सु्धीजनो !
दिनांक 24 जनवरी 2015 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 45 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी हैं.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए एक विशेष छन्द का चयन किया गया था – रूपमाला छन्द.
कुल 16 रचनाकारों की 20 छान्दसिक रचनाएँ प्रस्तुत हुईं.
एक बात मैं पुनः अवश्य स्पष्ट करना चाहूँगा कि ’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव आयोजन का एक विन्दुवत उद्येश्य है. वह है, छन्दोबद्ध रचनाओं को प्रश्रय दिया जाना ताकि वे आजके माहौल में पुनर्प्रचलित तथा प्रसारित हो सकें. वस्तुतः आयोजन का प्रारूप एक कार्यशाला का है. जबकि आयोजन की रचनाओं के संकलन का उद्येश्य छन्दों पर आवश्यक अभ्यास के उपरान्त की प्रक्रिया तथा संशोधनों को प्रश्रय देने का है.
इस बार की विशेष बात यह रही कि इस मंच की प्रबन्धन-सदस्या आदरणीय डॉ. प्राचीजी की सभी टिप्पणियाँ रूपमाला छन्द में ही निबद्ध थीं. ऐसे प्रयासों से इस मंच के वरिष्ठ एवं कार्यकारिणी-सदस्य आदरणीय अरुण कुमार निगम ही चकित करते रहे हैं.
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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1. आदरणीय सत्यनारायण सिंहजी
रेल पथ पर दौड़ती है, तेज गति से धूप |
मिट गया तम इस धरा से, खिल उठा जग रूप |
लक्ष्य निश्चित रेल पथ का, संग सूनी राह |
देश का हर आज कोना, नापने की चाह |१|
नील अम्बर देख इसको, है चकित सानंद |
यह मिलन औ पिय विरह का, नित रचे नव छंद |
रेल पटरी को सुहाता, आज कानन गोद |
देख इसको नील पर्वत, मानता मन मोद |२|
हौसलों को पस्त करती, है डगर अनजान |
किंतु करती रेल पटरी, देश को गतिमान |
सेज पथरीली पड़ी यह, शांत सहती घात |
मन सँजोए नेक यात्रा, लौह धारी गात |३|
द्वितीय प्रस्तुति
धूप तेवर सह न पायी, आज कोमल घास |
तोड़ती दम घास अपना, छोड़ सारी आस |
यह विधाता की विधा का, जानती हर राज |
भूल कर दुख दर्द सारे, कर रही चुप काज |४|
रेल पथ की है निराली, ख़ास जग पहचान |
देश की उन्मुख प्रगति का, है मिला बहुमान |
मार्ग के हों विघ्न छोटे, या बड़े व्यवधान |
मात सब कर गा रही अब, यह विजय का गान |५| ...(संशोधित )
देश की धमनी कहाती, रेल पटरी आज |
कर रहा है देश सारा, आज इस पर नाज |
लाँघती है देश सीमा, भूल कटुता बैर |
माँगती इंसानियत की, आज रब से खैर |६|
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2. आदरणीय अरुण कुमार निगमजी
एक पटरी सुख कहाती , एक का दुख नाम
किन्तु होती साथ दोनों , सुबह हो या शाम
मिलन इनका दृष्टि-भ्रम है, मत कहो मजबूर
एक ही उद्देश्य इनका , हैं परस्पर दूर
चल रही इन पटरियों पर , जिंदगी की रेल
खेलती विधुना हमेशा , धूप - छैंया खेल
साँस के लाखों मुसाफिर, सफर करते नित्य
जानता आवागमन का कौन है औचित्य
अड़चनों की गिट्टियाँ भी , खूब देतीं साथ
लौह-पथ मजबूत करने , में बँटाती हाथ
भावनाओं में कभी भी , हो नहीं टकराव
सुख मिले या दुख मिले बस, एक-सा हो भाव
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3. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तवजी
सो रही चुप चाप पाँतें, शांति चारों ओर।
खिल गई है धूप देखो, वृक्ष दोनों छोर॥
पाँत चलतीं साथ फिर भी, हैं बहुत मज़बूर
मिल न पातीं ये कभी भी, नियम इतने क्रूर॥ .. (संशोधित)
लौह पथ पर लौह गाड़ी, निकल जाती दूर।
पार करती जंगलों को, शान से भरपूर॥
जब गुजरती धड़धड़ाती, रेलगाड़ी पार।
पाँत के भी दिल धड़कते, काँपती हर बार॥
सामने पर्वत खड़ा है, है खुला आकाश।
बाँह फैलाकर मिले दो, दे रहे आभास॥
भूमि के दो भाग करती, रेल की हर पाँत।
दृश्य सुंदर है मनोहर, स्वर्ग को दे मात॥
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4. आदरणीय गिरिराज भंडारीजी
एक वीराना बिछा सा देख कर इस छोर
रेल की पटरी कभी तू ही मचा दे शोर
सांझ ढल के, रात बनती , रात घट के भोर
किंतु सूनापन न घटता , जो बिछा इस ओर
पटरियाँ क्या दूर जा कर मिल रहीं उस पार
ये न पूछो ! क्या मिले से ही रहेगा प्यार ?
क्यों अधूरा पन लगा जब चल रहीं वे साथ
यह बहुत क्या है नहीं, चाहें , मिला लें हाथ
द्वितीय रचना
रेल की पटरी सहोदर लग रही , है आज
मैं अकेली , वो अकेली बस यही है राज
दूर पर्वत , दूर जंगल, दूर है आकाश
झाँक लेते इस तरफ, किसको बचा अवकाश
गिट्टियों के संग लेटी तुम पड़ी लाचार
साथ मेरे भीड़ चलती, पर चुभें ज्यों खार
चल कहें हम साथ दोनों, आज मन की बात
आ बहा ले, संग आँसू , एक हैं हालात
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5. सौरभ पाण्डेय
मिल सकें संयोग कब था ? वक़्त का था खेल !
कब रहा जीवन सधा जो, हम निभाते मेल ?
कब हुआ संगीत मधुरिम, भिन्न यदि सुर-ताल
सच यही है खेलती है, ज़िन्दग़ी भी चाल !
तुम रही उन्मन प्रिये यदि, मुग्ध-मन उत्सर्ग
मान लूँगा है हमारी, ज़िन्दग़ी भी स्वर्ग ॥
तुम करो कर्तव्य अपने, मैं करूँ निज कर्म
है मिलन अपना क्षितिज पर, प्रेम का यह मर्म !
जो मिला स्वीकार कर लें, अब चलो बढ़ जायँ
कर्मपथ पर हो समर्पित, लक्ष्य अपने पायँ
क्यों न हम ’साधन सहज’ बन, यों जियें व्यवहार
दो पटरियाँ रेल वाली, प्रेरणा-आधार !
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6. आदरणीय अशोक कुमार रक्ताळेजी
पाँत लम्बी कह रही है, चल चलें अब दूर,
देखने को शांत शीतल, पर्वतों का नूर,
जिस जगह पर मेघ उतरे, कर रहे झंकार,
पर्वतों को चूम जी भर, कर रहे हों प्यार ||
एक आशा की किरण सा, पटरियों का रूप,
स्वच्छ मौसम सर्दियों का, गुनगुनी सी धूप,
सौम्य है पर्यावरण भी, स्वास्थ्य के अनुकूल, .. .. . (संशोधित)
देख लो अब हो न जाए, फिर पुरानी भूल ||
द्वितीय प्रस्तुति
राह में बाधा नहीं हम, हैं सरल सी राह |
सोचती हैं वृद्ध पाँते, हैं उन्हें परवाह |
दिल धड़कता है कभी तो, सोच होती भंग |
देखती पाँते गुजरते, वक्त का जब रंग ||
अब सुरक्षित है नहीं वह, क्या दिवस क्या रात |
पाँत अब किससे कहे क्या , हैं जटिल हालात |
गर्म तपता जिस्म रौदे, है उसे हर बार |
कौन सुनता सांवली की, शोर में चित्कार |
है तुम्हारा साथ मुझको, हमसफ़र हमराह |
हो क्षितिज पर ही भले अब, है मिलन की चाह |
बाँट लेंगे बोझ सारे, रह परस्पर साथ
राह पथरीली भले हो, छोड़ना मत हाथ ||
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7. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तवजी
रेल की इन पटरियों में, मूक है सन्देश
राह तो निर्दिष्ट है पर, कौन है वह देश ?
पास में स्टेशन न कोई, जीव है अज्ञात
प्रात है यद्यपि अभी पर, शीघ्र होगी रात
नित्य चलता ही रहूँगा, तब कटेगा पंथ
है सदा व्याख्यान करते, सब यही सद्ग्रंथ
श्रांत जीवन के सफ़र का, भव्य होगा अंत
और स्टेशन भी मिलेगा, एक दिन तो हंत
हाँ कटे मेरा टिकट भी, अब किसी दिन एक
रेलगाड़ी मृत्यु की तू, ला फ़रिश्ते नेक
लाद कर फिर इस अजूबी, जीव का सब भार
इस अगम्य अनंत पथ को, शीघ्र कर दे पार
द्वितीय रचना
विश्व में पहला नहीं यह जाति द्वय का प्यार
है चिरंतन यह हृदय के भाव का उद्गार
क्या करेगी कौम मेरा जान से दे मार
इस तरह से ही सही हो नेह का निस्तार
अर्गलाये हम जगत की आज देंगे तोड़
क्यों न दे हम भी समय की सर्व धारा मोड़
अब नही संभव तुम्हे हे मीत ! पाना छोड़
काश हो मन्जूर मेरे यीशु को जोड़–गठ
रेल की इन पटरियों सा है हमारा प्यार
चल सकेंगे साथ लेकिन है मिलन दुश्वार
मीत क्या सचमुच रहे है आग से हम खेल
छूट जायेगी हमारे प्यार की यह रेल ?
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8. आदरणीय दिनेश कुमारजी
राह तो अपनी जगह है, साथ चलता कौन
जिन्दगी का सच यही है, हर दिशा में मौन .. .. . (संशोधित)
आखिरी मंज़िल न जाने, दूर है या पास
ओ बटोही चल अकेला, रख न जग से आस
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9. आदरणीय योगराज प्रभाकरजी
देखने में लग रही हों, बेहिसो बेजान *
वेदना संवेदना में, ये लगें इंसान
हैं सदा ही साथ रहती, पर सदा ही दूर
आशिक़े नाकाम जैसी, किस कदर मजबूर (1)
बिन चले चलती रहें ये, है ग़ज़ब अंदाज़
हर सफ़र की हर डगर की, हमसफ़र हमराज़
एक दूजे की बगल में, दो दो योगिराज
बेखबर खुद से दिखे ये, बस जगत के काज (2)
.
एक ऊला एक सानी, हैं मगर आज़ाद
ये जुगलबंदी अनूठी, पा रही हैं दाद
काफ़िया व रदीफ़ जैसी, दिलफरेब जमात
शायरी जैसा कलेवर, सोचने की बात (3)
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10. आदरणीय सचिन देवजी
तेज भागती दुनिया को, करती गति प्रदान
मुश्किल राहें सरल करे, मंजिले आसान
सूने जंगल हो चाहे, हो खेत-खलिहान
पटरी की तो होती है, एक ही पहचान
इसकी छाती से गुजरे, देश की हर रेल
नई-दिल्ली शताब्दी हो, या खटारा मेल
पटरी पर जब रेल चले, हो मधुर संगीत
इंजन छेड़े साज और, पटरी गाय गीत
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11. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवालाजी
पटरियों पर रेल चलती,करे छुक छुक शोर,
नापे समूचे देश को, घूमकर चहुँ ओर |
चलती समान अंतर से, रख ह्रदय संतोष,
मिलन देख रहे दूर से, यह तो दृष्टि दोष |
भार झेलती नहीं डरे, दुखी नहीं स्वभाव,
चीरती जंगल पर्वत को, ह्रदय नहीं दुराव|
दो बैलों की जोड़ी सी, चोट सहे ये रेल
मौसम की भी मार सहे,यही जीवन खेल |
धरती माँ की गोद रहे, चले ये दिन रेन
अँधियारे में आस लिए, होती न बेचैन |
गिट्टियों संग जमी रहे, साथ का रख भाव,
हिलमिल रहे ये सीख दे, झेलकर सब घाव |
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12. आदरणीया राजेश कुमारीजी
रेल की दो पटरियां हों, या नदी के छोर
साथ ही चलना इन्हें तो, शाम हो या भोर
एक ही गंतव्य इनका, एक ही है जोग
दूर तन से हों मगर मन, का मधुर संयोग
है बहुत सुनसान, लम्बी, जिन्दगी की राह
हो यही आसान दिल में, यदि तुम्हारे चाह
दुःख सुख स्वीकार करती, कर्म ये निष्काम
घड़घडाती लोह पटरी, ले चले सुख धाम
कर्म पथ पर ही मिलेगा, नेक जीवन अर्थ
गति निरंतर साध अपनी, हो नहीं ये व्यर्थ
बोझ सहकर ही चमकना, पटरियों का कर्म
स्नेह का सद्भावना का, ये सिखाती धर्म
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13. आदरणीय मिथिलेश वामनकरजी
सब सहज कहते इसे पर, मन अटा था द्वंद
किस तरह कैसे बनेगा, रूपमाला छंद ?
चित्र ऐसा किस तरह दे, कल्पना को धार
कुछ न सूझा जिंदगी का, कह दिया व्यवहार
दूर तक फैली हुई इन, पटरियों का खेल
आस ये भी आ रही है, ज़िन्दगी की रेल
बस मियां ठहरो जरा सा, हौसलें के साथ
तेज है रफ़्तार लेकिन, तुम बढ़ाओ हाथ
ये सफ़र कैसा सफ़र जो, है उफक के पार
दूर तक तनहां रहे हम, आँख भर अँधियार
किस तरह मंजिल मिलेगी, सोचती है राह
राह तो उसको मिली है, हो जहाँ पर चाह
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14. आदरणीय चौथमल जैनजी
लोह पथ सी साथ चलती ,जिंदगी की डोर।
दूर तक चलते रहे संग , और कहीं न छोर।
साथ में चलते रहे तो , बज उठेंगे साज।
दूरियाँ बड़ी है गर तो , मौत का आगाज।।
पति और पत्नि हैं कहाते , गृहस्थी का सार।
उनके जीवन की गाड़ी , बच्चों का आधार।
उन्हें प्यारा सा संस्कार , दें बढ़ावें देश।
आपसी तकरार हो तो ,क्या मिले परिवेश।।
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15. आदरणीय लक्ष्मण धामीजी
दूर तक फैले विजन में, बिन मिले दो कूल
अंत भी दिखता न जिनका, और ना ही मूल
ओस जिनकी प्यास हरती, अंग लगती धूल
पीर सह कर बाटते जो, बस हॅसी के फूल
हो नगर जंगल कि पर्वत, झील, नदिया, ताल
हर तरफ फैला हुआ है, खूब इनका जाल
सिर्फ लोगों को नहीं ये, साथ ढोते माल
जोड़ चारों धाम को दें, जिंदगी को चाल
भार ढोते रात - दिन ये, रेल पटरी नाम
देश को उन्नत बनाना, एक ही बस काम
शीत, बारिश, धूप चाहे, कब रहा आराम
मंजिलें पाते सभी चढ , खास हो या आम
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16. आदरणीया वन्दनाजी
दूरगामी पथ सदा वो जो धरे वैराग
फासले भी हैं जरूरी हो भले अनुराग
पटरियां रहती समांतर क्षितिज की है खोज
सह रही घर्षण निरंतर धारती पर ओज
मीत बनकर ये खड़े हैं शीत पावस घाम
पंक्ति पौधों की सुहानी दृश्य मन अभिराम
धडधडाती रेल गुजरे गूँजता जब शोर
पटरियों की ताल पर हों वृक्ष नृत्य विभोर
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आदरणीय सौरभ सर, त्वरित संकलन के लिए हार्दिक आभार एवं सफल आयोजन की हार्दिक बधाई ..
संकलन प्रस्तुति तथा संकलित रचनाओंं की त्रुटिपूर्ण पंक्तियों को चिह्नित करने के प्रयास को अनुमोदित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय मिथिलेश भाईजी.
आदरणीय सौरभ सर, मुझे अपनी प्रस्तुति पर लाल हरा दिखाई नहीं दे रहा है, मन प्रसन्न हुआ ये देखकर. आयोजन में इस दोहे का 'शाब्दिक' अर्थ लागू हो जाता है.
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल
लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल
आपकी ऊर्जा भी प्रणम्य है आदरणीय सौरभ सर इतनी जल्दी यह संकलन तैयार भी हो गया और आयोजन में प्रत्येक टिप्पणी पर आपकी दृष्टि रहती है आभारी हूँ कि आप गुणीजनों के मार्गदर्शन में सीखने को मिल रहा है
हम सभी समवेत ही सीख रहे हैं आदरणीया वन्दनाजी.
जिस द्रुत गति से काम करने को आप हमें ऊर्जस्वी होना कह रही हैं, वह अपनी विवशता भी है. कारण कि कौन जाने हमें समय ही कब मिल पाये ! देखिये न, कई बार आयजनों के संकलन ही नहीं आ पाते और नुकसान आग्रही रचनाकारों / पाठकों का ही होता है जो सुझाव-सलाह की प्रतीक्षा में होते हैं. या अपनी रचनाओं में संशोधनों की अपेक्षा में प्रतीक्षित रहते हैं.
सादर
सुंदर संकलन और सफल आयोजन के लिए बधाई |चित्र पर एक प्रतिक्रिया देने की कोशिश की थी |शायद ये रूपमाला छंद के आस-पास भी नहीं है इसलिए अब लिख रहा हूँ -
समानांतर दूरियों पर सदा
साथ चलने की व्यथा
प्रेम अपुर्णता की लौकिक
शाश्वत प्राचीन कथा
बहारों के बीच लेती विस्तार
उम्मीद मिलन होगा उस पार
पर तय दिशा में जाने की विवशता
लाइनें बदलती रही सदा रस्ता |
आपकी भावनाओं का हम सम्मान करते हैं भाई सोमेशजी.
आपके इन्हीं भावों को शाब्दिक करने के क्रम में शब्दों को प्रदत्त छन्द की विधा की कसौटी पर कसना था. वही छन्द-रचना कहलाती.
छन्दों के विधान तो दिये ही हुए रहते हैं. मनोयोग से एक बार उन्हें पढ़ कर प्रयासरत हो जाइये. सभी ऐसा ही करते हैं.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय सौरभ भाई , संकलन मे रात 2.38 का समय कर देख आपकी लगन और उद्यम को नमन कर रहा हूँ । एक और सफल छंदोत्सव के लिये आपको बहुत बहुत बधाइयाँ ।
आदरणीय गिरिराज भाईजी, आपका प्रोत्साहन कार्यशील रखता है. यह मेरे लिए अच्छा भी है. आदरणीय.
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इस सार्थक और त्वरित संकलन हेतु आप बधाई के पात्र हैं आ० सौरभ जी|आयोजन की सफलता के लिए सभी को हार्दिक बधाई|नेट से जल्दी चले जाने के कारण अपनी रचना पर बधाई का प्रतिउत्तर भी नहीं दे पाई उन सभी का हार्दिक आभार विशेषतः प्रिय प्राची जी को बधाई देना चाहूंगी पूरे आयोजन में इनकी छंद बद्ध प्रतिक्रियाओं ने समां बांधे रखा जो लेखकों के लिए उत्साह और प्रेरणा का स्रोत भी रहा|
आपके कहे से सौ फ़ी सदी सहमत हूँ, आदरणीया राजेश कुमारीजी. आदरणीया प्राचीजी की संलग्नता और उनकी छन्दोबद्ध टिप्पणीयाँ रचनाकारों को प्रोतसाहित कर रही थीं.
लेकिन आपका जाना.. ओह !
अब हम मंच को समय दें. खूब घूम-घाम लिये. वैसे हम तो अब भी घूम ही रहे हैं... हा हा हा हा...
आदरणीय सौरभ भाईजी
छंदोत्सव के के सफल आयोजन , रचनाओं के संकलन और पूरे 48 घंटे लगातार आपके सार्थक सुझावों के लिए हम सभी हृदय से आभारी हैं।
संशोधन हेतु अनुरोध...........
पाँत चलते साथ फिर भी, हैं बड़े मज़बूर। /// पाँत चलती साथ फिर भी, हैं बड़े मज़बूर। कर दीजिए
सादर
एक अनुरोध और
किसी पंक्ति में मात्र एक ही गलती हो [ व्याकरण संबंधी या टंकण त्रुटि या कुछ और ] तो उस शब्द को ही हरा रंग दीजिए। जैसे उपरोक्त छंद में चलते को हरा करने से हर किसी को यह ज्ञात हो जाएगा कि संशोधन की आवश्यकता कहाँ और क्यों है। इससे संशोधन कार्य भी सरल हो जाएगा।
एक आलू हरा या खराब हो जाने पर पूरी बोरी को हरा मानने या अस्वीकार करने की क्या जरूरत ? इससे आपका काम भी बढ़ जाता है और कई बार तो संकलन पश्चात आप से ही पूछना पड़ता है कि क्या और कहाँ संशोधन करना है। कृपया इसे किसी सुझाव के रूप में न लें पर बहुत दिनों से मैं अपनी बात आपसे साझा करना चाहता था।
सादर
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