ग़ज़ल
आईनों से मिले थे बड़ी हसरत में,
हम और कोई निकले शिनाख्त में।
क्या आज फिर शह्र में लहू बरसा है?
अख़बार की सुर्खियाँ हैं दहशत में।
मुफ़लिसी क्या इतनी बुरी चीज़ है? मुफ़लिसी - निर्धनता
आये हैं दोस्त भी मुख़ालफ़त में। मुख़ालफ़त - विरोध
जल्द ही इमारती शह्र उग आएगा,
बो तो दिये गये हैं पत्थर दश्त में। दश्त - जंगल
उसे लगा आस्मां मुझे…
ContinuePosted on July 7, 2013 at 3:30am — 1 Comment
ग़ज़ल
आवारगी के सफ़र में थके-टूटे ये बदन भी,
मंजिलें तो क्या मिलीं, खो गए मसकन भी। मसकन - रिहायाशें, वास
सूरज के माथे पे उभरी देखी एक शिकन भी,
सहरा में उतरे जब कुछ मोम के बदन भी। सहरा - रेगिस्तान
ज़िस्म के अंधे कुँयें से कायनात में निकल,
ज़ेहन नाम का रखा है इसमें एक रौज़न भी। रौज़न - रौशनदान
वो फ़कीर मुतमईन था एक रिदा ही पाकर,
दामन है, ओढ़न-बिछावन है और कफ़न भी। …
ContinuePosted on July 2, 2013 at 12:00am — 11 Comments
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वो फ़कीर मुतमईन था एक रिदा ही पाकर,
दामन है, ओढ़न-बिछावन है और कफ़न भी। kamal hai janab...wah wah aur kya
हाथों के फ़ूल नहीं, छालों भरे तलवे भी देख,
मेरे सफ़र में आये हैं सहरा भी, चमन भी। alfaz nahi hai ,,,,,is sher ke liye
उसका किरदार यूं मेरे लम्हों पर हावी रहा,
मेरी बीवी मुझे लगी माँ भी कहीं बहन भी। bahut hi umda ,,,,,
एक बार बेलिबास किया गया था शह्र में मुझे,
मेरा नंग ढंक न पाये फिर कभी पैराहन भी। पैराहन - वस्त्र
वक़्त ने हादसों के खंज़र जिधर भी फैंके,
कहीं रहा, ज़द में आ ही गया मेरा बदन भी। kya baat hai ,,,mujhe ik sher yaad gaya -----
aur bhi ab bad gayi dushyariya,n mere safar
ki ,,,paththro,n ko dhondhti firti meri kismat
diwani