दिनांक 22 जुलाई 2017 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 75 की समस्त प्रविष्टियाँ
संकलित कर ली गयी हैं.
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ
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१. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवस्तव
कुकुभ छंद [मात्रा 16 - 14 पदांत दो गुरुओं से]
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चीं चीं करती नन्हीं चिड़िया, सोती ना चुप रहती है।
मैया जाने कब आएगी, भूख तनिक ना सहती है॥
बड़े सबेरे माँ जग जाती, लाती है दाना पानी।
पंख उगे मैं भी उड़ जाऊँ, सोच रही चिड़िया रानी॥ .......... (संशोधित)
बंद अंधेरे इन कमरों में, पंछी का दम घुटता है।
मानव घर में रहता कैसे, जीवन कैसे कटता है॥
जान गई है नन्हीं चिड़िया, कुछ दिन ये सब सहना है।
जब तक पंख निकल ना आये, इसी नीड़ में रहना है॥
जाने कौन हिला देता या, स्वयं घोंसला हिलता है।
मुझे छोड़कर माँ जब जाती, तब कुछ डर सा लगता है॥
देव सभी नत माँ चरणों में, कोई क्या महिमा गाये।
कहा न जाये शब्दों में पर, याद सदा माँ की आये॥
दुख सहती बच्चों के खातिर, त्याग स्वयं का सुख सारा।
बड़ी लगन से जिसे बनाया, छोड़ गई वह घर प्यारा॥
मानव सीखो चिड़ियों से जो, बस कर्तव्य निभाती हैं।
घर का मोह न बच्चों का सब, त्याग संत हो जाती हैं॥
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२. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
इन्द्रवज्रा
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रोके हुए दो कड़ियाँ घरौंदा
आलम्ब आधार यही शलाका
ये घोसला रम्य बुना हुआ जो
ताजा नमूना द्विज की कला का
उत्कर्ष उत्थान हुआ अनोखा
आकाश तारे बस में हमारे
पाया बना कौन यहाँ घरौंदा
ढोते रहे हैं हम ईंट गारे
अट्टालिकायें बिखरी हुयी हैं
है विश्वकर्मा-कल-कीर्ति छाई
ऐसा सुहाना घर जो बना दे
शिल्पी न कोई पड़ता दिखाई
है व्योम आच्छादित बादलों से
प्यासी धरित्री, चुप मेघ दानी
है आर्त ये शावक चंचु खोले
देता नही पावस किन्तु पानी
चिंता समेटे ममता कहीं से
आये अभी लेकर अन्न पानी
थोड़ी हुयी देर कहीं यहाँ तो
हारे न ये आतुर जिंदगानी
आशा-निराशा जग की धुरी है
होते यहाँ चालित जीव सारे
आवर्त्त में है तथापि किश्ती
माँ ही करेगी क्षण में किनारे
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३. आदरणीय तस्दीक अहमद खान
(1 ) कुंडली छन्द
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(१ ) दाना लाने के लिए ,चिड़ी गई है दूर
बच्चा ऊपर मुँह किए ,बैठा है मजबूर
बैठा है मजबूर ,भूख से मुँह को खोले
सुनो लगा कर कान ,सिर्फ़ वो चूं चूं बोले
कहे यही तस्दीक़ ,इसे कोई समझाना
कर थोड़ा संतोष ,चिड़ी लाएगी दाना
(२ ) लेकर आए तो सही ,चिड़िया दाने यार
चूज़ा खाने के लिए ,बैठा है तैयार
बैठा है तैयार ,पेट की भूख मिटाने
आई कहाँ परिन्द ,चोंच में लेकर दाने
कहे यही तस्दीक़ ,घोसला चिड़िया का घर
आएगी कर सब्र ,जल्द वो दाना लेकर
(2 ) दोहा छन्द
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(१ ) लगा यही है देख के ,मुझको भी तस्वीर
तन्हा चूज़ा सिर्फ़ है ,चिड़ी नहीं है तीर
(२ ) बैठा मुँह ऊपर किए ,कौन भला है पास
लाएगी दाना चिड़ी, चूज़े को है आस
(३ ) चिड़िया तो है बे ज़ुबा,संग न इसको मार
यह रब की मखलूक़ है ,कर तू इसको प्यार
(४ ) चूज़ा उड़ सकता नहीं ,मंज़र लगे अजीब
ख़ौफ़ सताए क्यूँ नहीं, चिड़िया नहीं क़रीब
(५ ) जिस जा तेरा घोसला ,वहाँ रहे इंसान
उड़ जा ख़तरे में चिड़ी , है चूज़े की जान
(६ ) सिवा घोसले के भला , क्या इनकी जागीर
है बंजारों की तरह , चिड़ियों की तक़दीर
(७ ) देखा जिसने घोसला ,हुआ वही हैरान
चिड़ी गई आख़िर कहाँ ,चूज़ा है अंजान
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४. आदरणीय सतीश मापतपुरी जी
रूपमाला या मदन छंद
24 मात्रायें … 14 / 10 पर यति …. पदान्त गुरु लघु से
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डाल पर छोटा बसेरा , है यही संसार ।
छल कपट लालच न कोई , प्यार ही बस प्यार ।
दाना चुग कर लाती माँ , पालती संतान ।
काम भर दाना उठाती , है नहीं इंसान ।
खग का शावक मुँह खोले , तक रहा आकाश ।
देर माँ क्यों कर रही है , क्या हुआ है खास ।
काश ! होता आदमी के , पास भी संतोष ।
छल नहीं दिल में समाता , होश औ बस जोश ।
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५. आदरणीय बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी
"चातक" (गीतिका छंद)
(2122 2122 2122 212)
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मास सावन की छटा सारी दिशा में छा गयी।
मेघ छाये हैं गगन में यह धरा हर्षित भयी।
देख मेघों को सभी चातक विहग उल्लास में।
बूँद पाने स्वाति की पक्षी हृदय हैं आस में।।
नीर बरखा बूँद का सीधे ग्रहण मुख में करे।
धुन बड़ी पक्की विहग की अन्यथा प्यासा मरे।
एक टक नभ नीड़ से लख धैर्य धारण कर रखे।
खोल के मुख पूर्ण अपना बाट बरखा की लखे।।
धैर्य की प्रतिमूर्ति है यह सीख इससे लें सभी।
प्रीत जिससे है लगी छाँड़ै नहीं उसको कभी।
लक्ष्य पाने की प्रतीक्षा पूर्ण निष्ठा से करें।
चातकों सी धार धीरज दुख धरा के हम हरें।।
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६. आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी
चौपाई छंद [ प्रति चरण 16 मात्रा ]
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चूजा अपने घर का राजा , चिल्लम चीख बजाये बाजा II
कितनी देर लगा दी माँ ने, कब आयेंगे मुँह में दाने II
बच्चे चीख चीख जब रोते, आसमान हैं सर पर ढोतेII
हो चिड़िया का या मानव का, दिल दहला सकते दानव का II
जग में सबसे प्यारा है घर, धरती पर हो या सरियों पर II
साथ हमारे रोता हँसता, चुप रहकर सब बातें करता II
चोंच फाड़ कर चीख रहा है, जीने के गुर सीख रहा है II
जब तक पुष्ट नहीं होते पर, इसकी हद ये तिनकों का घर II
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७. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
दोहे
कुल 24 मात्रा , चार पद , यति 13-11, पदांत - गुरु-लघु
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अपना घर कैसे बने, क्या सबको है ज्ञान
सुघड़ घोसला देख कर, मन मेरा हैरान
शाम हुई लौटी नहीं, माता चारा बीन
क्या सीमा को पार कर, पहुँच गई वो चीन
माँ की याद सता रही, या लगती है भूख
या दोनों ही साथ हैं, कण्ठ रहा है सूख
माता दाना खोजते, मन ही मन घबराय
किसी शिकारी की नज़र, उन पर मत पड़ जाय
मैं उड़ता, माँ बैठती, घर करती आराम
पर मेरे कमज़ोर पर, आये ना कुछ काम
ममता की गहराइयाँ, कौन सका है माप
नहीं ईश के पास भी, ऐसी कोई की नाप
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८. आदरणीय लक्ष्मण धामी जी
दोहावली
1
जित देखो उत खूब है चहुँदिश तरू की भीड़
नहीं सुरक्षित पर लगे क्या शीशम क्या चीड़
पहुँची मानव घर जहाँ दिखी धातु की बीड़
चिड़िया ने कुछ सोच तब वहीं बनाया नीड़
2
फिर सपना जीने लगी तन मन में भर ओज
चूजे जन्मे तो बढ़ी फिर से उसकी खोज
दूर-दूर जाने लगी चुग्गे को वह रोज
जिससे बच्चों को करा सके प्यार से भोज
3
चीं चीं कर कहते मगर बच्चे मन की चाह
आज लगी है मात कुछ हमको भूख अथाह
देगी दाना खोल मुख देखें माँ की राह
माता घर से दूर है नहीं जरा भी थाह
4
बाहर आँधी चील हैं भीतर मानव प्यार
यही सोच उसने रचा घर भीतर संसार
मानव को भी चाहिए उसको रखे दुलार
यही सोच खुद डाल दो अब दाने दो चार
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९. आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी
दोहा छंद
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अजब प्रेम के जाल में,फँसा जीव मजबूर।
गला फाड़कर चीखता,मात गई है दूर।१।
घास फूस का घोंसला,सजा धजा है आज।
चूजा फिर भी चीखता,देखो क्या है राज।२।
एक अकेला घोंसला,चूजा भी है एक।
दाना चोगा छोड़़कर,माँग रहा है केक।३।
मानव तू माना नहीं, कुदरत से की छेड़।
नीड़ बना मम लौह पर,बचा नहीं को पेड़।४।
आम पीपल रहे नहीं,नहीं रहे बड़ नीम।
देख कहाँ है घोंसला,जहाँ लौह का बीम।५।
चीख चीख कर कह रही,नव पीढ़ी ये आज।
पेड़ लगाओ ढेर तुम,धरती के ये साज।६।
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१०. आदरणीया राजेश कुमारी जी
चौपाई छंद
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चूजा ये कितना छोटा है||पर कुछ ज्यादा ही खोटा है||
पल में जगता पल में सोता||भूख लगे तो कितना रोता||
अम्मा दाना ढूँढ रही है ||इसको लेकिन सबर नहीं है||
एक मिनट में करे सियापे|| चोंच खोल कर राग अलापे||
तिनका तिनका है उलझाया|| नीड कहीं जब ये बन पाया||
,जब ये चूजा जग में आया|| माँ का श्रम तब ही फल पाया||
माँ की ममता सबसे न्यारी|| जो इस नन्हें पर बलिहारी||
पंखों में जब दम आएगा|| छोड़ उसे ही उड़ जाएगा||
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११. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी
गीत प्रयास
(आधार:ताटंक छ्न्द, 16,14,अंत गुरु गुरु गुरु)
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जगत नीड़ ये हर पंछी का,पक्का नहीं ठिकाना है
कुछ दिन इसमें कट जाते हैं,छोड़ इसे फिर जाना है
विहग सुवन ने अपनी आँखें,प्रथम बार जब भी खोली
उसे नजर आयी है ममता,और सुनी माँ की बोली
कभी भूख लगती उसको तो,मुख अपना उसने खोला
मिलजाता कभी, नहीं भी मिलता,उसको खाने का गोला
ऐसे उसका शैशव कटता, फिर बचपन को आना है
कुछ दिन इसमें कट जाते हैं,छोड़ इसे फिर जाना है।
ज्योंही पर निकलें पाखी के,उसको उड़ना होता है
तिनका-तिनका चुनकर उससे,नव घर बुनना होता है
फिर उसमें वह रहकर कुछ दिन,परिजन को अपनाता है
उनके लिए फ़र्ज़ जो होते,उन्हें निभाता जाता है
जो जोड़ा था खुद की खातिर,काम न उसके आना है
कुछ दिन इसमें कट जाते हैं,छोड़ इसे फिर जाना है
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१२. आदरणीया सुनन्दा झा जी
छंद - निश्चल
मात्रा भार --(१६,७ पर यति ,पदांत गुरु लघु से )
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बुल औ' बुलबुल इक दूजे से ,करते प्यार ।
चाह रहे थे कहीं बसाना ,इक संसार ।
बरगद ,पीपल ,कहीं नीम की ,मिलती छाँव ।
भूले है यह शहर ,नहीं है ,कोई गाँव ।
जहाँ मकानों की ही दिखती ,उनको भीड़ ।
सोच रहे थे कहाँ बनाएँ ,अपना नीड़ ।
आखिर उनको प्यारा सा मिल ,गया मकान ।
बड़े जतन से किया इकट्ठा ,सब सामान ।
करते खूब प्रेम की दोनों ,अब बरसात ।
प्रेम भरी बुलबुल ने गुल को ,दी सौगात ।
खुश थे तीनों प्रेम भरे थे ,गाते गीत ।
खूब ध्यान रखता था प्यारा ,वो मनमीत ।
पर किस्मत को ख़ुशी नहीं ये ,थी मंजूर ।
फँसा जाल में गुल बुलबुल से ,पहुँचा दूर ।
माँ के कंधे पर था बच्चे, का अब भार ।
दाना लेने जाने को थी ,जब तैयार ।
घर के संकट से वो बिलकुल ,थी अंजान ।
पंखे ने पल भर में ले ली ,उसकी जान ।
छोटा सा चूजा बेचारा ,देखे राह ।
भूख सताती उसे रुलाती ,माँ की चाह ।
चीख चीख कर बुला रहा है ,माँ को पास ।
क्षण क्षण बीते घड़ियाँ बुझती,मन की आस ।
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१३. आदरणीय अजय गुप्ता ’अजेय’ जी
छंद कुण्डलिया ( विन्यास: दोहा+रोला)
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भूख लगे को मांग ले, मुख को अपने खोल
कोई चिचिया कर सका, कोई लेता बोल।।
कोई लेता बोल, किसी को आए रोना
माँ दे चुग्गा-दूध , न बालक भूखे सोना।
सुन क्रंदन का शोर, चिड़ी सब रात जगे
कैसे खाये कौर, बाल को भूख लगे।।
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१४. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी
दोधक छंद
211 211 211 22
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कानन से खग नेह तजा है, मानव के घर नीड सजा है ।
मानव गेह सुरक्षित माना, नीड जना इक बाल सुहाना ।।
मानवता चिड़िया पहचाने, मानव क्यों इससे अनजाने ?
चित्र यही कहता सबसे है, माँ शिशु खैर लहे रबसे है ।।
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सादर धन्यवाद आदरणीय तस्दीक अहमद साहब . ..
आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 75 की सफलता एवं रचनओं के चिन्हित संकलन के लिए हार्दिक बधाई. सादर.
आदरणीय अशोक भाई साहब, आयोजन में आपकी उपस्थिति मेरे लिए आश्वस्ति और विश्वास का कारण हुआ करती है. तीन दिनों से बाहर होने से संकलन प्रस्तुत करने में मुझसे विलम्ब हुआ है. देख लीजिएगा कि क्या पंक्तियाँ सही ढंग से चिह्नित हुई हैं ?
शीघ्रता का परिणाम आश्वस्त नहीं होने देता.. :-))
सादर
आदरणीय सौरभ जी सादर प्रणाम, विलम्ब जैसी तो कोई बात नहीं है. यह चिन्हित संकलन अगले अंक के कार्यक्रम के पूर्व ही आ गया है. अर्थात समय पर ही है, क्योंकि इसका उद्देश्य गलती की पुनरावृति रोकना ही तो है.
आदरणीय डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव साहब के अंतिम इंद्रवज्रा छंद में //आवर्त्त में है तथापि किश्ती//ताराज तारा/ज/गण गुरु गुरु// हो गया है.
आदरणीय सतविन्द्र जी के ताटंक छंद आधारित गीत के प्रथम अंतरे में //मिलजाता कभी, नहीं भी मिलता,उसको खाने का गोला// १८,१४ // मात्राएँ हो रही हैं.
क्षमा चाहूँगा आदरणीया सुनंदा झा जी द्वारा रचित "निश्चल" सम मात्रिक छंद है जिसका आधार १६,७ पर यति के साथ चरणान्त में गुरु लघु है. इस दृष्टि से यह छंद सही लग रहे हैं यह अवश्य है की रचना में साढे पांच छंद हो गए हैं और एक जगह सामंत है . आपने शायद वार्णिक "निश्चल" छंद को आधार ले लिया है. जिसमें भ,त,न,म,त होना आवश्यक है. यदि ऐसा नहीं है तो मैं नहीं समझ पाया हूँ क्या गलती है. सादर.
जी ! आदरणीया सुनंदा झा जी सादर, आपके द्वारा प्रस्तुत 'निश्चल' छंद २३ मात्राओं का सम मात्रिक छंद है. अर्थात इसके प्रत्येक चरण में २३ मात्राएँ होंगी. इस आधार पर १६,७ की यति के साथ दो-दो पंक्तियों के तुक की एक छंद में २३ मात्राओं वाली चार पंक्तियाँ होंगी. मुझे लगता है इतने से आप मेरे साढे पांच कहे का अर्थ समझ सकती हैं. सादर.
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