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आदरणीय काव्य-रसिको !

सादर अभिवादन !!

  

’चित्र से काव्य तक छन्दोत्सव का यह एक सौ सड़सठवाँ योजन है।.   

 

छंद का नाम  -  दोहा छंद  

आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 

17 मई’ 25 दिन शनिवार से

18 मई 25 दिन रविवार तक

केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.  

दोहा छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ क्लिक करें

जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के  भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.

*********************************

आयोजन सम्बन्धी नोट 

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -

17 मई’ 25 दिन शनिवार से 18 मई 25 दिन रविवार तक  रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं। 

अति आवश्यक सूचना :

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  5. आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति संवेदनशीलता आपेक्षित है.
  6. इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.
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सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
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Replies to This Discussion

जलता सूरज जेठ का, खींचे सारा नीर।

एक घूंट से क्या बुझे, तृष्णा है गंभीर।।// वाह. बहुत सुन्दर.. चित्रानुकूल बहुत सुन्दर  सारगर्भित  दोहे...हार्दिक बधाई आदरणीय शिज्जू शकूर जी

आदरणीय प्रतिभा पांडे जी, आपका बहुत बहुत शुक्रिया

आदरणीय शिज्जु शकूर जी

चित्र पर सुंदर दोहे हुए हैं , हार्दिक बधाई।

धूप छांव में यूं भला, बहुत अधिक है फर्क।

शिज़्जू भाई कर रहे, गर्मी में भी तर्क।।

तृष्णा की गंभीरता, क्या समझेगी धूप।

बोतल का है आसरा, कथनी के अनुरूप।।

चार छंद में आपने, लिखा चित्र का मर्म।

बहुत बधाई आपको, सफल हुआ कविकर्म।।

दोहा छंद  

++++++

ग्रीष्म बाद ही मेघ से, रहती सबको आस|

लगातार बरसात हो, मिटे धरा की प्यास|| 

 

झलक दिखा जब मेघ भी, तरसाते दिन रात|

तब सूरज का तेज भी, झुलसाता हर गात||

 

कीमत है हर बूंद की, बोतल में है नीर|

पैसा है तो पीजिए, वरना रहो अधीर||

 

घटिया बोतल में बिके, दूषित गंदा नीर|

फिर भी पीते लोग हैं, बात बड़ी गम्भीर||

 

पंच तत्व से तन बना, उसमें जल है एक|

दूषित जल या जल बिना, मरते जीव अनेक||

 

मेघ कभी ना देखते, सूखा है किस ओर|

उमड़ घुमड़ पहुँचे जहाँ, बारिश हो घनघोर||

 

संचय जल का कीजिए, जब भी हो बरसात|

शासन भी अनुदान दे, देखे  धर्म न जात||

++++++++++++++

मौलिक अप्रकाशित

 

 

   पैसा है तो पीजिए, वरना रहो अधीर||...........वाह ! वाह ! लाख टके की बात कह दी है आपने. वाटर हार्वेस्टिंग जैसे कार्य के लिए शासन पर निर्भर रहे बिना भी धरती को जल समृद्ध बनाए रखने में मदत की जा सकती है. किन्तु जाग्रति का अभाव होने से यह भी नहीं हो पा रहा है. कैसे जल संचित हो. प्रदत्त चित्र पर आपने सुन्दर दोहावली रची है. हार्दिक बधाई स्वीकारें. फिर भी पाँचवें दोहे में द्वितीय चरण के बाद कथ्य की निरंतरता भंग हुई है. सादर 

आदरणीय अशोक भाईजी 

प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद आभार आपका|

सुंदर दोहवली के सृजन पर आपको हार्दिक बधाई अखिलेश जी। वर्षाजल संचय के रूप में एक अचूक उपाय अपनाने पर लिखा दोहा समसामयिक है और प्रासंगिक भी। साथ ही प्याऊ और नलके इत्यादि से जलसेवा की आवश्यकता को इंगित करना भी  भा गया।

एक दो सुझाव हैं:

फिर भी पीते लोग हैं, बात बड़ी गम्भीर// फिर भी जनता पी रही कर सकते हैं

दूषित जल या जल बिना, मरते जीव अनेक// ये पंक्ति अस्पष्ट है। ऐसा लगता है कि जल और दूषित जल दोनों के बिना जीव मर रहे हैं।

आदरणीय अजय भाईजी 

प्रशंसा और सुझाव के लिए हार्दिक धन्यवाद आभार आपका|

आदरणीय अखिलेश श्रीवास्तव सर, नमस्कार, अर्से बाद आपकी रचना से गुज़र रहा हूँ। दिए गए चित्र पर लोगों को सचेत करते अच्छे दोहे हुए हैं। सादर बधाई आपको।

आदरणीय शिज्जू जी   

प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद आभार आपका|

घटिया बोतल में बिके, दूषित गंदा नीर|

फिर भी पीते लोग हैं, बात बड़ी गम्भीर||// जी बहुत सही बात। खाली मिनरल वॉटर की बोतलों में पानी भरकर बेच रहे हैं। 

संचय जल का कीजिए, जब भी हो बरसात|

शासन भी अनुदान दे, देखे  धर्म न जात||//...बहुत सार्थक बात.....

सामयिक सार्थक दोहों के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय अखिलेश जी

 

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