For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

‘सृष्टि पर पहरा’ काव्य-संकलन के आइने में केदारनाथ सिंह- डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

                

 

       ‘सृष्टि पर पहरा’ कवि एवं आलोचक केदारनाथ सिंह का आठवाँ काव्य-संग्रह है i इसकी पह्ली कविता ‘सूर्य 2011’ में कवि सूर्य से अपने रिश्ते की बात कहता है i यह रिश्ता बहुत सहज नही है i सहज हो भी नहीं सकता I एक का अस्तित्व अनादी काल से अनन्त काल तक है दूसरे का अस्तित्व 75 की वय पार करते ही डगमगाने लगता है I सूर्य कवि को  कभी प्रथम प्रेम का प्रतिद्वन्दी लगता है तो कभी एक कुशल व्यापारी जो पृथ्वी से ताप ,ऊष्मा और ऊर्जा का सौदा करता है I पर कवि को सूर्य समकालीन भी लगता है I कवि के शब्दों में इस रिश्ते का स्वरुप निम्न प्रकार है –

 

और इस समय जबकि हम

यानी लाखों वर्ष पुराना वह

और पचहत्तर वर्षी मैं

दोनों एक ढाल से उतर रहे हैं

मैं उसे जानता हूं

जैसे एक समकालीन जानता है

दूसरे समकालीन को ।

 

       बिम्ब की रचना करने में अपितु उसको गढ़ने में केदारनाथसिंह अप्रतिम कवि हैं  I विकट सुखाड़ में अस्थिर जड़ो के आलम्ब पर टिका एक विकट अपत्र लम्बा सूखा झरनाठ वृक्ष जिसकी फुनगी पर मात्र त्तीन या चार पर्ण शेष थे, वह कवि की दृष्टि में मुक्तिबोध की फैंटेसी ‘ब्रह्मराक्षस’ के नायक की भांति पुष्ट सृष्टि का प्रहरी है I यहाँ संसार की समकालीन भयावह स्थिति का  चित्रण सन्नाटे में खडे एक सूखे ठूँठवत वृक्ष से किया गया है जो अभी मरा नहीं है, उसकी फुनगी पर हरियाली है I यही कवि का आशावाद है  I इसी के बल पर वह सुखाड वृक्ष सिवान का उन्नत प्रहरी है i उक्त स्थिति का चित्रांकन कवि के शब्दों में निम्न प्रकार है –

 

जड़ों की डगमग खड़ाऊं पहने
वह सामने खड़ा था
सिवान का प्रहरी
जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस-
एक सूखता हुआ लंबा झरनाठ वृक्ष
जिसके शीर्ष पर हिल रहे
तीन-चार पत्ते

कितना भव्य था
एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर
महज तीन-चार पत्तों का हिलना

उस विकट सुखाड़ में
सृष्टि पर पहरा दे रहे थे
तीन-चार पत्ते

  • ‘सृष्टि पर पहरा’ कविता से 

     

     माता-पिता और संगी-साथी के साथ भाषा के जिस प्रारूप का साक्षात्कार शैशव अवस्था में होता है, उसकी अमिट छाप हृदय में सदैव विद्यमान रहती है  i यदि वह भाषा हिन्दी की कोई लोकप्रिय बोली है तो उसकी मिठास कभी कम नहीं होती I केदारनाथसिंह का जन्म जिस स्थान पर हुआ वहां भोजपुरी भाषा का वर्चस्व है I स्वाभाविक रूप से इस भाषा  के प्रति उनके मन में एक भक्तिजन्य लगाव है I उन्होंने ‘देश और घर कविता’ में स्वीकार किया है कि हिंदी मेरा देश है /भोजपुरी मेरा घर /....मैं दोनों को प्यार करता हूं /और देखिए न मेरी मुश्किल /पिछले साठ बरसों से दोनों को दोनों में खोज रहा हूं I  यहाँ भी वह बड़ी मासूमियत से कहते है भोजपुरी भाषा एक ऐसा शंख है जिसमे सातो समुद्र के सुर सुनायी देते हैं- 

 

कभी आना मेरे घर
तुम्हें सुनाऊंगा
मेरे झरोखे पर रखा शंख है यह
जिसमें धीमे-धीमे बजते हैं
सातों समुद्र.

     -‘भोजपुरी’ कविता से

 

     वस्त्र यदि तन का आवरण या लाज ढंकने का एक माध्यम है तो वह एक साज-सज्जा भी है I  हजारो रंगों के परिधान मानव के व्यक्तित्व को नयी ‘धज’ देते ही रह्ते है i हम उनके आकर्षण के जाल में बिंध जाते है i किन्तु कवि उसके origin में जाता है I उत्स की तलाश करता है और एक पल में सारी सज्जा की कलई खोल उसकी धज्जियाँ बिखेर देता है I इतना निस्पृह चिंतन केदारनाथ सिंह की कविताओ में ही दिखता है I

 

वह जो आपकी कमीज है
किसी खेत में खिला
एक कपास का फूल है.

        -‘कपास के फूल’ कविता से

 

        भक्तिकालीन कवि नाभादास से प्रभावित होकर मुग़ल सम्राट अकबर ने उन्हें फतेहपुर सीकरी आमंत्रित किया I कवि ने इसे ठुकरा दिया और अकबर को जवाब भेजा –‘संतन को कहा सीकरी सो काम’ I किन्तु इस उत्तर में कितना आत्म विशवास, कितना आत्म सम्मान और भौतिकता के प्रति कितना अपरिग्रह है इसे कोई संवेदनशील व्यक्ति ही समझ सकता है I कवि इसका प्राकट्य निम्न प्रकार करता है -

संतन को कहा सीकरी सों काम
सदियों पुरानी एक छोटी-सी पंक्ति
और इसमें इतना ताप
कि लगभग पांच सौ वर्षों से हिला रही है हिन्‍दी को

        -‘कवि कुम्भनदास के प्रति’ कविता से

 

       हिन्दी के प्रति कवि का अनन्य प्रेम है I हिन्दी भाषा पर देश में ही कितने कुठाराघात हुये I हिंदी कितनी बार लहूलुहान हुयी I यहाँ तक कि इसकी क्रिया उनींदी गयी I जख्मी विशेषण कराह उठे I कवि को सब पता है  I इसलिए वह कहता है कि मेरी हिंदी को राज भाषा का गौरव नहीं चाहिए I पर इस भाषा को जीवित तो रहने दो I इस भाषा में ही हमें अरबी, तुर्की,  बांग्ला, तेलगू सबका रस मिलता है –

 

भाषा-भाषा सिर्फ भाषा रहने दो मेरी भाषा को
अरबी-तुर्की बांग्‍ला तेलुगू
यहां तक कि एक पत्‍ती के हिलने की आवाज भी
मैं सब बोलता हूं जरा-जरा
जब बोलता हूं हिन्दी I

  • ‘हिंदी’ कविता से

 

 भाषा के साथ हे उसकी लिपि देव-नागरी से भी कवि का उतना ही लगाव है I  भाषा-विज्ञान के लिहाज से हम अभिज्ञ हैं कि देव-नागरी बहुत ही वैज्ञानिक और परिपक्व लिपि है I अतः हिन्दी प्रेमी इसे प्यार करें या इस पर अभिमान करें दोनों ही स्थितियां स्वाभाविक एवं समीचीन हैं I कवि कहता है कि यह लिपि नहीं जीवन का उल्लास है जो मात्राओ में ढलता है और जब हम करुण होते है तो इस लिपि का अनुस्वार हमारा कंठ अवरुद्ध कर देता है I  

 

यह मेरे लोगों का उल्लास है
जो ढल गया है मात्राओं में
अनुस्वार में उतर आया है कोई कंठावरोध।

        -‘देवनागरी’ कविता से

 

       घास गावो में बहुतायत से पाई जाती है I वैसी ही जैसी गरीबी i शहर में इसे लोग खदेड़ते हैं I पर मिटा नहीं पाते I गरीबी वहां व्भी पहुँचती है अपनी पहचान जानने के लिये I गरीबी चूँकि घास है अतः इस पर संसद में बहस होनी चाहिये I कवि कहता है कि आगामी चुनाव में मै घास के पक्ष में मतदान करूंगा क्योंकि इसका परचम पत्तियों के बलबूते स्वयं लहराता है I घास यानि की गरीबी या गरीब एक अपरिहार्य जिद की तरह है जो लाख कोशिश के बावजूद भी  कभी मिटता नहीं और कही से भी फूट पड़ता है I

 

मैं घास के पक्ष में
मतदान करूंगा
कोई चुने या न चुने
एक छोटी सी पत्ती का बैनर उठाए हुए
वह तो हमेशा मैदान में है।

कभी भी...
कहीं से भी उग आने की
एक जिद है वह

       -‘घास’ कविता से

 

      प्राणी मात्र में आत्म निर्णय लेने की जो आदम प्रवृत्ति है वह उसे विद्रोही बनाती है I आज के युवाओ में यह आक्रोश की सीमा तक है i वह अनुभव को घास नहीं डालता I माता-पिता या समाज अपने अनुभव से युवा का मार्ग दर्शन कर सकता है I पर हर युवा को अपना आसमान खुद तलाशने की जल्दी है I पर होता क्या है अनुभवहीनता के कारण वे ठोकर खाते है और  फिर frustration  का शिकार हो जाते है I  कुछ को तो ऐसी चोट लगती है कि वे पूरे जीवन अपाहिज की जिन्दगी जीने को बाध्य हो जाते है I इस मर्ज का कोई शर्तिया इलाज भी नहीं है क्योंकि यह एक Basic Instinct है I कवि ने जड़ पदार्थो का मानवीकरण कर इस विद्रोह को बड़ी कुशलता से रूपायित किया है –

 

आज घर में घुसा
तो वहां अजब दृश्य था
सुनिये- मेरे बिस्तर ने कहा-
यह रहा मेरा इस्तीफ़ा
मैं अपने कपास के भीतर
वापस जाना चाहता हूं

*   *   *    *

-कि तभी
नल से टपकता पानी तड़पा-
अब तो हद हो गई साहब!
अगर सुन सकें तो सुन
लीजिए
इन बूंदों की आवाज़-
कि अब हम
यानी आपके सारे के सारे
क़ैदी
आदमी की जेल से
मुक्त होना चाहते हैं

अब जा कहां रहे हैं-
मेरा दरवाज़ा कड़का
जब मैं बाहर निकल रहा था.

       -‘विद्रोह‘ कविता से

                   जीवन में हादसे होते है और कुछ तो ऐसे जो मनुष्य को जड़ कर देते है I ऐसे हादसो में एक सम्पूर्ण नृजाति मानो पत्थर हो जाती है I घटना या त्रासदी के प्रत्यक्षदर्शी प्रशासन के डर से सत्य बोल नहीं पाते और असत्य वे बोलना नहीं चाहते I कुछ जमीर की वजह से कुछ सामाजिक भय से I तब उनके पास एक ही विकल्प बचता है, वे अपनी जुबान सी लेते है  I वे लाख कुरेदने पर भी कुछ नहीं बोलते I ‘मांझी का पुल’ नामक कविता में ऐसी ही किसी त्रासदी की पीड़ा है पर कवि ने इसे अव्यक्त ही रहने दिया है i यह भी संभव ही कि किसी अन्य स्थान की त्रासदी को ‘मांझी का पुल’ में रूपक-बद्द्ध किया गया हो I पर कवि उस चुप्पी को सुनने की अनुशंसा करता है, जिसमे एक हाहाकार मौन मुखरित है I कवि कहता है कि –

 

अगर इस बस्ती से गुज़रो
तो जो बैठे हों चुप
उन्हें सुनने की कोशिश करना
उन्हें घटना याद है
पर वे बोलना भूल गए हैं।

 

        गया प्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ के सौजन्य से हम जानते है कि –‘जिसको न निज गौरव तथा जिस देश का अभिमान है I वह नर नहीं है पशु निरा है और मृतक समान है I’ इस काव्य पंक्ति में ऊहा यह है कि प्रायः लोग इसे मैथिलीशरण गुप्त  की रचना मानते है I इस काव्य-पंक्ति मे अपनी जननी और जन्म-भूमि पर गौरवान्वित होने का सन्देश है I हम जानते है कि केदारनाथ सिंह ग्राम चकिया, जनपद, बलिया के मूल निवासी है जो देश का पूरबी क्षेत्र कहा जाता है I इधर के लोगो पुरबिहा विशेषण से जाने जाते है i पुरबिहा होने के कुछ ख्यात-अख्यात सन्दर्भ भी है तथापि कवि को अपने पुरबिहा होने पर  गर्व है I यह गर्व क्यों है अन्य तमाम बातों के साथ इसलिए भी है कि –

 

-- ठीक समय
बगदाद में जिस दिल को
चीर गई गोली
वहाँ भी हूँ
हर गिरा खून
अपने अंगोछे से पोंछता
मैं वही पुरबिहा हूँ
जहां भी हूँ I

           - ‘एक पुरबिहा के आत्म-कथ्य ‘ कविता से

               ज्ञान-विज्ञान की चर्चाये हमारे प्राचीन आर्ष ग्रंथो में भी है और विज्ञान हमेशा से भौतिक उन्नति को सिद्ध करने वाला उपकरण रहा है I आज हम मंगल ग्रह में प्रवास की बात सोचते है तो महज विज्ञान के कारण  i परन्तु अनुभव से यह बात भी सिद्ध है कि विज्ञान प्रकृति के सामने अभी बहुत बौना है I एक ही आघात में प्रकृति विज्ञान को काफी पीछे धकेल देता है और सबसे बड़ी बात विज्ञानं से शरीर को सुख तो अवश्य मिलता है , आत्मशलाघा की प्रवृत्ति भी बढ़ती है पर शान्ति नहीं मिलती I इसी भावना को कवि निम् प्रकार अभिव्यक्त करता है -

जब ट्रेन चढ़ता हूँ
तो विज्ञान को धन्यवाद देता हूँ
वैज्ञानिक को भी
    जब उतरता हूँ वायुयान से
    तो ढेरों धन्यवाद देता हूँ विज्ञान को
    और थोड़ा सा ईश्वर को भी
पर जब बिस्तर पर जाता हूँ
और रोशनी में नहीं आती नींद
तो बत्ती बुझाता हूँ
और सो जाता हूँ
     विज्ञान के अंधेरे में
     अच्छी नींद आती है।

  • ‘विज्ञान और नींद’ कविता से

     

    हमने मनुष्य की योनि में जन्म लिया I इसमें हमारा क्या वश था I हमने स्वयं जानबूझकर तो मानव के शरीर का बंधन स्वीकार नहीं किया I यह तो ईश्वर प्रदत्त है I वह चाहता तो हमें सर्प या घड़ियाल भी बना सकता थाI तब हमें उस शरीर का धर्म स्वीकार करना पड़ता I इस संसार में आकर फिर भागना कहाँ है, इसी में रमना है I उम्र के साथ हमारी सोच और दिनचर्या बदलती है ,सामर्थ्य बदलता है I किन्तु दुनियां न कभी बदली है और न बदलेगी I महज इसके किरदार बदलते हैं I कवि कहता है -

 

देखना
रहेगा सब जस का तस
सिर्फ मेरी दिनचर्या बादल जाएगी
साँझ को जब लौटेंगे पक्षी
लौट आऊँगा मैं भी
सुबह जब उड़ेंगे
उड़ जाऊंगा उनके संग...

      -‘कहाँ जाओगे’ कविता से

 

कवि का मांझी से कोई रिश्ता है I कभी वह ‘मांझी का पुल’ के माध्यम से किसी अव्यक्त त्रासदी को रूपायित करता है I कभी वह मांझी के पुल की एक कील बन जाना चाहता है (कहाँ जाओगे, कविता में) कभी मंगल मांझी के किसी लोक-गीत पर निसार हो जाता है I लोक गीतों में बड़ी मिठास और दर्द होता है I मंगल मांझी के लोक-गीत ने  कवि इतना प्रभावित किया कि वह लोक –गीत को अपने शब्दो में व्यक्त करने हेतु बाध्य हो गया I  इस कविता में प्रेमी को आगाह किया गया है कि वह कही भी चला जाय पर प्रेम को कभी न भूले I यहाँ न भूलने के लिए जो तर्क दिया गया है वह विलक्षण, अजगुत और नया है I यथा  - 

 

किसी को प्यार करना
तो चाहे चले जाना सात समुंदर पार
पर भूलना मत
कि तुम्हारी देह ने एक देह का
नमक खाया है।

-‘एक लोक-गीत की अनुकृति’ कविता से

 

       मानव जीवन में बूँद-बूँद पानी की अहमियत है पर मनुष्य उसे समझता नहीं i शायद इसलिए कि उसकी आवश्यकता भर का पानी सहज सुलभ है I पर मरुभूमि में लोग बूँद का महत्त्व जानते है I मनुष्य की आँखों में भी जल का एक स्रोत है पर इस स्रोत से बूँद अनायास नहीं  नहीं टपकती I इसके लिये पीड़ा और व्यथा की कई हदे पार करनी पड़ती हैं I किन्तु महत्त्व इस बूँद का नहीं है I  इसका महत्व जल की मात्र बूँद होना है भी नहीं I इसका महत्त्व इसलिए है कि यह साधारण जल-बिंदु  नहीं अपितु आंसू होना है I दृग-जल होना है I यह मानव की करुणा का व्यक्त रूप है I इसीलिये आंसू का वज्न जल-बिंदु से अधिक है i इन बिन्दुओ में भयानक आग है, धधक है, ज्वाला है I कवि के शब्दों में -

 

कितनी लाख चीख़ों
कितने करोड़ विलापों-चीत्कारों के बाद
किसी आँख से टपकी
एक बूंद को नाम मिला-
आँसू
   कौन बताएगा
    बूंद से आँसू
    कितना भारी है

-‘आंसू का वज्न’ कविता से

 

         ईश्वर यदि नियंता है तो स्थितियां उससे बेकाबू हो रही है  i ग्रामीण अंचल से शहर की ओर लोगो का पलायन बढ़ रहा है i शहर संकुचित हो चुके है I उन पर आबादी का दबाव इतना अधिक है कि बच्चो को खेलने की जगह कम पड गयी है I विज्ञान हमें मंगल ग्रह के सपने दिखा रहा है I कवि कहता है कि शहर में बसने की अंध –लालसा  के कारण अब प्ले-ग्राउंड का जुगाड़ चाँद पर करना होगा I यथा –

 

यहाँ शहरों की गलियाँ

अब पड़ रही हैं छोटी  

इसलिए कुछ ऐसी जुगत करना

कि पृथ्वी के बच्चे

कभी - कभी क्रिकेट खेल आएँ

चाँद पर

   -‘ईश्वर को एक भारतीय नागरिक के कुछ सुझाव’ कविता से

 

  1. उक्त कविता में ही बढ़ते विश्व- बाजार की नवीन समस्याओ से आगाह किया गया है I किसी की वस्तु का अपनी बताकर लोग  करोडो का व्यापार कर रहे है I फलस्वरूप लोगो को हर चीज  का कापी-राईट कराना पड़ रहा है I कंपनिया अल्प प्राप्य वस्तुओ का  पेटेंट कराकर बेताशा धन लूट रही हैं I देश को इसके आठ ही क्लोन जैसी समस्या से निपटना हैI पृथ्वी के सत्वर विनाश की अटकलबाजी चल रही है i ऐसे में कवि ईश्वर को संबोधित करते हुए कहता है –

  2.  

    सुझाव तो ढेरों हैं

    पर जल्दी - जल्दी में

    एक अंतिम सुझाव

    इधर मीडिया में विनाश की अटकलें

    बराबर आ रही हैं

    सो पृथ्वी का कॉपीराइट सँभालकर रखना

    यह क्लोन - समय है

    कहीं ऐसा न हो

    कोई चुपके से रच दे

    एक क्लोन - पृथ्वी

  • ‘’ कविता से वही

    ‘सृष्टि पर पहरा’ काव्य में जीवन के अनेक रंग है I कवि ने जिस भी रंग को पकड़ा है उसकी पूरी चमक को आत्मसात किया है जो पाठक को भी हतप्रभ एवं चकाचौंध करती है I इस संकलन की अनेक कवितायेँ ऐसी है जिन पर यहाँ स्थानाभाव के कारण चर्चा नही की गयी है इनमे ‘मंच और मचान’ एक लम्बी कविता है जो गांधी की नीतियों की धज्जियाँ उडाती है I सरकार के निर्देश पर चीना बाबा का घर उजड़ता है और लोक-जीवन यह दृश्य देखने के लिए विवश होता है, इस सत्य का बड़ा ही सुन्दर और प्रभावशाली वर्णन कवि ने किया है I  अन्य कविताओं में ‘प्रो० बरयाम सिंह’, ‘नदी का स्मारक’,  ‘बैलों का संगीत- प्रेम’, ‘सबसे बड़ी खबर’, ‘काली सदरी’ और ‘एक ठेठ किसान के सुख’ प्रमुख एवं पठनीय है I पर सबसे बढ़कर है वह सिवान का सुखाड वृक्ष जो आशावाद का विटप होने के साथ ही साथ बजरिये रूपक सृष्टि पर पहरा देता एक सजग एवं सतर्क प्रहरी भी है I 

                                                                                                 ई एस -1/436, सीतापुर रोड योजना कालोनी 

                                                                               अलीगंज सेक्टर- ए,निकट राम-राम बैंक चौराहा ,लखनऊ I

 

Views: 2051

Replies to This Discussion

केदारनाथ सिंह की ’सृष्टि पर पहरा’ की पाठकीय समीक्षा भावमुग्ध कर गयी.
आदरणीय गोपाल नारायनजी, आपकी अध्ययनप्रियता साहित्य के मनकों को बीना करती है. आपने जिस ढंग से इस काव्य-संग्रह को आद्योपांत पढ़ा है, तदुपरान्त अपनी समझ साझा की है वह आपकी पाठकीय पृष्ठभूमि को साझा करती है.

मांझी बलिया के धुर पूरब में एक स्थान (गाँव) है. जो बलिया को छपरा से जोड़ता है. यह सरयू (घाघरा) नदी पर है. इसी के ठीक आगे सरयू गंगा से मिल जाती है. यहाँ सरयू पर अभी तो पुल बना है. लेकिन इसके पहले वर्षों नदी में चलती फेरी (जेट्टी) से लोग आर-पार करते थे. यहाँ नदी के घाट पर हुआ हादसा लोगों के साइक में पैठ बना चुका है जिसके हुए सदियाँ गुजर गयीं.

आपकी धुरंधर पाठकीयता पर नमन.
सादर

आदरणीय सौरभ जी

 आपने मांझी के हादसे के बारे में अच्छी जानकारी दी . मैं जब लेख लिख रहा था तभी यह उत्सुकता जागी थी कि  आखिर ऐसा कौन सा हादसा  हुआ जिसने लोगो को मूक और बधिर बना दिया  i इस जानकारी के लिए और स्नेह के प्रति सादर आभार.

आदरणीय गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी इस समीक्षा के लिए आभार 

मिथिलेश जी

सादर आभार

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sushil Sarna commented on रामबली गुप्ता's blog post कुंडलिया छंद
"आदरणीय रामबली जी बहुत ही उत्तम और सार्थक कुंडलिया का सृजन हुआ है ।हार्दिक बधाई सर"
yesterday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
" जी ! सही कहा है आपने. सादर प्रणाम. "
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय अशोक भाईजी, एक ही छंद में चित्र उभर कर शाब्दिक हुआ है। शिल्प और भाव का सुंदर संयोजन हुआ है।…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति स्नेह और मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"अवश्य, आदरणीय अशोक भाई साहब।  31 वर्णों की व्यवस्था और पदांत का लघु-गुरू होना मनहरण की…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, आपने रचना संशोधित कर पुनः पोस्ट की है, किन्तु आपने घनाक्षरी की…"
Sunday
Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी   नन्हें-नन्हें बच्चों के न हाथों में किताब और, पीठ पर शाला वाले, झोले का न भार…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। रचना पर उपस्थिति व स्नेहाशीष के लिए आभार। जल्दबाजी में त्रुटिपूर्ण…"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"आयोजन में सारस्वत सहभागिता के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी। शीत ऋतु की सुंदर…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"शीत लहर ही चहुँदिश दिखती, है हुई तपन अतीत यहाँ।यौवन  जैसी  ठिठुरन  लेकर, आन …"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सादर अभिवादन, आदरणीय।"
Sunday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 161 in the group चित्र से काव्य तक
"सभी सदस्यों से रचना-प्रस्तुति की अपेक्षा है.. "
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service