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आदरणीय आचार्य जी सादर प्रणाम
तिलकधारी था, योगीराज बागी दानी भी राणा.
हरा दुश्मन को, नीचा शत्रु का झंडा कराया है..
इतने बड़े बड़े लगो के बीच में मेरा नाम........अरे हम कहाँ इस काबिल ....खैर ..... लगता है सब वाकई में हार गए ...हम तो पहले से ही सरेंडर हैं|
बहरहाल इस बाकमाल गज़ल के लिए ढेरों दाद कबूलिये|
जरा सी जिद ने इस आॅंगन का बंटवारा कराया हैं।
जर जमीं जोरु ने ही रिश्तों में बिछोडा कराया हैं ।
हमारी शौहरत को वो पचा ना सके तब आखिर।
अपनो ने ही हमें गैरों से रुस्वा कराया हैं।।
जिंदगी का कोई भरोसा नहीं कब चली जाये ।
इसलिए हमने वसीयतनामा जिंदा कराया हैं।
दौरे-जहाॅं की चकाचैंध में असलीयत गुम हुई।
नकलचींयों ने सबका धंधा मंदा कराया है।
कानून-औ-कायदो को करके दरकिनार चंदन मन से।
अहिंसको ने आम-अवाम को संथारा कराया हैं।।
पुनिया साहिब आपके द्वारा प्रस्तुत ग़ज़ल में काफिया और रदीफ़ का पालन ठीक ही किया गया है , भाव भी अच्छे है किन्तु बहर में न होने से यह ग़ज़ल प्रभाव नहीं छोड़ पा रही है |
आपके शुरू के चार शे'र को उस के मूल भाव को बरकरार रखते हुए कहने का प्रयास किया है, गुनी जन क्षमा करेंगे | अंतिम शेर मै समझ ही नहीं सका इसलिए उसको छोड़ दिया है ....
जरा सी जिद ने इस आँगन का बंटवारा कराया हैं।
जमीं जोरु ने रिश्तों में बिछोडा ही कराया हैं ।
हमारी शौहरत उनसे, कभी भी पच नहीं पायी,
करीबी गैर से मिलकर हमें रुस्वा कराया है ,
भरोसा जिन्दगी का क्या न जाने कब चली जाये,
यही अब सोच कर चर्चा वसीयत का कराया है,
नक़ल के दौर में अब तो असल पहचानना मुश्किल
नकलची मिल के सबका काम अब मंदा कराया है,
नकलचीयों ने सबका धंधा मंदा कराया है।
यथार्थ से लबरेज़ ख़ूबसूरत शे'र , नेमीचंद जी को
बधाई।
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