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लघुकथा कहने का अच्छा प्रयास है आ० नीता सैनी जी, किन्तु यह बाल कथा बन कर रह गई I प्रदत्त विषय भी परिभाषित नहीं हुआ बहरहाल, बधाई स्वीकारें I
~~सब तन कपड़ा ~~(विषयाधारित लघुकथा)
रमा रोज-रोज बच्चों से कहती कि कोई झुग्गी बस्ती पता करें | रोज अलमारी खोलती और कई कपड़े अलग करती | महीनों से कई थैले भर रखे थे | बच्चों को एकाक थैला दें एमजी रोड पर शाम को ठण्ड से सिकुड़ते हुए को दे आने को कहती | बच्चें सुनकर अनसुनी कर देंते | एक तो घर में जगह नहीं उप्पर से नये कपड़े चाहिए पर पुराने किसी को देने को कहो तो मुहं बनता भुनभुनाते हुए थैले सहेजती |
रोज-रोज की कीच-कीच होती रमा के घर इस बात को लेकर | रमा हफ्ते में अलमारी से कपड़े निकालती, थैले में पैक करती | पुराने थैले को खोल देखती फिर छाँट कर एक-दो कपड़े निकाल बच्चों को पहनने को कहती | लेकिन अलमारी के कोने में हफ्तों से अनछुआ पड़ा देख उन्हें फिर थैले में भर देती | थैलों को देख 'गरीब पाकर खुश हो जायेंगे' मन ही मन सोच खुश हो जाती | दीपावली आते-आते कई थैले इकट्ठे हो गये थें |
आज दीपावली पर बच्चों को कपड़े की जिद पकड़े देख सुमन भड़क उठी | " नए कपड़े खरीदो, एक दो बार पहन ही रख दो | पैसे जैसे पेड़ पर उगते हैं | किसी को देने को कहो तो वो भी सुनाई नहीं पड़ता | आज जाके सारे थैले देकर आओ किसी गरीब को फिर नए खरीदने की बात हो |"
"ऐसा हैं मम्मी, ये पुराने कपड़े हम नहीं देने जायेंगे वो भी स्कूटर से | पापा को कहो कार लें दें | "
"अच्छा ! अब पुरानी चीजें किसी को देने चलना हो तो कार चाहिए स्कूटर से शर्म आती है क्या ?"
"आप घर में बैठी रहतीं | निकलिए बाहर तनिक | कार होंगी तो रखे रहेंगे उसी में | जहाँ जरूरत मंद दिखें दे दो |"
"ठीक है चल मैं खुद चलती आज | तुम लोगों को शर्म आती तो | निकाल स्कूटर मैं आ रहीं |"
मुश्किल से दो थैले पकड़ किसी तरह सड़क किनारे झुग्गी बस्ती में पहुँची रमा | पर ये क्या !! थैला लेकर दो, फिर चार,फिर आठ झोपड़े के चक्कर लगा ली | कीचड़, कूड़े के ढेर से से बचती=बचाती घंटो बाद भरा थैला टाँगे दूर खड़े बेटे के पास पहुँच गयी |
" क्या हुआ मम्मी ? नहीं मिला कोई गरीब ? नहीं लिया किसी ने कपड़े ??"
"सब तन कपड़ा चाह रहीं थीं मैं पर यहाँ तो एक दो के घर के सामने तो कार खड़ी थी , भल्ले खचाड़ा ही सही | छत भले झुग्गी थी पर टाटा स्काई की छतरी मुझे मुहं चिढ़ा रही थी | हट्टे-कट्टे लड़के बड़े-बड़े मोबाईल में मगन थे | सोचा आगे जाऊं शायद कोई जरूरत मंद मिले | पर ना , उनसे ज्यादा गरीब तो मैं थी बेटा |
(मौलिक और अप्रकाशित)
ई कौन सा पिछला रोटी खाय के आबत हो बहिनी कि कथा लिखे में पिछिया जात हो हर बार। उ बढ़िया बात न होत है न ! जरा बिहाने आया करो । समय इतनाsssss कम कि हम कैसे इतना बड़ा कथा पढ़बै और समझबै ? अब रहे दियउ ,पढ़ते है ज़रा , बात में न उलझाऊ हमें। सादर।
ह्ह्ह्ह दिदिया बिटिया की शपिंग और डाक्टर के चक्क्र में आजकल चकरिया गये हैं तनिक _/\_:)
अच्छी लघुकथा है आ० सविता मिश्रा जी I बधाई स्वीकारें I
दिल से शुक्रिया भैया _/\_
यही सच्चाई है इन झुग्गियों की। बहुत ही सही लिखी हो आप। बधाई स्वीकार करियेगा जल्दी से ,अब टाइम होबय बला है गोष्ठी का।
आभार दी
दिल से शुक्रिया :)
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