इं० अम्बरीष श्रीवास्तव
(प्रतियोगिता से अलग)
(१)
'विष्णुपद' छंद
(चार चरण प्रति चरण सोलह, दस
मात्राओं पर यति, चरणान्त में गुरु)
चार चरण का छंद 'विष्णुपद', स्वामी हरि जग़ के|
सोलह दस पर यति है शोभित, अन्तहिं गुरु सबके||
नीर बहे जब भक्ति भाव में, दर्शन मन तरसे|
शीश झुका तब दिखे विष्णु पद, नयन सुधा बरसे||
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(२)
(प्रतियोगिता से अलग)
'कुंडलिया' छंद
(दोहा+रोला)
नैना बरसे नीर बन, दुनिया जो दे दाँव.
चलकर नीचे जा रहे, हैं पानी के पाँव.
हैं पानी के पाँव, पकड़ कर मांगें माफी.
सूख रहे जल स्रोत, सजा इतनी ही काफी.
अम्बरीष ले रोक, हृदय को तब हो चैना.
दिल का धो दें मैल, बरसते जो हैं नैना..
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श्री आलोक सीतापुरी
छंद कुंडलिया
(दोहा +रोला)
पानी राखें प्रेम का, छाये नहीं अकाल|
पानी को ही खोजने , चरण चले पाताल|
चरण चले पाताल, निथारें दूषित जल को|
समझ रहे सब लोग, समस्या के इस हल को|
दिखा रहा आलोक, चरण आचरण निशानी|
जो थे पानीदार, हो रहे पानी पानी||
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श्री अशोक कुमार रक्ताले
विधाता शुध्गा छंद ( गण +गुरु) x ४
न जानू मै, लगा है क्यों,भरा पानी,मुझे प्यारा /
बची बूंदें, यहाँ देखो, गया जाने, कहाँ सारा/
बचा रक्खो,उड़ा ना दो, मिला नाही,किसी तारा/
लगाना है, हमें पानी, बचाने का, यहाँ नारा//
हमें देता, दिखाई जो,वहाँ पे है, नहीं पानी/
यहाँ तो रे, मरू फैला,नही कोई, भरा पानी/
लगाओ दो, हरे पौधे, उतारें जो, धरा पानी/
भरें सीना, मरू का भी,दिखाई दे,वहाँ पानी//
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(२)
डमरू घनाक्षरी ( ३२ वर्ण लघु बिना मात्रा के ८,८,८,८ पर यति)
(दूसरी प्रविष्टि)
पग पग हर पल, कल कल छल छल/
हरषत मन जब, छलकत जलधर/
भर कर रख अब, जल थल दल दल/
डरपत मन भय, सरकत जलधर//
मन डरपत भय, व्यरथ खरच जल/
हरकर मद सब, नयन झरत जल/
करत करम जब, मरम समझ जल/
धरण भरत तब, बरसत जब जल//
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(३)
कृपाण घनाक्षरी
(३२ वर्ण,८,८,८,८ पर यति अंत में
गुरु लघु,पद सानुप्रास)
पग चले साथ साथ, चिन्ह जल के बनात/
धरती पानी की बात, बदले हैं जो हालात/
होती ना है बरसात,पानी भी है तरसात/
सूखा ना दे आघात, जिया मोरा घबरात//
अर्जुन का था वो तीर,सीना धरती का चीर/
धारा निकली थी नीर,हर ली थी भीष्म पीर/
बचे ना अब वो वीर, ना ही धरती में नीर/
सिकुडते सरि तीर, मनवा भी है अधीर//
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श्री रविकर फैजाबादी
कुंडलियाँ (प्रतियोगिता से बाहर )
पावन पादोदक पियो, प्रभु पदचिन्ह प्रभाव ।
प्रथम-पहर प्रचरण प्रचय, पावो प्रग्य सुभाव ।
पावो प्रग्य सुभाव, पारदर्शी दस गोले ।
आयत हैं द्विदेह, गंगधर बोले भोले ।
परजा शील उपाय, ज्ञान सह दशबल वंदन ।
दान वीर्य बल ध्यान, क्षमा प्राणिधि पी पावन ।।
प्रचरण=विचरण
द्विदेह=गणेश
सवैया-
सूखत स्रोत सरोवर नित्य, सहे मन-मीन महा -- बाधा ।
पैर पखारन हेतु मंगावत, भक्त पखाल भरा -- आधा ।
बर्तन एक मंगाय भरा, इक यग्य बड़ा रविकर -- नाधा ।
साइत आकर ठाढ़ भई पद चिन्ह बनाय गए -- पाधा ।।
पखाल=मसक
पाधा=उपाध्याय
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(३)
प्रतियोगिता से अलग
दुर्मिल सवैया
जलबिंदु जमें दस-बारह ठो, कवि वृन्द जमे जलसा जमता |
जलहार खड़ा पद-चिन्ह पड़ा जलकेश जले जल जो कमता ।
जलवाह खफा जलरूह मरे जलमूर्ति दिखे खुद में रमता ।
जलथान घटे जगदादि सुनो जलशायि जगो जड़ जी थमता ।।
जलहार=जल वाहक
जलकेश=सेंवार घास
जलवाह=बादल
जलारूह = कमल
जलथान =जलस्थान
जलमूर्ति = शंकर
जगदादि = ब्रह्मा
जलशायि = विष्णु
जड़ =अचेतन , चेष्टाहीन, मूर्ख
जी = चित्त मन दम संकल्प
(दुर्मिल के रूप में इसे पोस्ट करने के बाद अपनी प्रतिक्रिया में आदरणीय
रविकर जी द्वारा इसे मदिरा सवैया कहा गया है जबकि यह दुर्मिल ही है)
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प्रतियोगिता से बाहर
मदिरा सवैया
तुलसी तमिसा तड़के तटनी तरखा तर की परवाह नहीं ।
तब तामस तापित तृष्णज से तनु-तृप्ति बुझावन चाह रही ।
धिक नश्वर देह सनेह बड़ा, पतनी ढिग दुर्गम दाह सही ।
तन सूख गया झट लौट गए, पग चिन्ह लखे भर आह रही ।।
तमिसा = घना अँधेरा
तरखा = तेज बहाव
ततनी = नदी
तृष्णज = प्यासा, लोभी
(आदरणीय रविकर जी द्वारा इसे मदिरा
सवैया कहा गया है जबकि यह भी दुर्मिल ही है)
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श्री लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी
(१)
भ्रष्ट तंत्र पर दो कुण्डलिया
चुल्लू भर रह गया है अब जल का अस्तित्व
फिर भी डूबें नहीं वे बेशर्मी स्तुत्य
बेशर्मी स्तुत्य नीलकंठी बाना है
करे विश्व विषपान यही मन में ठाना है
सोन-चिरैया उडी बाग़ में बैठे उल्लू
पानी मरा आँख का खाली हो गया चुल्लू
पानी जैसे दिख रहे नेता के पग-चिन्ह
कहिये कैसे लगे हैं ये आपस में भिन्न
नीले-पीले-लाल बदलते रंग ये ऐसे
जितना बड़ा पतीला चम्मच उसके वैसे
देश चलायें भ्रष्ट- तंत्र से जो अज्ञानी
कैसे देखोगे उनकी आँखों में पानी(प्रतियोगिता से बाहर)
दोहे
चरण बने जल देव के, पारदर्शी बेरंग |
पञ्च बूंद है कह रही,पंच तत्व मम अंग||
देव चरण को दे रहे,धन वैभव का मान|
धन वैभव जरुरी नहीं, जल जरुरी है जान||
जहाँ मिले जल के निशाँ,वहाँ बसे संसार|
गांव नगर है बस रहे, सब सरिता के पार||
वसुधा नभ को जोड़ती, वरुण मेघ ले साथ|
अमृत बन वर्षा करे,जल नाथों के नाथ||
प्राणी जीवन साधिए,जीवन है हर बूंद|
पग पग पानी बाँध लो,वरना जीवन धुंद||
जहां नियति है दे रही, दिन रात और साँझ|
वसुधा को नम राखिये,जल बिन होवे बाँझ||
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श्रीमती शन्नो अग्रवाल
(१)
दोहे
''जल की महिमा''
पग-पग जल मिलता रहे, जल जीवन की आस
हरियाली हो हर तरफ, कुदरत लेती साँस l
आँचल फैलाये तके, जब धरती आकाश
जलद बिना ना जल कहीं, भू हो बड़ी निराश l
हांफें मरुथल तपन से, जल जीवन-आधार
कायनात इस बिन नहीं, ये अनुपम उपहार l
बिन इसके बेरंग सब, देह नहीं ना प्राण
भूतल में जब नीर हो, जी उठते पाषाण l
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(२)
कुंडलिया
नदियों के सूखे बदन, झरने बने लकीर
तड़प रहीं हैं मछलियाँ, सूख रहा है नीर
सूख रहा है नीर, पिघलतीं बर्फ शिलायें
करें किफ़ायत सभी, और ना रोज नहायें
‘शन्नो’ जिनके गान, न हम थकते थे गाते
उन नदियों का नीर, भक्त दूषित कर जाते l
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श्रीमती राजेश कुमारी जी
कुंडलिया
(प्रतियोगिता से अलग )
पानी है संजीवनी ,मत करना बरबाद
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श्री धर्मेन्द्र कुमार शर्मादोहे
बूँद बूँद जस आँगुली, घट भर हो तो पाँव
दोहन की इस धूप में, जल भी मांगे छाँव
बहती सरिता में रहा, कल कल करता प्राण
कूड़ा करकट झेल कर, लागे निरी मसाण
दबे पाँव आती रही, चिंतित सी आवाज़
रोग सदा हरती रही, गंगा है नासाज़
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श्री अरुण कुमार निगम जीमदिरा सवैया (सगण x 8)
जल से मनते जलसे सच है पदचिन्ह दिखा जलदेव कहैं ।
जल-स्रोत बचाय रखें कल के प्रति लोग सदैव सचेत रहैं ।
हर बूँद बड़ी अनमोल अमूल्य न व्यर्थ कभी जलधार बहैं ।
यदि भूमि हरी जलहीन हुई मरुताप तपै जगजीव दहैं ।
(आदरणीय रविकर जी द्वारा श्री अरुण निगम जी
की ओर से इसे मदिरा सवैया के रूप में पोस्ट किया गया
है जबकि यह मदिरा सवैया न होकर दुर्मिल सवैया है )
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श्री कुमार गौरव अजीतेंदु
कुण्डलिया
पानी है तो प्राण है, थे पुरखों के बोल।
नवपीढ़ी नहिं जानती, क्या पानी का मोल॥
क्या पानी का मोल, तभी तो दोहन जारी,
जाते जल के पाँव, कुपित हो लेने बारी।
नाचे नंगा पाप, नहीं है दूजा सानी,
नैनों से है लुप्त, भरा है मुख में पानी॥
घनाक्षरी
बगिया बसानेवाले, हरियाली लानेवाले,
फूलों को खिलानेवाले, यही तो चरण हैं।
मरु को मिटानेवाले, प्यास को बुझानेवाले,
जिंदगी बचानेवाले, यही तो चरण हैं।
बड़े शील गुणवाले, परमार्थ धनवाले,
जैसे हों मधु के प्याले, यही तो चरण हैं।
नैनों को सजानेवाले, चित्त को लुभानेवाले,
वचनों के रखवाले, यही तो चरण हैं॥
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श्री लतीफ़ खान
दोहे
[1] जल चरणों के श्लोक यह, जग हित में शुभ-लाभ !
पी कर विष प्रदूषण का, हुआ नीर अमिताभ !!
[2] पाट कर सब ताल कुँए, हम ने की यह भूल !
पानी-पानी हो गई, निज चरणों की धूल !!
[3] कर न पायें दीपक ज्यों, तेल बिना उजियार !
उसी भाँति यह नीर है, जीवन का आधार !!
[4] पिघल-पिघल कर ग्लेशियर, देते नित संकेत !
जल प्रलय अब दूर नहीं, सब जन जाएँ चेत !!
[5] सूरज आग उगल रहा, बढ़ता जाए ताप !
जल बिना यह जीवन है, जैसे इक अभिशाप !!
[6] पानी का क्या मोल है, जाने रेगिस्तान !
जहाँ उसे इक बूँद भी, लागे सुधा समान !!
[7] कहीं बाढ़ सूखा कहीं, कहीं सुनामी ज्वार !
मूर्ख मानव खोल रहा, जल प्रलय के द्वार !!
[8] सागर से बादल बनें, बादल से यह नीर !
जल बिना यह जीवन है, सचमुच टेढ़ी खीर !!
[9] अत्यधिक जल दोहन से, सूख रहे सब स्रोत !
कैसे जल बिन फिर चलें, इस जीवन के पोत !!
[10] नीर बिना जीवन नहीं, बाँधो मन में गाँठ !
जीवन रूपी पुस्तक का, जल ही पहला पाठ !!
[11] धन-दौलत से कीमती, पानी की हर बूँद !
पानी को बरबाद कर, यूँ ना आँखें मूँद !!
[12] जल कहे यह मानव से, नष्ट न करियो मोय !
अपितु मैं जल समाधि बन , नष्ट करूँगा तोय !!
[13] जो मानव जन नित करें, पानी का सम्मान !
उस के जीवन में रहे, सदा मधुर मुस्कान !!
[14] पानी से मत पूछिए, क्या है उस का रंग !
रंग जाए उस रंग में, मिल जाए जिस संग !!
[15] जल जीवन का सार है, परखो जी श्रीमान !
देते हैं सन्देश यही, गीता और क़ुरान !!
[16] स्वार्थ पूर्ति ही न बनें, जीवन का अभिप्राय !
"लतीफ़" हम सब मिल करें , जल रक्षण के उपाय !!
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प्रयुक्त रंगों से तात्पर्य
हरा रंग : मेरी प्रतिक्रिया
नीला रंग : अस्पष्ट भाव / वर्तनी से सम्बंधित त्रुटि /बेमेल शब्द /यथास्थान यति का न होना
लाल रंग : शिल्प दोष
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जी शन्नो जी ओ बी ओ की यही तो खूबी है अपनी कमियाँ पता चलती हैं
हार्दिक आभार आदरेया शन्नो जी :-)
स्वागत है आदरणीय लड़ीवाला जी, आपकी रचना अपनी जगह पर आ गयी है !
वाह !
पहली बार (मेरी जानकारी में) चित्र से काव्य तक आयोजन की रचनाओं को एकत्रित करके लाल हरा नीला रंग का प्रयोग किया गया है
यह मंच की पारदर्शिता, उपादेयता और स्तरीयता का एक और सोपान है जिसके लिए प्रबंधन समिति बधाई पात्र है
हार्दिक बधाई
रंगों का अभिप्राय बता दें तो मुझे भी कुछ समझ आये
धन्यवाद मित्र वीनस जी ! रंगों के अभिप्राय से सम्बंधित जानकारी यथास्थान जोड़ दी गयी है !
आदरणीय अम्बरीषजी, रचनाओं को एक स्थान पर संकलित करना अपने आप में कष्टसाध्य कार्य है. आपकी कोशिश रंग लायी है.
रचनाओं की पंक्तियों को रंग देने से संकलन में रंग आगया है. लेकिन यह भी ध्यान रखने की आवश्यकता है कि विधा-नियमावलियों के समानान्तर नियमों पर कतिपय व्यक्तिगत मान्यताएँ एक जागरुक पाठक के लिये भ्रम का कारण होती हैं. दूसरे, रंग का निहितार्थ दे दिये जाने से त्रुटियों का अर्थ तथा उनकी डिग्री स्पष्ट हो जाती है.
सादर
आदरणीय सौरभ जी, कतिपय व्यक्तिगत मान्यताओं की अपनी जगह है उनका यहाँ पर कोई स्थान होना भी नहीं चाहिए | रंगों के निहितार्थ को यथास्थान जोड़ दिया गया है |
आदरणीय अम्बरीश जी ,
स्वागत है आदरेया डॉ० प्राची जी, इस संकलन को पसंद करने के लिए हार्दिक धन्यवाद !
आभार आदरणीय अम्बरीश जी -
अरुण भाई क्षमा करना -
दुर्मिल को मदिरा कहे, रविकर खुद तो डूब |
अरुण भ्रात को दे डुबा, मदिरा चढ़ती खूब ||
स्वागत है आदरणीय रविकर जी,
मदिरा चढ़ती तेज है, फांस गले में फंद.
डूबे उबरेंगे सभी, रच-रच दुर्मिल छंद..
आवश्यक सूचना:-
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