आदरणीय साथिओ,
"OBO लाइव महा उत्सव" अंक ६ का आयोजन दिनांक ५ अप्रेल से ७ अप्रेल तक किया गया जिसका संचालन नौजवान शायर श्री विवेक मिश्र जी द्वारा किया गया ! इस बार रचनाधर्मियों को जो विषय दिया गया था वह था - "दोस्ती" ! पिछले ५ आयोजनों की तरह इस बार भी साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों ने इस में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया ! आयोजन का शुभारम्भ युवा शायर जनाब वीनस केशरी की इस सुन्दर रुबाई से हुआ :
//खुल के हंसा वो नाराज़ हो गया
खंज़र की पैनी धार सा अंदाज़ हो गया
जोशीले गीत जैसा मेरे लिए था वो
मैं उसके लिए टूटा हुआ साज़ हो गया//
बाद में आपने एक और सुन्दर ग़ज़ल पेश की, जो आप सब की खिदमत में हाज़िर कर रहा हूँ:
//हर समंदर पार करने का हुनर रखता है वो,
फिर भी सहरा पर सफीने का सफर रखता है वो |
बादलों पर ख्वाहिशों का एक घर रखता है वो,
और अपनी जेब में तितली के पर रखता है वो |
हमसफ़र वो , रहगुज़र वो, कारवां, मंजिल वही,
और खुद में जाने कितने राहबर रखता है वो |
चिलचिलाती धूप हो तो लगता है वो छाँव सा,
धुंध हो तो धूप वाली दोपहर रखता है वो |
उससे मिल कर मेरे मन की तीरगी मिटती रही,
अपनी बातों में कोई ऐसी सहर रखता है वो |
जानता हूँ कह नहीं पाया कभी मैं हाले दिल,
पर मुझे मालूम है, सारी खबर रखता है वो | 10-12-2010
आख़िरी शेर उस मित्र के लिए जो हम सभी का राहबर है ...
इसलिए कहता नहीं हूँ, हाले दिल उससे कभी,
जानता हूँ हर किसी की, हर खबर रखता है वो |//
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न्यूज़ीलैंड में बसी कवियत्री सुश्री शारदा मोंगा जी ने इस सिलसिले को अपनी निम्नलिखित दोहावली से आगे बढाया :
//OBO No. ६ में खींचो ऐसा चित्र,
लिखो पाती प्रेम की मेरे प्यारे मित्र.
कृष्ण सुदामा प्रेम का उदहारण है अनूप,
इसमें न कोई दीन है न कोई है भूप.
मित्र ऐसा जानिए ईश्वरदत्त उपहार,
तू मुझको प्यारा लगे जैसे गले का हार.
तेरी चाहत, प्रेम पर मुझको है विश्वास,
दोस्ती संभाल के रखूं सदा हृदय के पास.
दोस्ती शीशे समान है, बरतें इसे संभाल,
अविश्वास से टूटती सही करना जंजाल.
कैसी यह विडम्बना जिसका न कोई मीत,
जीवन है रूखा सदा बिन स्वर के कोई गीत.
प्रकृति प्यार में झुके मृदु सहारे की मौज,
मनुज को भी चाहिए सच्चे मित्र की खोज.
मित्र बिना जीवन है यों ज्यों धरती बिन पांनी
दुःख सुख में किसे कहें अपनी राम कहानी. //
इन दोहों को ना केवल सभी ने दिल खोल कर सराहा ही बल्कि एक एक दोहे की समीक्षा भी हुई ! इन दोहों के बाद शारदा जी ने बहुत ही सार्थक दोहों की एक और पुष्पमाला से आयोजन को महकाया !
//इस अव्यवस्थित समाज में, दोस्ती ही चिरस्थाई
बहुजन यहाँ साक्षी-मिले, करुणा, विनोद, सच्चाई.
२-जीवन-कुञ्ज में मिली, मित्रता की सुगंध,
मित्र के गले मिले, आता परम आनंद.
३-दोस्ती से ख़ुशी दोहरी, दुःख में देवे साथ,
दुःख का शमन करे, और बटावे हाथ.
४-सच्ची मित्रता श्रेष्ठ है, निश्च्छल,उदार,महान,
वे नर हतभागी रहे, हो न इसका ज्ञान.
५-परीक्षा न लेना मित्र की खो दोगे विश्वास
समय ही गँवाओगे प्रेम का करो प्रयास.
६-मित्रता को जानिए, ईश्वर प्रदत्त प्रसाद,
हृदय को शांति मिले,प्रेम का चखो स्वाद. //
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१- अव्यवस्थित संसार में, दोस्ती ही चिरस्थाई
साक्षी-मिले हमें, करुणा, विनोद, सच्चाई.
२-जीवन-कुञ्ज में मिली, मित्रता की सुगंध,
मित्र के गले मिले, आता परम आनंद.
३-दोस्ती से ख़ुशी दोहरी, दुःख में देवे साथ,
दुःख का शमन करे, और बटावे हाथ.
४-सच्ची मित्रता श्रेष्ठ है, निश्च्छल,उदार,महान,
वे नर हतभागी रहे, हो न इसका ज्ञान.
५-परीक्षा न लो मित्र की खो दोगे विश्वास
समय ही गँवाओगे प्रेम का करो प्रयास.
६-मित्रता को जानिए ईश्वर प्रदत्त प्रसाद,
हृदय को शांति मिले, प्रेम करो अगाध.
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यह रचना भी पाठकों को बहुत भायी और सब ने दिल खोल कर इसका स्वागत किया ! आपने एक नज़्म भी पेश की :
मित्र तुम्हारे जन्म दिन पर कौन सा उपहार दूँ मैं
मित्र तुम्हारे जन्म दिन पर,
कौन सा उपहार दूँ मैं,
आज तुमको क्या कहूँ,
कुछ समझ आता नहीं.
खुशियाँ ही खुशियाँ हों हरदम,
और कुछ भाता नहीं.
हों तुम्हें शत शत बधाई,
जन्म दिन आता रहे.
खुशियों का दिन हो सलामत,
मन यही गाता रहे.
बार बार दिन यह आये
हर बार खुशियाँ लाये
तुम जियो हज़ारो साल
करूं मैं यही कामना !
स्वस्थ रहो प्रफुल्ल रहो तुम
यही करूं में कामना
जन्म दिन पर है तुम्हारे
मम हृदय की भावना
प्रेम के उपहार में है
हृदय, तुम पर वार दूँ मैं
मित्र तुम्हारे जन्म दिन पर,
कौन सा उपहार दूँ मैं,
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दुनिया में दोस्ती का पर्याय कहे जाने वाले कृष्ण सुदामा की दोस्ती पर शारदा जी ने बहुत बहुत ही सुन्दर सी कविता पेश की :
//राजा कृष्ण हैं बाल सखा,
तुम ऐसा कहते रहते हो
अनेक कथाएं बचपन की
तुम हमें सुनाया करते हो
जाओ मिलने बालसखा से
कुछ, उनकी-अपनी सुनो, कहो
छोडो दुविधा अब जाओ बस,
तुम काहे को दुःख और सहो
अपनी मेरी न सही,
बच्चों की खातिर जाओ.
निसंकोच जाओ कुछ लाकर,
बच्चों की भूख मिटाओ.
पत्नि के आग्रह से
सुदामा,
चले कृष्ण से मिलने,
दुविधा के भाव बहुत थे,
असमंजस था दिल में
दीन ब्राह्मण
सोचते,
हा! मित्र को कैसे कहें
दुर्भाग्य भरी
राम कहानी!
मित्र भये बड़े नामा,
हम कहीं के न सामी.
सोचते-पहुंचे ब्राहमण
द्वारिका धामा.
चकित रह गयो चकाचौंध से,
देख वसुधा अभिरामा.
देखा, सुदामा को मिलने
आये कृष्ण धावत,
भाग्य देखो बाल सखा को
रहे दैव मिलावत.
मिले मित्र से मित्र
कंठ से कंठ, प्राण से प्राण!
हाय महादुख पायो सखा तुम,
पाये रहे बहु त्राण!
बीत गये दिन दुःख विद्रूपा,
अब सुख आयो सखा सरूपा,
कृष्ण सुदामा मित्र अनूपा,
रहा न अन्तर दीन औ भूपा.//
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डॉ संजय दानी जी जिनका नाम ग़ज़ल क्षेत्र में बड़े आदर से लिया जाता है अपनी इस पुरनूर ग़ज़ल के साथ महफ़िल को रौशन कर गए :
//दोस्ती ओ दुश्मनी में फ़र्क कम है,
एक वाइन है अगर, तो दूजा रम है।
हारते हैं दोनों जंगे-दुश्मनी में,
दोस्ती की जीत भी बस इक भ्रम है।
कल्ब का चौपाल अब तक सूखा है पर,
आंखों की धरती ज़माने से ही नम है।
दुश्मनी तो सामने से लड़ती अक्सर,
दोस्ती का पीठ पर अक्सर करम है।
बेवफ़ा से दोस्ती करके मिला क्या,
व्होंठों पे मुस्कान ,दिल में गम ही गम है।
दुश्मनी की खेती में नुकसां तो है पर
दोस्ती की फ़स्लें भी तो बे-रहम है।
दोस्ती को आईना हरदम दिखाओ,
वरना इन ज़ुल्फ़ों में बेहद पेंचो-ख़म है।
दोस्ती में हो चुका बरबाद मैं भी,
दोस्त अब मेरे सियाही-ओ-कलम हैं।
साक़ी के बिन भी नशा चढता है दानी,
तन्हा गलियों में भी ईश्वर के क़दम हैं।//
आपकी अगली ग़ज़ल ने महफ़िल को झूमने पर मजबूर कर दिया:
//दोस्तों पर ज़िन्दगी कुर्बान है,
दोस्त बिन ये दुनिया इक शमशान है।
दोस्त बनना सबके बूते का नहीं,
दुश्मनी करना बहुत आसान है।
दोस्तों का ही सहारा है मुझे,
मेरा जीवन अपनों से हैरान है।
क्या हुआ गर बेवफ़ा है अपना दोस्त,
दोस्ती का अर्थ ही बलिदान है।
चांदनी के ज़ुल्म क्यूं सहता रहूं,
जुगनुओं से जब मेरी पहचान है।
मैं शराबी तो नहीं पर पीता हूं,
इस नशे में दर्दो-गम की तान है।
मैं अंधेरों से वफ़ा रखता हूं दोस्त,
रौशनी से जंग का ऐलान है।
मेरा रिश्ता लहरों से मजबूत है,
साहिलों के शौक़ में नुकसान है।
मत दिखाओ दोस्तों को आईना,
दोस्ती का दानी ये अपमान है।//
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कनाडा में बसे श्री गोपाल बघेल "मधु" ने भी अपने गीतों द्वारा अंत तक समा बांधे रखा ! इस आयोजन में उनके सभी गीतों को मैं एक ही साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ:
आज आया है कोई मम कल्पना में
(मधु गीति सं. १७६६, दि. ३ अप्रेल, २०११)
आज आया है कोई मम कल्पना में , आज छाया है कोई मेरे स्वपन में;
आज गाया है कोई मेरे हृदय में, आज लाया है कोई मुझको मनन में.
गगन से चलकर कोई है आज आया, मगन मन से मुग्ध करके गज़ल गाया;
मीत बनकर भीति हर कर निकट आया, कष्ट मेरे हृदय के पल में भगाया.
रिक्तता मेरी सकल आकर हटाया, लिये सपनों में मुझे है कहीं धाया;
नया आलम दोस्ती का नज़र आया, नया जीवन वह मुझे है दिखा पाया.
सुनहरी सी शाम अब देती ललक है, महकती सी सुवह अब भरती चहक है;
खिलखिलाती दुपहरी अब राग गाती, रात की एकान्त वादी अब सुहाती.
मित्रता क्या होगयी है मुझे उससे, मित्र है जो विश्व का जन्मा जभी से;
क्या रमा है आज वह मेरे हृदय में, क्या लिया है आज वह 'मधु' को स्वनन में.//
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दोस्ती ही आस्तिकों की नाव है
(मधु गीति सं. १७६८, दि. ६ अप्रेल, २०११)
दोस्ती ही आस्तिकों की नाव है, दोस्ती ही जगत की पतवार है;
दोस्ती से यह जगत आवाद है, दोस्ती से ही खुदा खुद्दार है.
दोस्ती से ही नज़र दिल में बसे, दोस्ती से ही जिया आवाद है;
दोस्ती की दास्तानें हृद भरें, दोस्ती ही दो जनों की शान है.
दोस्ती ही तीर्थ बन हर दिल बसे, दोस्ती ही दो हृदय का सार है;
दोस्ती ही त्याग की बौछार है, दोस्ती ही महर की मीनार है.
दोस्ती की दस्तकों से जो झुके, दोस्ती के मस्तकों को जो छुये;
दोस्ती की सरहदों पर जो बसे, दोस्ती की नज़्म को जो है चखे.
दोस्ती को दिलाता जो ख़्वाब है, दोस्ती को मिलाता जो नूर है;
दोस्ती को 'मधु' बनाता वही है, दोस्ती को प्रभु मिलाता वही है.
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याद वह आता रहा
(मधु गीति सं. १७६९, दि. ६ अप्रेल, २०११)
याद वह आता रहा, मीत था मेरा रहा;
चाहता मुझको रहा, सोचता मेरी रहा.
ले के संग जाता रहा, घुमाके लाता रहा;
भूला ना राह कभी, ना था नाराज कभी.
आँख में देखा किया, लाड़ बहु भांति किया;
लेटकर प्रेम लिया, समर्पण मुझको किया.
कष्ट ना ज्यादा दिया, दर्द महसूस किया;
जगत ना समझा किया, दर्द अनजाने दिया.
कष्ट जब ज्यादा हुआ, मीत सब समझा किया;
समय से चलता बना, 'मधु' से रिश्ता बना.
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दोस्ती ही महक है औ दोस्ती आकर्ष है
(मधु गीति सं. १७७०, दि. ६ अप्रेल, २०११)
दोस्ती ही महक है औ दोस्ती आकर्ष है, दोस्ती में बसे जन्नत दोस्ती में खुदा है;
मिलें ज्यों हीं दिल खुदी में बज उठें प्रभु तार हैं, तरन तारन जब मिलें तब जन्नतें संसार हैं.
दोस्ती में ही चहक है दोस्ती ही धार है, दोस्ती की किस्तियों में बह रहा संसार है;
दोस्ती ही इश्क लाती जोड़ती भी वही है, दोस्ती ही संग रखकर जोडती दिल तार है.
अलविदा जब मीत कहता,खटकता मन तार है, जोड़ जाता आत्म सुर को खोलता उर द्वार है;
गहनता औ धीरता में दोस्ती बढती प्रचुर, मनों की एकांत वादी में खिलें नित अमित सुर.
अखिलता की सुर सुराहट दिखाती प्रभु द्वार है, प्रभु के प्रति फुर फुराहट खोलती हृद द्वार है;
हृदय की गहराइयों में दोस्त लेते श्वाँस हैं, श्वाँस की तन्हाइयों में मीत करते प्रीति हैं.
रमती रहती रोशनी है हर हृदय हर भाव है, रात्रि के एकांत में भी उमडता प्रभु प्यार है;
प्रेम के उस शून्य पल में सृष्टि होती फलित है, 'मधु' की मृदु शून्यता में चहक उठती रूह है.
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सिलसिला जो प्यार का मेरा चला था
(मधु गीति सं. १७६७, दि. ३ अप्रेल, २०११)
सिलसिला जो प्यार का मेरा चला था, अधखिला जो पुष्प मेरे उर खिला था;
ले चला था मुझे कितने जलजलों में, भर चला था मुझे कितने कहकहों में.
जगत की दीवार ना थी रास आयी, हर किसी की आँख ना थी मुझे भायी;
तोड़ कर सब बंधनों को मैं बहा था, ज्वार भाटों की सभी सीमा लंघा था.
नज़र आया था मुझे बस एक प्रेमी, आँख उसकी ही मुझे थी हृदय मेली;
पल मेरे सारे उसी के होगये थे, स्वप्न जो थे उसी के उर खो गये थे.
दिल लगा कर जो भी पाया काम आया, दिल जलाकर राख लाया उर लगाया;
श्वाँस की हर रोशनी में उसे पाया, गीत की हर जुस्तजू में उसे पाया.
प्यार की हर पहेली में उसे पाया, दोस्ती की दस्तकों में उसे पाया;
हर सुनहरी पहल में वह बह चला था, ‘मधु’ की रूहानियत में वह बसा था.
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इस खादिम ने भी दो टूटी फूटी ग़ज़लें इस महफ़िल में पेश करने की हिमाकत की जिन्हें दोस्तों ने बहुत इज्ज़त बख्शी, पेश-ए-खिदमत हैं वो दोनों ग़ज़लें :
//हो ना जाए अपनी खारी दोस्ती !
बस रहे मीठी सुपारी दोस्ती ! १
हार को भी जीत माने है सदा,
इस तरह की है जुआरी दोस्ती ! २
बाप के माथे पे कालिख आ लगी
जब कभी भटकी कुँवारी दोस्ती ! ३
रूह की चूनर जो चमकाए सदा
ये वो गोटे की किनारी दोस्ती ! ४
फूल सी हल्की भले तासीर है,
पर है चट्टानों से भारी दोस्ती ! ५
हाथ में ना तीर ना तलवार ही,
है अदावत की शिकारी दोस्ती ! ६
रूह का सहरा तुझे आवाज़ दे,
फूल इसमें तू खिला री दोस्ती ! ८
नेहमतें अल्लाह जो बांटे कभी,
मांग लूँगा मैं तो यारी दोस्ती ! ९
चूम कर फन्दा शहीदों ने कहा,
मौत से होगी हमारी दोस्ती ! १० //
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//इसे सौगात कह लीजे, इसे बरदान कह लीजे !
जहाँ में दोस्ती को ही, खुदा की शान कह लीजे ! १
जिसे यारी नहीं मिलती, गदा है वो ज़माने में,
जिसे यारी मिली जग में, उसे धनवान कह लीजे ! २
अकेला खुश रहे दामन बचा के दोस्तों से जो,
उसे अंजान कह लीजे,भले नादान कह लीजे ! ३
मुक़द्दस है मेरी नज़रों में रिश्ता दोस्ती का यूँ
इसे पूजा समझ लीजे, भले आजान कह लीजे ! ४
मुझे यारों के कन्धों का सहारा जो मिला यारो
इसे ईनाम कह लीजे, भले सम्मान कह लीजे ! ५
दोस्ती छाँव पीपल की, अदावत धूप सहरा की,
जो इतनी बात ना जाने , उसे अंजान कह लीजे ! ६
जहाँ सीमेंट का जंगल, उसे इंडिया भले कहिए,
जो खेतों की मिले बस्ती, तो हिंदुस्तान कह लीजे ! ७ //
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श्री रवि कुमार गुरु जी भी अपनी कवितायों के साथ उपस्थित हुए और दोस्ती के विषय को कुछ यूँ कलमबद्ध किया :
//मन में भ्रम पाल के जीता रहा मेरे यार ,
की वो मेरे दोस्त हैं करता था एतबार ,
मेरी दोस्ती का वो फायदा उठाते रहे ,
एक दिन भोक दिया सिने में तलवार ,
जिसपे एतबार नहीं था ,
जिससे करता प्यार नहीं था ,
मुस्किल के घडी में आया ,
जिसको कुछ मैं समझा नहीं था ,
दोस्त वही जो मन को भाए ,
मिलते ही मन मुस्काए ,
लगे की मन में वो बसे हैं ,
दूर रहे तो याद वो आये ,//
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//कसम से फायेदे के लिए कुछ लोग करते हैं दोस्ती ,
खर्च करो जमवारे लगी रहती हैं लोग निभाते हैं दोस्ती ,
तंग हाथ हो तो पता नहीं क्यों रुलाती हैं दोस्ती ,
कसम से नहीं चाहिए हमको यारो इन खुदगर्जो की दोस्ती ,//
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//मेरे आँखों के नूर हैं वो मेरे हुजुर ,
एक नजर आप भी देखिएगा जरुर ,
हरपाल रहते हैं मर मिटने को तैयार ,
इसी को कहते हैं दोस्ती मेरे यार ,
जो दोस्त की ख़ुशी में ख़ुशी ढूंढे ,
दोस्त की उन्नति पे करता हैं गरूर ,
मेरे आँखों के नूर हैं वो मेरे हुजुर ,//
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//यैसे मिले दोस्त की जग हसाई हो गईं ,
इज्जत तो गया ही संग दौलत भी गई ,
अब दोस्तों की दोस्ती पे एतबार नहीं ,
दोस्ती कर के मैं यारो येसा बदला ,
उनकी सोहबत में आधी जिन्दगी भी गई ,
दोस्तों यैसे दोस्तों से सावधान रहना हरदम ,
जो मीठी छुरी हो उनसे करना दोस्ती नहीं ,//
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//दोस्तों दोस्ती निभाने की चीज हैं ,
संग ईमानदारी की लेप लगे तो ,
ये अपने आप हो जाती लजीज हैं ,
दोस्तों दोस्ती निभाने की चीज हैं ,
अगर दोस्त सुदामा सा हो तो ,
रोता हैं जब तक नही आता करीब हैं ,
दोस्तों दोस्ती निभाने की चीज हैं ,//
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//अंतर जाल ( इंटर नेट ) पे अब होती हैं दोस्ती ,
मगर होती हैं बड़े लजीज दोस्ती ,
ना मिले ना हाथ मिलाये मगर ,
बड़ी मजबूत होती हैं ये दोस्ती ,
ना कोई गिला ना कोई सिकवा ,
बड़ी गंभीर होती हैं ये दोस्ती ,
अगर किस्मत ने मिला दिया तो ,
चार चाँद लगाती हैं ये दोस्ती ,
अंतर जाल ( इंटर नेट ) पे अब होती हैं दोस्ती ,//
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खायेंगे कसम और गायेंगे हम ,
मरते दम तक निभाएंगे हम ,
की हैं दोस्ती इसको ना तोड़ेंगे ,
दोस्ती में अब जान लड़ायेंगे हम ,
चाहिए हमको तो साथ बागी का ,
प्रीतम से नेह निभायेंगे हम ,
भैया प्रभाकर हाथ देंगे सर पे तो ,
दुनिया में नाम कमाएंगे हम ,
भाई मेरे राणा राह दिखाना ,
सतीश जी को कभी ना भुलायेने हम ,
की हैं दोस्ती इसको ना तोड़ेंगे ,
दोस्ती में अब जान लड़ायेंगे हम ,
हरपल हरदम गुण उनका गाऊंगा ,
बहना हैं नीलम जी कैसे भुलाउगा ,
OBO पे सारे जो दोस्त हैं हमारे ,
सब के सब हैं जान से प्यारे ,
दोस्ती के गीत आज सब मिल गायेंगे ,
की हैं दोस्ती इसको ना तोड़ेंगे ,
दोस्ती में अब जान लड़ायेंगे हम ,
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श्री नेमीचंद पूनिया चन्दन जी का कलाम :
//यह बात काबिले-तारीफ हैं सल्तनत के लिए।
हमारे कदम बढे सिर्फ मुहब्बत के लिए।।
यह राम-औ-रहीम की सरजमीं हैं दोस्तों।
यहाँ कोई जगह नहीं हैं नफरत के लिए।।
दो-चार दिन की हैं मेहमां जिंदगी।
दोस्तों की दोस्ती पे कुर्बान जिंदगी।।
बडी मुश्किल से हासिल होती हे मुहब्बत।
गफलत में खो ना जाए नादां जिंदगी।।
मुश्किल में जो भी तेरे काम आए।
भूला न देना उनका एहसान जिंदगी।।
गुलजार मिले कहीं कांटो भरी डगर।
लेती हैं हर मोड पे इम्तिहान जिंदगी।
आगाजे-बादे-सबा-कमतर दोस्ती।
भरी दोपहर चढती परवान जिंदगी।
दोस्तों की दोस्ती से महफिल सजी रहें।
यही हैं मेरा धर्म औ ईमां जिंदगी।।
बेगरजी दोस्त मिलना है चंदन नामुमकिन।
खुदगर्ज दोस्ती होती बेनिशां जिंदगी।।//
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सुश्री नीलम उपाध्याय की लघु कथा:
ऐसी भी दोस्ती
सुबह नौ बजे दफ्तर पहुँचने की आपा-धापी में जल्दी-जल्दी घर के काम-काज निबटा कर आठ बजे तक किसी भी तरह घर से निकलना ही होता है । लगभग भागते हुए बस पकड़ना और बस में चढ़ने के बाद बैठने की एक सीट ढूँढ़ के बैठने तक तनाव बना रहता है अन्यथा खड़े होकर ही यात्रा करनी पड़ती है जो जरा मुश्किल सा काम है । खैर ये तो रोज की ही दिनचर्या है ।
सुबह की भाग-दौड़ के बी में वो रोज दिखती । उसकी उम्र लगभग १०-११ वर्ष की रही होगी । कपड़े उसके थोड़े मैले होते और बाल रूखे से - बेतरतीब से एक रिबननुमा डोरी में बंधे होते । हाथ में एक झोला नुमा बैग लेकर सड़क पर कुछ-कुछ बीन रही होती । वो कहाँ रहती है, कितने भाई बहन है घर में, माता-पिता हैं या नहीं और यदि हैं तो क्या करते हैं, क्यों इस नन्हीं सी उम्र में - जब उसे इस समय स्कूल में पढ़ाई करनी चाहिये - इस तरह सड़क पर कुछ बीनती घूम रही होती - यह सब जानकारी लेने का समय नहीं होता मेरे पास ।
एक दिन अनायास ही उससे कुछ बात करने का मौका मिल गया । उस दिन कुछ जल्दी तैयार होकर घर से निकल पड़ी थी । बड़ा अच्छा लगा ये अनुभव करके कि आज कम से कम भागने की बजाए जरा आराम से टहलते हुए बस स्टैण्ड तक जा पउँगी । तभी वो दिख गई - सड़क पर इधर-उधर नजर दौड़ाती, कुछ ढूँढ़ती हुई । आज मेरे पास समय की कमी नहीं थी सो मन की उत्सुकता दबाते हुए उसे पास बुलाया और पूछ लिया कि इस समय स्कूल में होने की बजाए वो सड़क पर क्यों घूमती रहती है और क्या ढूँढ़ती रहती है । उसका जबाब सुन कर अन्दर तक काँप गया मन ।
उसने बताया - "यह सब वह अपनी सहेली के लिए करती है । उन दोनों के माता पिता - जो एक ही जगह मजदूरी किया करते थे - मजदूरी के दौरान घटी एक दुर्घटना में मारे गए थे । उसकी सहेली भी उसी दुर्घटना में विकलांग हो गई थी । अपने माता-पिता के रहते वो दोनों ही पढ़ने जाती थीं । अब वो दोनो अकेली हैं इस संसार में । लेकिन उन दोनों को खूब पढ़ाई कर के बड़ा आदमी बनना है । इसलिए सुबह वो अपनी विकलांग सहेली को स्कूल पहुँचा कर दिन भर रद्दी कागज बटोरती है । शाम तक १००-२०० रु० तक की रद्दी जमा कर लेती है और इन्हें बेच कर अपन्स और अपनी सहेली के गुजारे का इन्तजाम करती है । उसकी सहेली जो कुछ स्कूल में दिन में पढ़कर आती है उसे शाम को पढ़ा देती है । स्कूल के मास्टर जी ने कहा है कि उसे पराइवेट इन्तहान दिलवा देंगे ।"
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मोहतरमा हरकीरत हीर जी की नज्मे में महफ़िल की शोभा बढ़ा गईं :
एक मित्र के नाम .....
(1)
ये सिरहन सी ...
क्यों है अंगों में ?
ये कौन रख गया है
ज़िस्म पर बर्फ के टुकड़े ?
ये नमी सी क्यों है आँखों में ..?
के मेरा दोस्त भी आज ....
इश्क़ की नज़्म उतार
सजदे में खड़ा है .....!!
(2)
दीवारें तो ...
खामोश थीं बरसों से
फासले भी तक्सीम किये बैठे थे
अय ज़िस्म..... !
अब इसमें तेरा दर्द भी शुमार हो गया
दोस्त ! अब छोड़ दे तन्हाँ मुझे ......!!
(3)
हैरां मत होना
ग़र मैं न लौटूँ ....
सामने की कब्र में ...
जश्न भी है और मुशायरा भी
अँधेरे, नज्मों से भरे पड़े हैं
अय दोस्त.... !
आ अब तो उतार दे इस कब्र में .....!!
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श्री अम्बरीश श्रीवास्तव जी यह रुबाई लेकर महफ़िल में पधारे:
//दोस्ती है बसी दिल में हमारा मन महकता है.
दिलों को जोड़ देने से हमेशा तन महकता है
अगर हो साथ अच्छा तो जमीं पर आ बसे जन्नत-
दिलों के तार बजने से ही अपनापन महकता है..//
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अम्बरीश जी द्वारा प्रस्तुत कुंडली :
//दिल से कर लें दोस्ती बांटें सबमें प्यार,
मित्र-भाव सबसे बड़ा कहता है संसार,
कहता है संसार सुदामा जग से न्यारे,
करके प्रीति प्रतीति हुए कृष्णा के प्यारे,
नैना हुए अधीर दरस को कब से तरसे,
दिल में बसते आप जुड़ा मन जब से दिल से |//
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आपकी इस ग़ज़ल ने तो सब का मन ही जीत लिया:
//दोस्ती की आज कसमें खा रहा संसार है
मुफलिसी में साथ दे जो वो ही अपना यार है.
दुश्मनी फिर भी भली ना दोस्ती नादान की,
जान पायेगा नहीं वो कब बना हथियार है.
तंगदिल से दोस्ती यारों कभी होती नहीं,
दोस्ती में दिल खुला हो प्रीति की दरकार है.
रूप अपना किसने देखा किसने जाना दोस्तों,
दोस्ती कर आईने से आइना तैयार है.
हम समझते थे वहां हैं यार यारों के हमीं,
ओ बी ओ पर जान पाये वाकई क्या प्यार है.//
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आप द्वारा प्रस्तुत किया गया दुर्मिल सवय्या:
//भरि अंग विहंग अनंग सखा रघुवीर सुधीर सुहावति हैं,
निज अंतर से नयना बरसैं सुगरीव के भाग जगावति हैं,
लखि नेह छटा अभिराम यहाँ धरणीधर हर्ष जतावति हैं,
संग अंगद मीत सुमीत सभी हनुमान व नील जुड़ावति हैं |//
चंद दोहों में पूरा पिंगल शास्त्र परिभाषित करती श्री अम्बरी श्रीवास्तव की यह रचना संभवत: इस आयोजन की सर्वश्रेष्ट रचना रही:
//हो कवित्त से दोस्ती, छंद-छंद से प्यार.
रोला दोहा सोरठा, कुण्डलिया अभिसार..
शब्द सवैया से मिलें, भगण-सगण ले रूप.
बहती तब रस धार है, शोभा दिव्या अनूप..
शेर-शेर सब हैं अलग, मतला मकता बोल.
मेल मिलाये काफिया, गज़ल बने अनमोल..
सरिता शब्द प्रवाह से, बने गीत-नवगीत.
हास्य-व्यंग्य भी साथ में, सबके सब है मीत..
चौपाई हरिगीतिका, छप्पय खेलें खेल.
छंदों से लें प्रेरणा, मन से कर लें मेल..//
हो कवित्त से दोस्ती, छंद-छंद से प्यार.
रोला दोहा सोरठा, कुण्डलिया अभिसार..
शब्द सवैया से मिलें, भगण-सगण ले रूप.
बहती तब रस धार है, शोभा दिव्या अनूप..
शेर-शेर सब हैं अलग, मतला मकता बोल.
मेल मिलाये काफिया, गज़ल बने अनमोल..
सरिता शब्द प्रवाह से, बने गीत-नवगीत.
हास्य-व्यंग्य भी साथ में, सबके सब है मीत..
चौपाई हरिगीतिका, छप्पय खेलें खेल.
छंदों से लें प्रेरणा, मन से कर लें मेल..
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आधुनिक सन्दर्भ में क्रष्ण सुदामा की दोस्ती को परिभाषित किया कवि राज बुन्देली जी ने :
सुदामा की दोस्ती........
शहर कॆ बीचॊं-बीच
मुख्य सड़क कॆ किनारॆ,
दरिद्रता कॆ परिधान मॆं लिपटी,
निहारती है दिन-रात ,
गगन चूमती इमारतॊं कॊ,
वह सुदामा की झॊपड़ी,
कह रही है..
कब आयॆगा समय...
कृष्ण और सुदामा कॆ मिलन का,
अब तॊ जाना ही चाहियॆ..
सुदामा कॊ,
आवॆदन पत्र कॆ साथ,
उस सत्ताधीश कॆ दरबार मॆं,
कहना चाहि्यॆ,
अब कॊई भी झॊपड़ी
महफ़ूज़,नहीं है.....
तॆरॆ शासनकाल मॆं,
हजारॊं आग की चिन्गारियां,
बढ़ती आ रही हैं
मॆरी तरफ़..
गिद्ध जैसी नजरॆं गड़ायॆ हुयॆ
यॆ
तॆरॆ शहर कॆ बुल्डॊजर,
कल..........
मॆरी गरीबी कॆ सीनॆ पर
तॆरा,
सियासती बुल्डॊजर चल जायॆगा !!
और................
सुदामा की झोपड़ी की जगह,
कॊई डान्स-बार खुल जायॆगा !!//
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जनाब मोईन शम्सी जी भी मुशायरा लूटने का मन बना कर आए हुए थे, उनकी खूबसूरत ग़ज़ल :
//तारीकियों में शम्मा जलाती है दोस्ती
भटके हुओं को राह दिखाती है दोस्ती ।
टूटे हुए जो दिल हैं उन्हें जोड़ती है ये
रूठे हुए हबीब मनाती है दोस्ती ।
हंसता हूं गर तो संग लगाती है क़हक़हे
गर रो पड़ूं तो अश्क बहाती है दोस्ती ।
बनती है मुश्किलों का सबब भी कभी-कभी
मुश्किल के वक़्त काम भी आती है दोस्ती ।
तस्कीं किसी के क़ल्ब को करती है ये अता
बनके कसक किसी को सताती है दोस्ती ।
मुद्दत हुई है उसको गए लेकिन आज भी
तन्हाइयों में ख़ूब रुलाती है दोस्ती ।
जब दोस्त बन के पीठ में घोंपे छुरा कोई
’शमसी’ यक़ीं के ख़ूं में नहाती है दोस्ती ।//
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नौजवान शायर जनाब राणा प्रताप सिंह जी ने अपनी ग़ज़ल अपने एक बहुत ही प्यारे दोस्त को समर्पित की :
//मुश्किल हर इक आसान बनाता रहा है वो
दिल में सुकूनो चैन का 'खाता' रहा है वो
अक्सर मैं गुम हुआ हूँ अंधेरों के शह्र में
हर बार ढूंढ ढूंढ के लाता रहा है वो
जब जब कदम बहकने लगे राह में मेरे
चलना सहारा देके सिखाता रहा है वो
पर्दा अना का जब चढ़े सूरत पे मेरी तब
आईना हर दफे ही दिखाता रहा है वो
हरदम निभाते ही रहे रंजिश सभी यहाँ
लेकिन गले से मुझको लगाता रहा है वो
सारा जहां तलाश रहा बस खुदा को ही
मेरे लिए तो मेरा विधाता रहा है वो !//
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श्री दीपक शर्मा कुल्लुवी ने अपनी छोटी सी नज़्म "दोस्ती" में फ़रमाया:
//रिश्ते दोस्ती के अक्सर वोह टूट जाते हैं
जो दिल के ज्यादा करीव होते हैं
और जिनके होते नहीं दोस्त इस जहाँ में
वो लोग बहुत बदनसीब होते है //
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महफ़िल के अंजाम पर पहुँचने से एकदम पहले जनाब तिलक राज कपूर साहब अपने आशार के साथ तशरीफ़ लाये और जाते जाते महफ़िल में अपनी कलाम की महक बिखेर गए:
//मैनें जाने किस लिये रिश्ता ये उससे रख लिया
और जब कुछ कह न पाया दोस्त उसको कह दिया।
दोस्ती के नाम पर इक दिलजला मुझको दिया
मेरे मालिक ज़ुल्म मुझपर किसलिये ऐसा किया।
आ गया वो फि़र नया इक ज़ख्म देने के लिये
जब ये देखा कि पुराना ज़ख्म मैनें सी लिया।//
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कुल मिला कर यह महा-उत्सव भी बहुत सफल रहा ! सभी रचनायों पर लगभग हरेक शुरका ने अपनी टिप्पणी देकर लेखकों का हौसला बढाया ! आदरणीय सौरभ पांडे जी ने जिस प्रकार सभी रचनायों पर अपनी राय दी उस से रचना धर्मियों का ना सिर्फ उत्साह वर्धन ही हुआ बल्कि उनका मार्गदर्शन भी हुआ होगा ! श्री प्रीतम तिवारी प्रीतो भी लेखकों के उत्साहवर्धन में शुरू से अंत तक सरगर्म रहे ! मैं इस आयोजन में सम्मिलित सभी रचना धर्मियों का ह्रदय से धन्यवाद करता हूँ और उम्मीद करता हूँ की आप सब का सहयोग एवं स्नेह हमें यथावत प्राप्त होता रहेगा ! मैं अंत में इस महा उत्सव के संचालक श्री विवेक मिश्र एवं ओबीओ के सर्वेसर्वा श्री गणेश बागी जी को इस सफल आयोजन पर बधाई देता हूँ ! जय ओबीओ ! सादर !
योगराज प्रभाकर
(प्रधान सम्पादक)