छंद त्रिभंगी की परिभाषा:
{चार चरण, मात्रा ३२, प्रत्येक में १०,८,८,६ मात्राओं पर यति तथा प्रथम व द्वितीय यति समतुकांत, प्रथम दो चरणों व अंतिम दो चरणों के चरणान्त परस्पर समतुकांत तथा जगण वर्जित, आठ चौकल, प्रत्येक चरण के अंत में गुरु अर्थात (२)}
त्रिभंगी का सूत्र निम्नलिखित है
"बत्तिस कल संगी, बने त्रिभंगी, दश-अष्ट अष्ट षट गा-अन्ता"
रामचरितमानस में सर्वत्र अन्तिम ८ और ६ के बीच यति न देकर १०-८-१४ का क्रम दिया गया है |
(इसके चरणान्त में दो गुरु होने पर यह छंद अत्यंत मनोहारी होता है )
प्रभु छंद त्रिभंगी, जगण न संगी, चौकल अष्टा, मन भावै .
है यति दस मात्रा, आठहिं मात्रा, आठ तथा छः, पर आवै.
तुक गुरु हो अंतहिं, बाँचैं संतहिं, भाव मधुर हिय, सरसावै.
यह मन अनुरागी, प्रेमहिं पागी, मगन भजन करि, हरषावै..
--अम्बरीष श्रीवास्तव
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त्रिभंगी छंद के उदाहरण निम्नलिखित हैं
री शान्ति जिनेशं, नुतशक्रेशं, वृषचक्रेशं चक्रेशं |
हनि अरिचक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं, मक्रेशं |
मंदार सरोजं, कदली जोजं, पुंज भरोजं, मलयभरं |
भरि कंचनथारी, तुमढिग धारी, मदनविदारी, धीरधरं ||
--रचनाकार : ज्ञात नहीं
रस-सागर पाकर, कवि ने आकर, अंजलि भर रस-पान किया.
ज्यों-ज्यों रस पाया, मन भरमाया, तन हर्षाया, मस्त हिया..
कविता सविता सी, ले नवता सी, प्रगटी जैसे जला दिया.
सारस्वत पूजा, करे न दूजा, करे 'सलिल' ज्यों अमिय पिया..
--आचार्य संजीव सलिल
साजै मन सूरा, निरगुन नूरा, जोग जरूरा, भरपूरा ,
दीसे नहि दूरा, हरी हजूरा, परख्या पूरा, घट मूरा
जो मिले मजूरा, एष्ट सबूरा, दुःख हो दूरा, मोजीशा
आतम तत आशा, जोग जुलासा, श्वांस ऊसासा, सुखवासा ||
--शम्भुदान चारण
रामचरितमानस में सर्वत्र अन्तिम ८ और ६ के बीच यति न होने के कारण १०-८-१४ का क्रम |
रसराज-रसायन, तुलसी-गायन, श्री रामायण मंजु लसी.
शारद शुचि-सेवक, हंस बने बक-जन-कर-मन हुलसी हुलसी..
रघुवर-रस-सागर, भर लघु गागर, पाप-सनी मति गई धुल सी.
कुंजी रामायण के परायण,से गयी मुक्ति-राह खुल सी..
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आदरणीय अम्बरीभाईजी,
इस आलेख को देखने के बाद सादर निवेदन कर रहा हूँ, आदरणीय. प्रतीत होता है, कि संभवतः आप किसी अतिरेक या विवशता या व्यक्तिगत मान्यताओं को संपुष्ट करने के क्रम में त्रिभंगी छंद : एक परिचय जैसा आलेख ओबीओ के पटल पर प्रस्तुत कर गये हैं. जिस तरह से आपने इस छंद का विधान प्रस्तुत किया है, वह भ्रामक तो है ही अधूरा भी है. इस भ्रम का तात्पर्य यह है कि उदाहरण के नाम पर आप द्वारा प्रस्तुत मानस का छंद तक अशुद्ध नाम और परिचय से प्रस्तुत हो गया है.
त्रिभंगी छंद का सार्वभौमिक, सनातनी और सर्वमान्य विधान प्रस्तुत कर रहा हूँ, आदरणीय, जो कालजयी छंदज्ञों की प्रस्तुतियों को संतुष्ट करता हुआ और कई-कई परिभाषाओं पर निर्भर हो सर्वसमाही होता हुआ भी अद्वितीय (distinct) रूप प्रस्तुत करता है --
त्रिभङ्गी के एक चरण में ३२ मात्राएँ होती हैं. इसमें एक चरण के अन्दर भी तुक होता है और चरणों के बीच मैं भी. पदों के प्रथम और द्वितीय चरणों में तुक होता है तो तृतीय और चतुर्थ चरणों में भी तुक मान्य है, किन्तु तृतीय और चतुर्थ चरणों के तुक अनिवार्य नहीं हैं. हर चरण का अन्तिम वर्ण अवश्य ही गुरु होता है. ३२ मात्राएँ १०-८-१४ में विभाजित हैं. १० और ८ के बीच यति अनिवार्य है, तो पद के अंतिम दो चरणों के बीच भी यति होना मान्य है. किन्तु अंतिम दो पदों में यति अनिवार्य नहीं है. पद के प्रथम दो चरणों यानि १० मात्राओं के अन्तिम वर्ण और ८ मात्राओं के अन्तिम वर्ण में भी तुक बनता है. इसी कारण, त्रिभंगी को १०-८-८-६ में भी बाँटते हैं. किन्तु, रामचरितमानस में सर्वत्र अंतिम ८ और ६ के बीच यति न होने के कारण शास्त्रज्ञों द्वारा १०-८-१४ का क्रम स्वीकार कर लिया गया है. कतिपय शास्त्रज्ञ इस छंद के पदों के अंतिम दो चरणों में जगण का न होना भी कहते हैं लेकिन यह पुट भी आर्ष उक्ति को देखते हुए सर्वमान्य नहीं है. उदाहरणार्थ -
परसत पद पावन (१०) + शोक नसावन (८) + प्रगट भई तपपुंज सही (१४) = ३२ [तीसरे और चौथे के मध्य यति नहीं
देखत रघुनायक (१०) + जन सुखदायक (८) + सनमुख होइ कर जोरि रही (१४) = ३२ [क्या अंतिम चरणों में जगण है ?
अति प्रेम अधीरा (१०) + पुलक शरीरा (८) + मुख नहिं आवइ बचन कही (१४) = ३२
अतिशय बड़भागी (१०) + चरनन लागी (८) + जुगल नयन जलधार बही (१४) = ३२
क्षेपक - रामचरितमानस में बालकाण्ड में अहल्योद्धार के प्रकरण में चार (४) त्रिभङ्गी छंद प्रयुक्त हुए हैं. कहा जाता है कि इसका कारण यह है कि अपने चरण से अहल्या माता को छूकर प्रभु श्रीराम ने अहल्या के पाप, ताप और शाप को भङ्ग (समाप्त) किया था, अतः गोस्वामी जी की वाणी से सरस्वतीजी ने त्रिभङ्गी छन्द को प्रकट किया.
दूसरे, आदरणीय, रामचरितमानस में राम के आविर्भाव से संबंधित अति प्रसिद्ध छंद भय प्रगट कृपाला.. त्रिभंगी छंद में न हो कर चौपइया छंद में है. दोनों छंदों में तनिक अंतर है जिसके अनुसार चौपइया छंद के पदों के चौथे चरण में मात्र चार मात्राएँ ही होती हैं, न कि त्रिभंगी की तरह छः मात्राएँ. तीसरे और चौथे चरणों में आठ और चार मात्राओं पर यति होती है किंतु यह कत्तई अनिवार्य नहीं है. त्रिभंगी छंद की तरह चौपइया छंद का पदांत भी दो गुरुओं से होता है किंतु, उसी त्रिभंगी छंद की तरह यह भी अनिवार्य शर्त नहीं है. अतः एक गुरु द्वारा पदांत सर्वस्वीकार्य है. ऐसा अवश्य है कि अंतिम गुरु के पूर्व शास्त्रज्ञ दो लघुओं के होने को तरज़ीह देते हैं.
सर्वोपरि, जब गोस्वामी तुलसीदास जैसा कोई सर्वमान्य, आर्षवचनों का प्रस्तोता और छंद-ज्ञाता, जिसके आगे शास्त्र स्वयं सिर नत करते हों, द्वारा कोई छंदोदाहरण प्रस्तुत करता हो तो परिभाषाएँ अपना स्वरूप बदल लेती हैं. यही छंदों की शास्त्रीयता में छूट का कारण बन जाया करती हैं. कहना न होगा, आदरणीय, गोस्वामीजी, कोई सौरभ पाण्डेय या कोई अम्बरीष श्रीवास्तव या ऐसे ही कोई ऐरे-ग़ैरे नत्थूखैरे ज्ञाता नहीं है, न ही आजके डॉक्टरेट पदवी द्वारा विभूषित ’महान’ कहलाने को आतुर व आग्रही तथाकथित शास्त्रज्ञ हैं. अतः हमारा अपना स्वर भी सर्वसमाही होना चाहिये.
ओबीओ के मंच पर शास्त्रीय छंदों पर उपलब्ध आप जैसे मुख्य स्वरों से कई-कई नवोदितों तथा छंदार्थियों को बहुत-बहुत प्रेरणाएँ और आश्वस्तियाँ मिलती है. अतः, आलेख प्रस्तुतिकरण के क्रम में दायित्व-बोध अवश्य ही संयत और शोधपरक होने की अपेक्षा करता है. हम किसी पुस्तक-विशेष पर या किसी मान्यता-विशेष पर अतिनिर्भर होकर तार्किक न हों.
सादर
स्वागत है आदरणीय सौरभ जी,
//संभवतः आप किसी अतिरेक या विवशता या व्यक्तिगत मान्यताओं को संपुष्ट करने के क्रम में त्रिभंगी छंद : एक परिचय जैसा आलेख ओबीओ के पटल पर प्रस्तुत कर गये हैं. जिस तरह से आपने इस छंद का विधान प्रस्तुत किया है, वह भ्रामक तो है ही अधूरा भी है//
आपका यह सोंचना सही नहीं है अपितु देर रात्रि में संभवतः कॉपी-पेस्ट की गलती से गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित चौपैया छंद से सम्बंधित उदाहरण पेस्ट हो गया था ! जिसे इंगित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद | इसे सुधार दिया गया है |
शेष आप जो कुछ भी कहना चाह रहे हैं वही सब तो ऊपर लिखा है | :-)
सादर
//शेष आप जो कुछ भी कहना चाह रहे हैं वह सब तो ऊपर लिखा ही है//
लगता है, आदरणीय, आपके मूल-पोस्ट में त्रिभंगी विधान से संबंधित एक-दो लाइणा से अधिक जो कुछ लिखा है वह मेरे ब्राउजर में दृश्य नहीं हो रहा है. इसी कारण मुझे इस छंद के विधान से संबंधित सभी आयामों को समाहित करते हुए इतना कुछ लिखना पड़ा है.
अन्यान्य पाठकों से भी सादर निवेदन है कि यदि त्रिभंगी छंद से संबंधित मूल-आलेख में विधान पर एक-दो लाइणा से अधिक उन्हें कुछ विशेष लिखा हुआ दिख रहा है, जो उक्त छंद से संबंधित पहलुओं की व्याख्या करता हो तो वे उस लिखे को मुझसे साझा कर सकते हैं. ताकि मैं स्पष्ट हो सकूँ.
सादर
आदरणीय सौरभ जी,
जब बात कुछ एक पंक्तियों में ही स्पष्ट हो जाय तो मैं नहीं समझता कि बहुत लंबे चौड़े व्याख्यान की आवश्यकता है ! शेष इस पर स्वस्थ चर्चा से स्वतः ही स्पष्ट हो जायेगा क्योंकि हमारे पाठकगण स्वयं समझदार हैं | सादर
//जब बात कुछ एक पंक्तियों में ही स्पष्ट हो जाय तो मैं नहीं समझता कि बहुत लंबे चौड़े व्याख्यान की आवश्यकता है//
लेकिन इसी मंच पर मुझ जैसे कई-कई अकिंचन और मूढ़मति पाठक भी तो हैं, आदरणीय, जो आप जैसे विद्वानों की कुछ पंक्तियों से कितना-कितना भ्रमित हो जाते हैं. और तर्क-वितर्क की अनावश्यक प्रक्रिया शुरु हो जाती है ! विधानों पर विशद और स्पष्ट कह दिये जाने से छंदार्थियों के सामने मात्र रचना संबंधी संदेह हुआ करते हैं जो निवारण के क्रम में विधानों की पंक्तियों के रेफ़ेरेंस मात्र से दूर हो जाया करते हैं.
मुझे नहीं लगता आदरणीय कि कोई भ्रम भी है ! हम अनावश्यक विवाद छोड़कर कोई अन्य सार्थक कार्य करें! सादर
आदरणीय, दोनों पोस्टों , यानि चित्र से काव्य तक छंदोत्सव अंक-22 की सभी रचनाएँ एक साथ तथा छंद त्रिभंगी : एक परिचय पर हो रहा संवाद निरर्थक भी नहीं है, न मेरे पास इतना समय है कि मैं निरर्थक कार्य और संवाद पर अपना इतना समय जाया करूँ. अब बहुत कुछ स्पष्ट हो रहा है.
संभवतः आप ज्ञानी हैं, अतः आपको ऐसी बातें हल्की और निरर्थक लग सकती हैं. लेकिन इस तरह के छंद-प्रस्तुतिकरण से पाठकों का या छंदार्थियों का कितना अ-भला हुआ है, या हो सकता है, इसके प्रति कितना संवेदनशील हैं ?
आपके व्यंग्य अपनी जगह हैं ! करते रहिये ! वस्तुतः मैं कोई ज्ञानी नहीं| न हीं किसी को कुछ सिखा सकने में सक्षम हूँ | बस स्वाध्याय व सत्संग में जो कुछ भी सीखा है उसे परस्पर बाँटने में यकीन अवश्य रखता हूँ
मैं इस संतुलित मंच की मर्यादा को सदैव ही मान दूंगा | सादर
’सीखना-सिखाना’, जोकि इस मंच का उद्येश्य ही है, का आदर्श अनुकरण व इसकी उन्नत परिपाटी अपने आप को आरोपित कर नहीं निभायी जा सकती. इसी तथ्य को हमने उपरोक्त टिप्पणियों के माध्यम से संप्रेषित करने की कोशिश की है.
सादर आग्रह है, अब आप अपनी इस टिप्पणी के परिप्रेक्ष्य में इस पोस्ट पर अपनी सभी टिप्पणियों को एक बार पुनः देख जायँ. तथा, आदरणीय, मंच की मर्यादा को अनुशासित रूप से निभाने के क्रम में ही हम संयत ढंग से प्रश्न करते हैं.
मेरा सदा से मानना रहा है, कि किसी छंद का विधान हो वह व्यक्तिपरक कभी नहीं होता बल्कि शाश्वत नियमानुकूल तथा स्पष्ट होता है, और होना भी चाहिये. इससे इतर कोई तथ्य या तो कुतर्क होता है. या उसका प्रस्तुतिकरण भ्रमकारी होता है.
सादर
यही मैं भी आपसे कहना चाहता हूँ | सादर
हम तो त्रिशंकु हो गए आदरणीय सौरभ जी एवं अम्बरीष जी, त्रिभंगी का एक सूत्र जो आदरणीय अम्बरीष जी ने प्रस्तुत किया है उसके अनुसार ''बत्तिस कल संगी, बने त्रिभंगी, दश-अष्ट अष्ट षट गा-अन्ता" का विधान बनता है (यानि 32 मात्रा में चार बार यति होती है) तब तो यह त्रिभंगी ना होकर चतुर्भंगी हो जाता है (यदि नामकरण तीन यतियों के आधार पर हुआ हो तो) वहीं तुलसीदासजी द्वारा प्रस्तुत त्रिभंगी 10+08+14 के विधान पर चलते हैं (32 मात्रा में तीन बार यति)
यहां हम किस विधान को मानें 10-08-14 के या 10-08-08-06 के कृपया शंका समाधान करें, सादर
आदरणीय राजेश जी, आपका प्रश्न सर्वथा उचित है |
जैसा कि 'त्रिभंगी' छंद नाम से ही स्पष्ट हो रहा है कि इसे १०-८-१४ अर्थात तीन स्थानों पर ही भंग होना चाहिए तथापि यदि यह चार स्थानों पर भंग होता है तो और भी मधुर होता है | 'छंद प्रभाकर' के रचयिता श्री जगन्नाथ प्रसाद भानु ने भी १०-८-८-६ पर यति के अनुसार ही इसका विधान प्रस्तुत किया है |
इसी प्रकार घनाक्षरी छंद में भी यति १६, पन्द्रह पर ही होती है परन्तु यह ८,८,८,७ पर और भी सुंदर बन जाता है | सादर
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