस्कुराता हुआ देख माँ बाप की आँखों में रह रह कर सजल हो रहीं थीं I वे बच्चे के दिल के बेहद जोखिम भरे ऑपरेशन की जिम्मेवारी उठाने वाले डॉक्टर को बार बार दुयाएँ दे रहे थे I एक तो दुनिया भर में ऐसे ऑपरेशन बहुत ही कम हुए थे, दूसरे वह रोगी बालक उस पडोसी देश का था जो इस देश को अपना शत्रु समझता था, अत: इस ऑपरेशन पर पूरे मीडिया जगत की नज़र थी I सफल ऑपरेशन की सूचना पाते ही मीडिया कर्मियों का हुजूम अस्पताल के अहाते में आ जुड़ा जहाँ बच्चे के माँ-बाप और ऑपरेशन करने वाले डॉक्टरों का दल भी मौजूद था I

"डॉक्टर साहिब ! इस बच्चे का सफल ऑपरेशन करने के बाद कैसा महसूस हो रहा है?" एक पत्रकार ने प्रश्न किया I
"ऐसा लग रहा है कि हमने जो मानवता की सेवा का संकल्प लिया था, उसे पूरा करने की दिशा में एक कदम और बढ़ा लिया I"
"आप बताएं, अपने बच्चे को हँसता खेलता देख कैसा लग रहा है I" एक महिला पत्रकार ने बच्चे की माँ से पूछा I
"हमारे यहाँ इस बीमारी का कोई इलाज नही था, दुसरे मुल्कों में इलाज का खर्चा इतना ज्यादा था कि हम अपने आपको बेचकर भी ......I इस धरती पर मेरे बच्चे को न सिर्फ नई जिंदगी मिली, बल्कि हमारी एक अपील पर यहाँ के लोगों ने दिल खोल कर हमारी मदद की I मैंने पढ़ा था कि फ़रिश्ते आसमान में रहते हैं, लेकिन मैं अपने देश में जाकर बताऊंगी कि अगर असली फ़रिश्ते देखने हैं तो हिंदुस्तान जाओ I" भावुक माँ की ऑंखें एक बार फिर से सजल हो उठी थीं I
"आप इस बच्चे के पिता हैं, आप कुछ कहना चाहेंगे ?"
उत्तर की प्रतीक्षा करती भीड़ और पास खड़े डॉक्टर की तरफ कृतज्ञ दृष्टि से हुए उसने उत्तर दिया:
"मैं इस धरती का बहुत बड़ा एहसान लेकर जा रहा हूँ जिसे चुकाना नामुमकिन है I लेकिन आज मैं ऊपर वाले को हाज़िर नाज़िर जान कर ये क़सम खाता हूँ कि जिंदगी में कभी भी हिंदुस्तान के खिलाफ किसी भी मुहिम या प्रचार का हिस्सा नहीं बनूँगा !"
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(३२). श्री वीरेंद्र वीर मेहता जी
"आधी जमीन" ( संकल्प - विषयधारित कथा )

गौरा! कछु खाने को ले ले और चल मेरी गैल समसान तक।" अल सुबह 'ताड़ी' से दिन की शुरुआत करने वाले भानु की बात सुन पत्नी कुछ असमंजस से उसे देख सोचने लगी। "आधी जमीन सूद में जाने के बाद भी महाजन का मूल जस का तस, वाली बात को बाबा ने ऐसा दिल से लगाया कि बस जान दे बैठे, सायद इसी से इन्हें होस् आ गयी या कोनो अउर...?"
"अरे का सोचन लगी अब?" बाहर खड़े भानु ने आवाज लगाई।
"कछु नाही? कल साँझ भी रात गए लौटे, अभई फिर इत्ती सवेरी!" गौरा फटाफट खाने का जुगाड़ करती हुयी बोली।
"बहुत बक्त खराब किया, अब और नाही!" कहते हुये भानु ने बाहर का रुख किया।
"पर महाजन के करज खातिर अब का सोचा तुमने?" गौरा ने उसके साथ होते हुए सवाल किया।
"उ की खातिर ही सोच रहा हूँ। उ के इहां गिरवी पड़ी आधी जमीन तो गयी करज में। अब अउर करज न लेवे हम, बस आधी समसान वाली जमीन ही सब कुछ है हमार।" घर से बाहर जमीन की ओर बढ़ते भानु ने अपनी बात कही।
"उ जंगली और भुतहा जमीन!" गौरा की आँखे फ़ैल गयी।
"कछु न होवे ये भुत पिचाश! और हो भी तो ई करज के भूत की तरह पीछा तो न करेगा। रही बात झार झंखार की तो ई साफ़ करन का काम तो हम किसानन का बाए हाथ का खेल है।" भानु की आवाज में जोश था।
"आज तो बड़ा जोश है, कल फिर ताड़ी के गैल भूल.......।"
"न री वा तो बीती बात हो गयी।" उसकी बात काटते भानु की आँखों में संकल्प की जलती आंच देख साथ चलती गौरा विश्वास भरी और तेज चलने लगी। और आगे चलते भानु के कानो में महाजनी पिशाच के शब्द फिर शौर करने लगे थे। "देख भानु तुहार ई जमीन तो ख़त्म हो गयी हमार मूल के हिसाब में, हाँ अगर तुम चाहो तो समसान वाली जमीन पर हम अउर करज दे सके है, बस हमार सूद तुहार बीबी चुकाई देत और तुहार उमर भर की ताड़ी हम देत रही फरी में।"
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(३३). श्री डॉ विजय शंकर जी
संकल्पित जीवन

वह एक विदेशी पर्यटक था। उस सामाजिक सेवी से यूहीं उसकी मुलाक़ात हो गयी थी।
दोनों साथ साथ घूमने लगे , आपस में बातों का सिलसिला रहन - सहन, रीति-रिवाजों से देश की गरीबी और पिछड़े पन पर आ गया।
उसने बताया हमारे यहां हर सामाजिक संगठन देश की गरीबी मिटाने के लिए संकल्प लेता है। हर राजनैतिक इस संकल्प को दोहराता है।
तुम्हारे यहां गरीबी मिटाने के लिए क्या करते हैं ?
वह अचंभित था , बोला हमारे यहां गरीबी है ही नहीं , लोग जो भी काम करते हैं उन्हें प्रति घंटे उनका पारिश्रमिक मिल जाता है।
कोई गरीब होगा कैसे ?
तुम्हारे यहां कोई गरीब है ही नहीं ? वह आश्चर्यचकित हो कर बोला।
नहीं। उसका शांत उत्तर था। कोई गरीब क्यों होगा अगर उसे उसका निर्धारित पारिश्रमिक मिलता रहेगा।
तभी तो , तभी तो तुम्हारे यहां इतनी उश्रृंखलता है। तुम्हारे यहां दया उदारता जैसी बातें हैं ही नहीं।
हमारे यहां तो दान , दया , उदारता,मानवता हमारे राज नैतिक जीवन के संकल्प हैं। उसके बिना तो हमारे यहां राजनैतिक जीवन संभव ही नहीं है। उसने कहा। उसके चेहरे पर गर्व का भाव छलक रहा था।
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(३४). सुश्री सविता मिश्रा जी
चिलक..


"ये कैसा संकल्प ले रहें हो रघुवीर बेटा ! गंगाजल अंजुली में भर इस तरह संकल्प का मतलब भी पता !!"
"पिताजी, आप अन्दर ही अंदर घुलते जा रहें हैं | कितनी व्याधियों ने आपको घेर लिया हैं | नाती-पोतों से भरा घर ,फिर भी मुस्कराहट आपके चेहरे पर मैंने आज तक ना देखी | "
"बेटा मैं भूलना चाहता हूँ पर ये समाज मेरे नासूर को कुरेदता रहता है | अपने नन्हें-मुन्हें बच्चों को यूँ ही बिलखता छोड़ कोई माँ कैसे जा सकती हैं, यह कैसे-क्यों का प्रश्न मुझे अपने जख्म भरने नहीं देता | फिर भी बेटा मैंने संतोष कर लिया | तीस सालों में परिजनों के कटाक्ष को भी दिल में दफ़न करना सीख गया | हो सकता हैं उसका प्यार मेरे प्यार से ज्यादा हों इस लिए वो मेरा साथ छोड़ चली गयीं हो | "
"इसी समाज के कटाक्ष की ज्वाला में जल के तो मैं आज संकल्प ले रहा हूँ | मैं उनका मस्तक आपके चरणों में ले आके रख दूँगा पिता जी 'परशुराम' की तरह |"
"बेटा गिरा दो अंजुली का जल | तुम परशुराम भले बन जाओ पर मैं जन्मदग्नी नहीं बन सकता |"
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(३५). सुश्री राजेश कुमारी जी

औंधी खोपड़ी (संकल्प)

राज महल में सारी औपचारिकतायें पूर्ण हो चुकी थी राज तिलक होने से पहले अंतिम प्रक्रिया सवरूप ज्ञानी दास जी संकल्प पत्र पढ़ रहे थे..  “ मैं जाति धर्म वर्ण से उठकर” वाक्य पूर्ण होने से पहले ही ..काँव-काँव की आवाज से व्यवधान हुआ|
ज्ञानी दास जी ने पुनः पढना शुरू किया- ” “मैं जाति धर्म वर्ण से उठकर...” फिर वही काँव-काँव ..ऐसा जब कई बार हो गया तो पास के वृक्ष की टहनी पर झूलते दो कव्वों को देखते हुए राजा ज्ञानी सिंह ने पूछा- “सभा में कोई व्यक्ति है जो खग भाषा में प्रवीण हो अतः ये बता सके कि ये क्या कह रहे हैं” बीच में से सत्य देव नामक व्यक्ति ने कहा “हुजूर मैं जानता हूँ खग भाषा” “अच्छा!! तो ये बताओ ये क्या कह रहे हैं राजा ने खुश हो कर पूछा”|
“हुजूर ना ही पूछे तो बेहतर होगा पर आप बाध्य कर रहे हैं तो बताता हूँ इन्होने कहा है” जैसी कारी कामरी चढ़े न दूजो रंग अब तो अँधेरी नगरी चौपट राजा”
"अर्थात!” राजा ने पूछा| “हुजूर काली चमड़ी पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता और अब तो चौपट राजा से अँधेरी नगरी हो जायेगी” सत्य देव ने झिझकते हुए अर्थ बताया|
राजा क्रोध में आपे से बाहर होकर सत्यदेव से बोला “इन सैनिकों के साथ जाओ इन कव्वों को पकड़ कर अभी मेरे सामने लाओ ऐसा न होने पर तुम्हारा सिर कलम कर दिया जाएगा”
सत्यदेव ने कव्वों को पकड़ने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी पर सब व्यर्थ| असफल होकर राजा के सामने घुटने टेक गर्दन कलम करवाने के लिए तैयार हो गया| सेनापति  वार करने ही वाला था कि फिर काँव-काँव ने व्यवधान डाल दिया  राजा क्रोधित होकर बोला “सत्यदेव! मरने से पहले ये बताते जाओ कि अब ये क्या कह रहे हैं तथा ये दोनों हैं कौन”
सत्यदेव बोला: “हुजूर अब ये कह रहे हैं, औंधी खोपड़ी उल्टा मत, खेत खाये गधा मारा जाए जुलाहा”
हुजूर मुझे भी नसीहत दे रहे हैं कि मरने से पहले संकल्प ले  अगले जनम में किसी मूर्ख के सामने कड़वा सच नहीं बोलेगा|
“पर ये हैं कौन राजा ने पूछा” “हुजूर ये बता रहे हैं की पिछले साल जो साम्प्रदायिक दंगे आपने करवाए थे ये दोनों उसमे मरने  वाले दो धर्मों के नुमाइंदे हैं अब ये खग योनि जिसमे जाति धर्म का कोई वर्गीकरण नहीं है, में बहुत सुकून से हैं”|
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आदरणीय योगराज भाई साहब, लघुकथा गोष्ठी में प्रस्तुत हुई स्वीकार्य प्रस्तुतियों का संकलन मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से इस लिए भी अर्थवान है, कि आखिर की कई प्रस्तुतियों पर मैं समय के अन्दर पहुँचने से रह गया था. उनको पढ़ने को तो पढ़ गया था परन्तु उन में से जो वस्तुतः प्रभावी बन पड़ी हैं उनपर अपनी भावनाएँ अभिव्यक्त करने से रह गया था. अपनी अगली टिप्पणी में मैं कुछेक प्रस्तुतियों पर अपनी बातें करूँगा.

वैसे, गोष्ठी और इसमें प्रस्तुत एवं स्वीकार्य हुई रचनाओं पर आपका रिपोर्ट भी प्रस्तुत हो जाता तो हम जैसे कई रचनाकार एवं सक्रिय सदस्य लाभान्वित होते.एक बार पुनः संकलन एवं आवश्यक सम्पादन कार्य के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय

बच्चे की जान ही लेंगे क्या माबदौलत ?

हा हा हा.. 

हुज़ूर, इस ’बच्चे’ ने अपने स्टैण्डर्ड-प्वाइंट को ऊँचाई ही इतनी दे रखी है, कि ’और-और की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला..

:-)))

 

गोष्ठी के सफल संचालन एवम् त्वरित संकलन के लिए बहुत बहुत बधाई पूजनीय योगराज प्रभाकर सर।मेरी रचना को संकलन में शामिल करने के लिए बहुत बहुत आभार।
आदरणीय योगराज जी इस बार की लघुकथा गौष्ठी कई मायने में अलग थी । इस बार अधिकांश लघुकथाकारों ने बहुत ही अच्छी लघुकथाएँ प्रस्तुत कीं । साथ ही दूसरों की लघुकथा पर खुल कर समीक्षात्मक टिपण्णी कीं । इस से सभी को अपनी लघुकथा पर स्पष्ट अभिमत प्राप्त हुआ । साथ ही आप का उम्दा मार्गदर्शन इन सब पर चार चाँद लगा गया । वैसे भी इस आयोजन का सारा दारोमदार आप पर ही था । इसलिए इस बार लघुकथा का शानदार संकलन सामने आ पाया ।
आप का बहुत बहूत आभार । सभी को बधाई ।

आदरणीय योगराजभाईजी, इस सद्यः समाप्त हुई गोष्ठी की कतिपय रचनाओं को पढ़ कर उस पर कुछ कहने का संयोग बन रहा है. बाकी रह गयी सभी प्रस्तुतियों पर तो अपनी बातें नहीं कहूँगा किन्तु कुछ प्रस्तुतियाँ सच में प्रभावी लगी हैं या उनमें संभावनाएँ दिखी हैं.

आदरणीय मनन कुमारजी की संवाद शैली में तनिक और कसावट की पूरी गुंजाइश थी. लेकिन आज तारी हो गयी या बनावटी रूप से पैदा की गयी परिस्थितियों पर जिस तरह उन्होंने अपना जागरुक पक्ष रखा है वह रचनाधर्मिता के मूल को संतुश्ःट करता हुआ है. एक तथ्य तो सार्थक रूप से रेखांकित हुआ है, कि समस्याओं के बहाव में बह कर पैनिक प्रस्तुत करना भर नहीं, बल्कि समस्याओं के प्रतिकार हेतु कटिबद्ध मनस की दृढ़ता को साझा करना सकारात्मक दृष्टिकोण का पर्याय है.

कमाल का प्रयास किया है, आदरणीया श्रद्धा थावाईत ने ! संकल्प और विकल्प के बिम्बों के माध्यम से सकारात्मक सोच की इन्द्रधनुषी छटा बिखेरी है ! श्रद्धाजी को हार्दिक बधाई बनता है.

आदरणीय योगराजभाईजी ने संकल्प शीर्षक को एक विशेष मोड़ दे कर पड़ोसी देश के लोगों की प्रवृति को छूने का प्रयास किया है. यह लघुकथा एक अलहदे एंगल के रूप में सामने आयी है. कृतज्ञात के भावों को बहुत ही भावुक शब्द मिले हैं. हार्दिक बधाई आदरणीय.

आदरणीय वीरेन्द्र वीर मेहताजी ने मानवीय असंजस को बखूबी उभारा है और सफल भी हुए हैं. प्रस्तुति मुझे भली लगी. वीरेन्द्र वीरजी को हार्दिक बधाई.

कमाल किया है आदरणीय विजय शंकर जी ने ! अपनी कार्मिक तथा वैचारिक कमज़ोरी को हम कितनी सहजता से कर्मकाण्डों और परम्पराओं का आवरण दे देते हैं !

आदरणीया सविता मिश्राजी का पौराणिक पात्रों के प्रतीकों से पारिवारिक-सामाजिक सम्बन्धों पर बहुत गहरी प्रस्तुति की है. ऐसी कथाएँ सदा से आकर्षित करती रही हैं और श्लाघनीय हैं. उन्हें विशेष बधाई.

प्रतीकात्मकता को एक विशेष अर्थ दिया है आदरणीया राजेश कुमारीजी ने. बहुत ही सार्थक सोच के साथ उन्होंने सटीक बातें कही हैं. बस राजा वाली प्रतीकात्मकता प्रासंगिकता के व्यापने में आड़े आती प्रतीत हो रही है. क्यों कि, अक्सर राजा लोग अपनी सत्ता के अंतर्गत साम्प्रदयिक दंगे नहीं होने देते थे. कई अर्थों और आयामों में वे स्वयं ही शोषण का किया करते थे अतः ऐसी किसी शातिराना चाल की आवश्यकता नहीं पड़ती थी.

शुभेच्छाएँ

  आदरणीय योगराज जी, आप जी ने जैसे हमारी रचनाओं को जगह दे कर हमें. लघुकथा जैसी सिनफ को लिखने के लिए उत्साहत किए और हमारी खामियों के बारे में बताया , आप जी का धन्यवाद 

आदरणीय योगराज सर, लघुकथा गोष्ठी की सफलता हेतु हार्दिक बधाई. इस बार व्यस्तता के चलते गोष्ठी में सहभागिता नहीं निभा पाया. किसी भी आयोजन से दूर रहना, मेरे लिए सदैव कष्टदायक हुआ करता है. यात्रा के दौरान जिन प्रस्तुतियों को पढ़ा, उन पर टिप्पणी भी कर चुका हूँ लेकिन अधिकांश प्रस्तुतियां अभी पढ़ नहीं पाया हूँ.

आज जिन प्रस्तुतियों को पढ़ पाया हूँ उनमें आदरणीय प्रदीप नील जी की “आँखों के जाले”, एक बढ़िया प्रस्तुति है किन्तु आयोजन में प्रदत्त विषय से तनिक मेल खाती हुई नहीं लगी. आदरणीया नीता कसार जी की 'प्रण ' और आदरणीय तेजवीर जी की ‘संकल्प’ लघुकथा प्रदत्त विषय को सार्थक करती हुई साधारण प्रस्तुतियां लगी.

आदरणीया सीमा सिंह जी की लघुकथा ‘पुनरावृत्ति’ प्रभावकारी हुई है. आदरणीय चंद्रेश कुमार छतलानी जी की लघुकथा "तीन संकल्प" की प्रतीकात्मकता भा गई. स्वप्न में तीनों संकल्पों का ढहने के व्यंजना बहुत गहरी है.

आदरणीया डॉ नीरज शर्मा जी ने संकल्प विषय पर एक सार्थक लघुकथा लिखी है जो मार्मिक भी है और संदेशप्रद भी. आदरणीया शशि बंसल जी ने जातिवाद पर कुठाराघात करती बढ़िया लघुकथा लिखी है. आदरणीय विनय कुमार सिंह जी , प्रदत्त विषय को सार्थक करती मानसिक द्वंद्व पर आधारित बढ़िया लघुकथा लिखी है. सभी को मेरी तरफ से हार्दिक बधाई.

यात्रा का तनिक स्वास्थ्य पर भी प्रभाव पड़ा है इसलिए मंच पर सक्रियता और सहभागिता कम हुई है. शेष प्रस्तुतियों से शीघ्र गुजरने का प्रयास करता हूँ. सादर

आदरणीय योगराज जी आप की लघुकथा के संकल्प ने तनमन को झकझोर कर रख दिया । आप ने बहुत ही उम्दा लघुकथा का सृजनकिया है।आप को हार्दिक बधाई इस लघुकथा के लिए ।
लघुकथा गोष्ठी की निरंतर उत्तरोत्तर प्रगति को एक बार पुनः प्रमाणित करते इस संकलन के लिए सम्मान्य ओबीओ तथा सम्मान्य गोष्ठी संचालक महोदय आदरणीय श्री योगराज प्रभाकर जी को हृदयतल से बहुत बहुत बधाई और सादर धन्यवाद। मेरी रचना को संकलन में स्थापित देख मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है व असीम प्रोत्साहन मिला है, तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गुरुजी।
हाँ, मैं भी यह कहना चाहता हूँ कि एक हफ्ते के समय में यदि गोष्ठी संचालक महोदय की ओर से प्रत्येक संकलन में एक "प्रतिवेदन" भी संलग्न किया जाये तो निष्कर्ष के तौर पर आदरणीय गुरुजी के विचार हम तक पहुंच सकेंगे प्रत्येक रचना के संदर्भ में। यह प्रतिवेदन किसी अन्य वरिष्ठ लघु कथाकार/सचिव महोदय द्वारा भी दिया जा सकता है।
[इस संकलन में शायद क्रमांक 31 दो बार अंकित हो गया है, 35 के स्थान पर 36 रचनाएँ हैं]

लघु कथा आयोजन का सुन्दर गुलदस्ता पेश किया है आ० योगराज जी ने,उस दिन व्यस्तता के कारण पूरी लघुकथाएं पढ़ नहीं पाई थी अब धीरे धीरे सभी पढ़ रही हूँ सभी रचनाकारों ने प्रदत्त विषय पर बेहतरीन प्रयास किया है सभी को हार्दिक बधाई आ० योगराज जी की लघु कथा भी अभी पढ़ी सामयिक घटना को किस ख़ूबसूरती से लघु कथा में बांधा है वो देखते ही बनता है तथा प्रदत्त विषय को सार्थकता प्रदान कर रहा है |श्रद्धा थावाईत ,मनन कुमार ,श्री वीर मेहता जी सभी ने बहुत अच्छा लिखा है |इस सफल आयोजन तथा इस सुन्दर संकलन के लिए आ० योगराज जी को दिल से बधाई | 

हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर जी!ओ .बी. ओ. लघुकथा गोष्ठी - ८ की गरिमामयी प्रस्तुति का सफ़ल संचालन और संकलन  बहुत ही उच्च कोटि का रहा!दिन व दिन रचनाओं का स्तर निखर रहा है!यह भी आप जैसे गुणी दिग्दर्शक की छत्र छाया का प्रतिफ़ल है!हम जैसे नये लोगों का इस विधा और इस मंच से जुडना एक संयोग मात्र  हो सकता है परंतु यह मुक़ाम पाना केवल मात्र आपके सानिध्य का नतीज़ा है!शत शत नमन !आपको पुनः हार्दिक बधाई!

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