महोदय यह लेख मेरे अपने ब्लॉग अंतर्घट पर प्रकाशित है. मगर क्योंकि एक तो यह लेख तथ्यपरक है और दूसरे यह लेख मेरे आगे के लेखों में भूमिका का कार्य भी करेगा इसलिए आपसे अनुरोध है की इसको प्रकाशित कर दें.
अंतर्घट का अर्थ (अंतर+घट) मतलब शरीर के भीतर वोह स्थान जहाँ ईश्वर का निवास स्थान है. इस विषय में सभी धर्म एक मत है की जिस ईश्वर को हम मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा या गिरजा घर में ढूँढ़ते है वोह भगवान् हमारे ही भीतर अर्थात अंतर्घट में है . और अंतर्घट में वोह किस प्रकार मिलेगा. या उसको पाने के लिए हमे क्या करना होगा इसको शाश्त्रों के आधार पर मै व्याख्या करने की कोशिश अपने गुरु की कृपा से करूँगा .इस सन्दर्भ में मै अपने शीश को अपने उन्ही सतगुरु सर्ब श्री आशुतोष जी महाराज के पावन चरणों में रखते हुए मै प्रार्थना करता हूँ की वे अपनी कृपा मुझ पर निरंतर वनाये रखे.
हमारे शाश्त्र ग्रुन्थ कहते है की ईश्वर किसी जीव पर तीन प्रकार की कृपा करता है . किसी जीव को मनुष्य जनम देकर वोह पहली कृपा करता है. इस विषय में संत तुलसी दास जी कहते है की
बड़े भाग मानुष तन पावा .सुर दुर्लभ सब ग्रुन्थं गावा
इश्वर धाम मोक्ष कर द्वारा .पाई ना जे जन उतारी पारा ,
ते परित्रण क्ल्पई सर धुन धुन पछताई. काल्हि कर्मही ईश्वरही मिथ्या दोष लगाही .
अर्थात मनुष्य तन दुर्लभ है और मोक्ष का द्ववार भी है और जो इस तन को पाकर भी इश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर नहीं होता उसे अंत समय में पछताना पड़ता है और वोह कभी भगवान् को कभी कभी समय को दोषारोपण करता है. मगर दुर्लभ होते हुए भी यह जीवन क्षण भंगुर भी है. कबीर दास कहते है की
पानी कर बुदबुदा अस मानस की जात. देखत ही छिप जायेगा ज्यों तारा प्रभात.
ईश्वरकिसी जीव पर दूसरी कृपा यह करता है की मानव के जीवन में किसी संत का पदार्पण हो जाये. क्यों की ईश्वर की प्राप्ति विना पूर्ण सतगुरु के नहीं हो सकती है. तुलसी दास जी के शब्दों में.
राम सिन्धु सज्जन घन धीरा. चन्दन तरु प्रभु संत समीरा
अर्थात जिस प्रकार समुन्द्र के खारे पानी को वादल पीने योग्य निर्मल वनात है एवं चन्दन की खुशबू को हवा नासिका द्वारा घ्रण करने योग्य वनाती है उसी प्रकार पूर्ण सतगुरु ईश्वर के तेज़ को हमे दिखलाता है शब्दों पर गौर करे दिखलाता है . और हमे हमारे अंतर्घट में परम पिता परमात्मा का दर्शन करवाता है. इस विषय में गीता में भगवान् कृष्ण अर्जुन से कहते है की
ना तू माम शक्य से द्रुष्ट मनु नैव स्व- चक्षु सा दिव्यं ददामि ते चक्षु पश्य्मे योग ऐश्वर्या.
हे अर्जुन तू मुझे अपने भौतिक नेत्रों से नहीं देख सकता है मै तुझे दिव्या नेत्र प्रदान करता हूँ फिर तू मेरे अलौलिक दिव्य रूप का दर्शन कर सकेगा . और जब कृष्ण ने उसे दिव्या नेत्र प्रदान किया तो उसने कहा की हे प्रभु मै अपने दिव्य नेत्रों से करोडो सूर्यों का प्रकाश देख रहा हूँ अर्थात हमे समझना चाहिए की इश्वर प्रकाश रूप में रहता है. हमारे तथा अन्य सभी धर्मों में इश्वर को प्रकाश रूप वताया है.
जैसे वाइविल के अनुसार GOD IS LIGHT कुरआन के हिसाब से नूर अल्लाह नूर का मतलब तेज़ या प्रकाश होता है सिख धर्म के अनुसार भी प्रकाश उत्सव मनाया जाता है चर्च में मंदिर में गुरूद्वारे में सभी जगह प्रकाश के प्रतीक में ज्योति जलाई जाती है और यही प्रकाश जब पूर्ण सतगुरु किसी को दिखाता है तो फिर वोह व्यक्ति इश्वर प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाता है और यही अंतर्घट है
धन्यवाद
आपका मुकेश
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