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"OBO लाइव तरही मुशायरा" अंक-१० (Now Closed)

परम आत्मीय स्वजन,

अब समय आ गया है कि अप्रैल माह के तरही मिसरे की घोषणा कर दी जाये | अब नया वित्तीय वर्ष भी प्रारंभ हो गया है और लगभग सभी लोग अपनी अपनी व्यस्तताओं से उबर चुके होंगे | इस आयोजन के साथ ही "OBO लाइव तरही मुशायरा" अपना दसवां अंक पूरा करेगा | इस सफलता के लिये आप सभी बधाई के पात्र हैं |
इस बार का मिसरा-ए-तरह मशहूर शायर जनाब मुनव्वर राना साहब की गज़ल से लिया गया है |

हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था

मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

कफिया: आना (याराना, दीवाना, बेगाना, मनमाना, पहचाना, जाना आदि आदि)
रदीफ: भी होता था
 

इस बह्र का नाम बहरे हज़ज़ है इसका स्थाई रुक्न मुफाईलुन(१२२२) होता है | ये इस मिसरे में चार बार और पूरे शेर में आठ बार आ रहा है इसलिए इसके आगे हम मुसम्मन लगाते हैं और चूँकि पूरा मिसरा मुफाईलुन से ही बना है इसलिए आगे हम सालिम लगाते हैं | इसलिए बह्र का नाम हुआ बहरे हजज़ मुसम्मन सालिम | बह्र की अधिक जानकारी और अन्य उदाहरणों के लिए यहाँ पर क्लिक कीजिये|

विनम्र निवेदन: कृपया दिए गए रदीफ और काफिये पर ही अपनी गज़ल भेजें | यदि नए लोगों को रदीफ काफिये समझाने में दिक्कत हो रही हो तो आदरणीय तिलक राज कपूर जी कि कक्षा में यहाँ पर क्लिक कर प्रवेश ले लें और पुराने पाठों को ठीक से पढ़ लें|

मुशायरे की शुरुआत दिनाकं २३ अप्रैल के लगते ही हो जाएगी और दिनांक २५ अप्रैल के समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा |

नोट :- यदि आप ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के सदस्य है और किसी कारण वश "OBO लाइव तरही मुशायरा" अंक-10 के दौरान अपनी ग़ज़ल पोस्ट करने मे असमर्थ है तो आप अपनी ग़ज़ल एडमिन ओपन बुक्स ऑनलाइन को उनके इ- मेल admin@openbooksonline.com पर २३ अप्रैल से पहले भी भेज सकते है, योग्य ग़ज़ल को आपके नाम से ही "OBO लाइव तरही मुशायरा" प्रारंभ होने पर पोस्ट कर दिया जायेगा, ध्यान रखे यह सुविधा केवल OBO के सदस्यों हेतु ही है |

फिलहाल Reply बॉक्स बंद रहेगा, मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ किया जा सकता है |
"OBO लाइव तरही मुशायरे" के सम्बन्ध मे पूछताछ

मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह

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Replies are closed for this discussion.

Replies to This Discussion

कपूर साहब से सहमत हूँ. बधाई.
Thanks Sanjiv
मुमताज़ जी,

मुमताज़ जी,

आपकी ग़ज़ल की क्या तारीफ करूँ

जो कहूँगा कम ही होगा

रदीफ़ काफ़िए को इस सुंदर तरीके से निभा ले जाना हर शेर पर दिल से वाह वाह कहता रह गया 

सच तो यह है की आपकी ग़ज़ल ने मंत्रमुग्ध दिया

 

 

यही काफ़ी  कहाँ था तेरे आगे सर झुका देते
हमें तो दुनिया के लोगों को समझाना भी होता था

 

 

 

शिकम की आग में जलना तो फिर आसान था यारब 
मगर दो भूके बच्चों को जो बहलाना भी होता था
 

 

वाह वाह

हर शेर दिल में एक हूक सी पैदा कर रहे है 
दिल खुश हो गया 
आपकी ग़ज़ल पहले भी खूब पसंद आती रही है मगर इस ग़ज़ल को पढने के बाद आपका मुरीद हो गया हूँ 

 

venus kesari

Shukriya Venus
तिलक सर की टिप्पणी से सहमत होते हुए कहना है की बेहद संजीदा और खुबसूरत ग़ज़ल आपने प्रस्तुत किया है , मतले से लेकर मकते तक शानदार है साथ में गिरह का शे'र तो वाह क्या बात है , बहुत बहुत बधाई मुमताज जी इस बुलंद प्रस्तुति पर |
Shukriya Ganesh ji
अभी तक पोस्ट हुई सब रचनायें पढ़ ली हैं । कई दोस्तों ने वाक़ई बहुत अच्छे अश-आर कहे हैं । मगर सब से माफ़ी चाहते हुए कहना चाहता हूं कि मुमताज़ साहिबा की यह रचना इस तरही मुशायरे की अभी तक की सर्वश्रेष्ठ रचना लगी मुझे ।
Thanks a lot Moin Sahab
मोईन भाई आपकी ग़ज़ल का इन्तजार है, उम्मीद करते है जल्द ही पढ़ने को मिलेगा |
baaghi bhaai, maafi chahunga is baar bhi kuchh nahi likh paya hu. vyast-ta bahut hai.

आदरणीय मुमताज़ जी

 

सबसे पहले तो इतनी ख़ूबसूरत गज़ल के लिए ढेरों दाद कबूलिये|हर शेर आपके कलाम कि पुख्तगी का दस्तावेज़ है|

अक्सर आपको मैं यहां पर इसलिए खींचकर ले आता हूँ कि हम सबको पता चले कि अच्छी गज़ल क्या होती है|

यहाँ मैं तिलक जी की बात से पूरी तरह इत्तिफाक रखता हूँ|

this is best gazal of this tarahi mushayaraa

 

 

 

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