परम आत्मीय स्वजन,
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के ३१ वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का तरही मिसरा जनाब कमर जलालवी की बहुत ही मकबूल गज़ल से लिया गया है | इस गज़ल को कई महान गायकों ने अपनी आवाज से नवाजा है | यहाँ यह ज़रूर कहना चाहूँगा कि मूल गज़ल के मिसरे आठ रुकनी हैं परन्तु उसे चार चार अरकान में तोड़ कर भी पढ़ा जा सकता है और दीगर बात यह है कि उसके बावजूद भी मिसरे मुकम्मल ही रहते हैं | आप लोग भी गज़ल ढूंढने का प्रयास कीजिये और इस लाजवाब कारीगरी का आनंद लीजिए| मैंने भी एक मिसरे के चार अरकान को ही मिसरा ए तरह के रूप पेश किया है | तो लीजिए पेश है मिसरा-ए-तरह .....
"बहल जायेगा दिल बहलते बहलते "
१२२ १२२ १२२ १२२
फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
अवधि :- 27 जनवरी दिन रविवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक 29 जनवरी दिन मंगलवार
अति आवश्यक सूचना :-
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन
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आदरेय!
आपकी गुणग्राहकता को नमन.
पकड़ में न आये, अकड़ भी छुड़ाए.
जकड़ ले पलों में मसलते-मसलते..
-----इस पहेली का उत्तर ढूंढ रही हूँ मिल ही नहीं रहा
पकड़ न आये प्यार औ', अकड़ छुड़ा दे प्रीत.
जकड़ बाँह में मसलते, कहें न क्या मनमीत?
करते दाद क़ुबूल हम, किन्तु न खुजली खाज.
दंतनिपोरी से बढ़े रक्त, हँसें निर्व्याज..
करते दाद क़ुबूल हम, किन्तु न खुजली खाज.
दंतनिपोरी से बढ़े रक्त, हँसें निर्व्याज....वाह क्या बात सलिल जी...... इस दोहे पर भी दाद कबूल करिये
सच कहा सीमा जी
सीमा हुई असीम तो, पाई जी भर दाद।
इसीलिए तो मुक्तिका हो पाई आबाद।।
उत्तर कुछ ऐसा ही नटखट सोच रही थी,सच में दन्त निपोरने पर मजबूर कर दिया इस दोहे ने इस दोहे के लिए भी दाद कबूलें रक्त की वृद्धि हो गई हाहाहा
फेविकोल का जोड़ है ...haaaaaaaaaaaaaaaaaa..ha..ha
हा हा ही ही का चले, यूं ही जी भर दौर।
सुन जल्दी ही आएंगे आमों के सर बौर।।
ग़ज़ल की बाड़ में मुक्तिका की चौकड़ी ! वाह-वाह ! .. . और शेर भी क्या-क्या !!
दलो दाल छाती पे निश-दिन हमारी.
रहो बाँह में साँझ ढलते न ढलते.. .. अह्हाह ! छाती दलवाने का सबब ? हा हा हा.. बिना मुस्कुराये नहीं रह सका !.. अय-हय-हय !!
मुक्तिका के पिटारे से जमा क्या नहीं निकला है ! एक में खुसरो का बुझौवल वाला अंदाज़ दिख रहा है तो दूसरे में कबीर की निर्गुनिया दिख रही है. एक अपने होने से मौज़ूं बह्र के लिहाज को चिढ़ाता दिख रहा है, तो एक के बाद मुँह से बेसाख्ता निकल पड़ता है, "क्या?..."
आदरणीय आचार्यजी, आपकी अहम मौज़ूदग़ी किसी आयोजन व चर्चा को अपने हिसाब से जी लेती है.
सादर
अपनेपन से जो जिए, मिली उसी को वाह।
अय हय ही की गूँज ही, है आगे की राह।।
सादर आदरणीय आचार्यजी.
आदरणीय आचार्यजी, आपकी अहम मौज़ूदग़ी किसी आयोजन व चर्चा को अपने हिसाब से जी लेती है. SAHI ME..
कद्रदानी का शुक्रिया...
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