For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

वीर छंद दो पदों के चार चरणों में रचा जाता है जिसमें यति १६-१५ मात्रा पर नियत होती है. छंद में विषम चरण का अंत गुरु (ऽ) या लघुलघु (।।) या लघु लघु गुरु (।।ऽ) या गुरु लघु लघु (ऽ ।।) से तथा सम चरण का अंत गुरु लघु (ऽ।) से होना अनिवार्य है. इसे आल्हा छंद या मात्रिक सवैया भी कहते हैं. कथ्य अकसर ओज भरे होते हैं.

इस छंद को आल्हा छंद या मात्रिक सवैया भी कहा जाता है.


ध्यातव्य है कि इस छंद का ’यथा नाम तथा गुण’ की तरह इसके कथ्य अकसर ओज भरे होते हैं और सुनने वाले के मन में उत्साह और उत्तेजना पैदा करते हैं. इस हिसाब से अतिशयोक्ति पूर्ण अभिव्यंजनाएँ इस छंद का मौलिक गुण हो जाती हैं.
जनश्रुति भी इस छंद की विधा को यों रेखांकित करती है -

आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य।
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक, करे राइ को तुरत पहाड़।
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।


उदाहरण:

बारह बरिस ल कुक्कुर जीऐं, औ तेरह लौ जिये सियार,
बरिस अठारह छत्री जीयें,  आगे जीवन को धिक्कार.


महारानी लक्ष्मी बाई का चित्रण करती पंक्तियाँ -

कर में गह करवाल घूमती, रानी बनी शक्ति साकार.
सिंहवाहिनी, शत्रुघातिनी सी करती थी अरि संहार.
अश्ववाहिनी बाँध पीठ पै, पुत्र दौड़ती चारों ओर.
अंग्रेजों के छक्के छूटे, दुश्मन का कुछ, चला न जोर..


बुंदेलखंड की अतिप्रसिद्ध काव्य-कृति जगनिक रचित 'आल्ह-खण्ड' से कुछ पद प्रस्तुत हैं. अतिशयोक्ति का सुन्दर उदाहरण इन पंक्तियों में देखा जा सकता है, यथा, राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय.

पहिल बचनियाँ है माता की, बेटा बाघ मारि घर लाउ.
आजु बाघ कल बैरी मारिउ, मोर छतिया की दाह बताउ.
बिन अहेर के हम ना जावैं, चाहे कोटिन करो उपाय.
जिसका बेटा कायर निकले, माता बैठि-बैठि पछताय.

टँगी खुपड़िया बाप-चचा की, मांडूगढ़ बरगद की डार.

आधी रतिया की बेला में, खोपडी कहे पुकार-पुकार.
कहवां आल्हा कहवां मलखै, कहवां ऊदल लडैते लाल.
बचि कै आना मांडूगढ़ में, राज बघेल जिये कै काल.

एक तो सुघर लड़कैया के, दूसरे देवी कै वरदान.

नैन सनीचर है ऊदल कै, औ बेह्फैया बसै लिलार.
महुवर बाजि रही आँगन मां, युवती देखि-देखि ठगि जांय.
राग-रागिनी ऊदल गावैं, पक्के महल दरारा खाँय.

सावन चिरैया ना घर छोडे, ना बनिजार बनीजी जाय.

टप-टप बूँद पडी खपड़न पर, दया न काहूँ ठांव देखाय.
आल्हा चलिगे ऊदल चलिगे, जइसे राम-लखन चलि जायँ.
राजा के डर कोइ न बोले, नैना डभकि-डभकि रहि जायँ.

 

ज्ञातव्य :

प्रस्तुत आलेख प्राप्त जानकारी और उपलब्ध साहित्य पर आधारित है.

Views: 39030

Replies to This Discussion

आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी आल्हा छंद जो हमारे हिंदी साहित्य का एक पुरातन विलुप्त प्राय छंद है उसके प्रति विशेष जानकारी उपलब्ध करना और नव रचनाकारों में इस छंद के प्रति दिलचस्पी और जागरूकता पैदा करने वाली आपकी यह पोस्ट सच में सराहनीय  नमननीय है  बहुत बहुत हार्दिक बधाई  

सौरभ जी!
नमन.
परंपरागत आल्हा में वीर रस और अतिशयोक्ति अलंकार का वर्चस्व है. मैंने लीक से हटकर कुछ आल्हा हास्य से जुड़े हुए कहे हैं. क्या इन्हें आल्हा कहा जा सकता है?

बुंदेली लोकमानस में प्रतिष्ठित छंद आल्हा :

बुंदेली के नीके बोल...

संजीव 'सलिल'

*

तनक न चिंता करो दाऊ जू, बुंदेली के नीके बोल.
जो बोलत हैं बेई जानैं, मिसरी जात कान मैं घोल..
कबू-कबू ऐसों लागत ज्यौं, अमराई मां फिररै डोल.
आल्हा सुनत लगत हैं ऐसो, जैसें बाज रए रे ढोल..

अंग्रेजी खों मोह ब्याप गौ, जासें मोड़ें जानत नांय.
छींकें-खांसें अंग्रेजी मां, जैंसें सोउत मां बर्रांय..
नीकी भासा कहें गँवारू, माँ खों ममी कहत इतरांय.
पाँव बुजुर्गों खें पड़ने हौं, तो बिनकी नानी मर जांय..

फ़िल्मी धुन में टर्राउट हैं, आँय-बाँय फिर कमर हिलांय.
बन्ना-बन्नी, सोहर, फागें, आल्हा, होरी समझत नांय..
बाटी-भर्ता, मठा-महेरी, छोड़ केक बिस्कुट बें खांय.
अमराई चौपाल पनघटा, भूल सहर मां फिरें भुलांय..

आदरणीय आचार्यजी, सादर प्रणाम.  प्रस्तुत प्रविष्टि पर आपका अनुमोदन मझे कस्तूरी तिलक तथा नव-मुक्ता की तरह आनन्ददायक प्रतीत हो रहा है. मैंने आप सबों के सान्निध्य में जो कुछ जाना है और जो कुछ संग्रह कर पाया हूँ उसे इन पन्नों पर उद्धृत करता रहा हूँ. 

छंद की विशिष्टता वस्तुतः उसका विधान और उसकी गेयता होती है. उसी हिसाब से रचनाकार कथ्य लेता है.

विभिन्न सवैया छंदों पर भक्तिकाल और रीति काल में यथानुरूप रचनाएँ तो हुई ही हैं. भूषण जैसे कतिपय कवियों ने विभिन्न सवैया छंदों में वीर रस की रचनाएँ भी की हैं. जो सफल भी रही हैं.

वैसे भी आल्हा छंद खण्ड-काव्य में उद्धृत तो हो ही चुका है. भले जगनिक रचित मूल ’आल्हा-खण्ड’ आज मूल लिखित रूप में उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसके लोक-प्रचलित रूप के खण्ड-काव्य में हर भाव मिल जाते हैं. हाँ यह अवश्य है कि अतिश्योक्ति की बारंबारता है.  सर्वोपरि, अतिश्योक्ति तो कई स्थानों पर हास्य का पुट लिये होती ही है !

सादर

जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब आदाब,इतनी महत्वपूर्ण जानकारी देने के लिये आपको दिल से धन्यवाद कहता हूँ,स्लामत्त रहिये ।

आयोजन कब खुलने वाला, सोच सोच जो रहें अधीर।

ढूंढ रहे हम ओबीओ के, कब आयेंगे सारे वीर।

अपने तो छंदों गजलों के, रेडी हैं सारे हथियार।

सब आ जाएं तो आपस में, छंदों वाले करे प्रहार।

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त विषय पर आपने सर्वोत्तम रचना लिख कर मेरी आकांक्षा…"
6 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे... आँख मिचौली भवन भरे, पढ़ते   खाते    साथ । चुराते…"
7 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"माता - पिता की छाँव में चिन्ता से दूर थेशैतानियों को गाँव में हम ही तो शूर थे।।*लेकिन सजग थे पीर न…"
9 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"वो भी क्या दिन थे सखा, रह रह आए याद। करते थे सब काम हम, ओबीओ के बाद।। रे भैया ओबीओ के बाद। वो भी…"
13 hours ago
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180
"स्वागतम"
yesterday
धर्मेन्द्र कुमार सिंह posted a blog post

देवता चिल्लाने लगे हैं (कविता)

पहले देवता फुसफुसाते थेउनके अस्पष्ट स्वर कानों में नहीं, आत्मा में गूँजते थेवहाँ से रिसकर कभी…See More
yesterday
धर्मेन्द्र कुमार सिंह commented on धर्मेन्द्र कुमार सिंह's blog post देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)
"बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय,  मिथिलेश वामनकर जी एवं आदरणीय  लक्ष्मण धामी…"
yesterday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-185

परम आत्मीय स्वजन, ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 185 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है | इस बार का…See More
Wednesday
Admin added a discussion to the group चित्र से काव्य तक
Thumbnail

'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 173

आदरणीय काव्य-रसिको !सादर अभिवादन !!  ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ…See More
Wednesday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कौन क्या कहता नहीं अब कान देते // सौरभ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रस्तुति पर आपसे मिली शुभकामनाओं के लिए हार्दिक धन्यवाद ..  सादर"
Wednesday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

आदमी क्या आदमी को जानता है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२२/२१२२/२१२२ कर तरक्की जो सभा में बोलता है बाँध पाँवो को वही छिप रोकता है।। * देवता जिस को…See More
Tuesday
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-180

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service