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लौकी
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‘‘ अरे, सेठजी ! नमस्कार। अच्छा हुआ आप यहीं सब्जी बाजार में मिल गए, मैं तो आपके ही घर जा रहा था। समाचार यह है कि महाराज जी पधारे हैं, उनका कहना है कि इस एरिया में अहिंसा मंदिर का निर्माण कराना है जिसमें आपका सहयोग... ..।‘‘
‘‘ जी बिलकुल ! मेरी ओर से ग्यारह हजार , शाम को आपके पास पहुॅंचा दूॅंगा।‘‘
यह सुनकर, सब्जी का थैला टाॅंगे सेठजी के शिष्यनुमा नौकर से न रहा गया वह बोला,
‘‘सेठजी ! अभी आपने सब्जी की दूकान पर लौकी लेते समय लम्बी बहस के बाद, पूरे बाजार में बीस रुपये प्रति किलो रेट मिल रही लौकी पन्द्रह रुपये में खरीद कर ही साॅंस ली, जबकि इनके एक इशारे पर ग्यारह हजार रुपये दे दिए ?‘‘
‘‘ अरे तू नहीं समझेगा, पाॅंच रुपया अधिक देता तो वह पता नहीं उनका किस प्रकार दुरुपयोग करता , बीड़ी या शराब पीने में लगाता, परन्तु इस प्रकार बचाकर हमने मंदिर के काम में लगा दिया उससे तो सब लोगों का भला ही होगा ?‘‘
‘‘ पर आपने ही तो सिखाया है कि किसी को भी मन, कर्म और वचन से कष्ट पहुँचाना हिंसा कहलाती है। आपने उस किसान को आर्थिक नुकसान पहुॅंचाकर मानसिक कष्ट दिया जो लाभ के लिये नहीं अपनी आजीविका के लिए सब्जी बेचने बाजार में आया है। तो, इस प्रकार हिंसा करके जोड़ा गया धन अहिंसा मंदिर में लगाने पर क्या उसकी पवित्रता खंडित न होगी ? ‘‘
‘‘ अरे! प्रवचन न दे, चल आगे, अभी और बहुत कुछ खरीदना है, तू क्या यह नहीं जानता कि सब्जी उगाने से लेकर बेचने तक की क्रियाओं में किसानों के द्वारा कितने जीवों की हिंसा होती है ? तो क्या सब्जी भाजी खाना छोड़ देना चाहिए ? ‘‘
‘‘ वही तो मैं कह रहा हॅूं कि आप अहिंसा अहिंसा चिल्लाते हैं पर हिंसा से अर्जित भोजन करने से चूकते नहीं । आपकी कथनी और करनी में अन्तर क्यों है, मुझे आपके यहाॅं नौकरी नहीं करना। सम्हालो अपना थैला , मैं तो चला, इस माह के चार दिन का मेरा वेतन भी मेरी ओर से मंदिर को दे देना।‘‘
(मौलिक और अप्रकाशित )
लखूचंद
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एक दिन कालेज के कुछ युवक लखूचंद के सामने ही उसकी जमकर तारीफ कर रहे थे ,
‘‘‘ अरे ये तो लखूचंद के एक हाथ का कमाल है , दोनों हाथ होते तो पूरे जिले में मिठाई के नाम पर केवल इन्हें ही जाना जाता। लेकिन यार , ये तो बताओ कि दूसरा हाथ क्या जन्म से ही ऐसा है या बाद में कुछ हो गया ?‘‘
बहुत दिन बाद लखूचंद को अपनी जवानी के दिन याद आ गए, बोले ,
‘‘ युवावस्था में मैं यों ही बहुत धनवान होने का सपना देखा करता । पिताजी कहते थे कि मैं उनकी हलवाई की दूकान सम्हालूं…
Posted on March 26, 2017 at 11:54am — 1 Comment
‘‘ अरे, सेठजी ! नमस्कार। अच्छा हुआ आप यहीं सब्जी बाजार में मिल गए, मैं तो आपके ही घर जा रहा था। समाचार यह है कि महाराज जी पधारे हैं, उनका कहना है कि इस एरिया में अहिंसा मंदिर का निर्माण कराना है जिसमें आपका सहयोग... ..।‘‘
‘‘ जी बिलकुल ! मेरी ओर से ग्यारह हजार , शाम को आपके पास पहुॅंचा दूॅंगा।‘‘
यह सुनकर, सब्जी का थैला टाॅंगे सेठजी के शिष्यनुमा नौकर से न रहा गया वह बोला,
‘‘सेठजी ! अभी आपने सब्जी की दूकान पर लौकी लेते समय लम्बी बहस के बाद, पूरे बाजार में बीस रुपये प्रति किलो…
Posted on March 6, 2017 at 10:00pm — 12 Comments
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केवल तुम
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मैं बार बार मन ही मन हर्षित सा होता हॅूं,
हर ओर तुम्हारा ही तो अभिनन्दन है।
मन मिलने को आतुर फिर भी कुछ डर है सूनापन है,
हर साॅंस बनाती नव लय पर संगीत अनोखी धड़कन है,
अब तो हर द्वारे आहट पर तेरा ही अवलोकन है,
मैं इसीलिये नवगीत कंठ करता रहता हॅूं
हर शब्द में बस तेरा ही तो आवाहन है।
मन की राह बनाकर इन नैनों के सुमन बिछाये हैं,
मधुर मिलन की आस लिये ये अधर सहज मुस्काये हैं,
हर पल बढ़ते संवेदन…
Posted on November 26, 2016 at 12:45pm — 6 Comments
151 प्रदूषण
जिंदगी जन्म से डूबी थी अश्रुसागर में,
अब तो लहरों के भंवर और भी गहरा रहे हैं!!
सांस की आस ले बाहर की ओर झाॅंका तो,
प्रदूषण की भभक से ही चेतना थर्रा गई।
डूबती उतरा रही नव कल्पनायें भी
घड़कते घड़घडाते घोष से घबरा गई।
विषैले गगनभेदी विकिरणों के दीर्घ ध्वज लहरा रहे हैं!!
स्वार्थी अर्थलोलुप वणिकवृत्ति व्याप्त घर घर में
मनुष्यता हर मनुज से दूर, कोसों दूर पाई।
परस्पर निकटतम संबंध भी दूषित विखंडित,
आत्मीयता, भ्रातृत्व और…
Posted on August 7, 2016 at 3:18pm
आदरणीय डॉ टी आर सुकुल साहब जी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई एवम असीमित शुभकामनायें।
आदरणीय टी आर शुक्ल जी, ओ बी ओ द्वारा आपकी माह की सर्वश्रेष्ठ रचना के चयनित होने पर आपको हार्दिक बधाई।
आदरणीय डॉ. टी. आर. शुक्ल जी.
सादर अभिवादन !
मुझे यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी कविता "कवच और कुंडल" को "महीने की सर्वश्रेष्ठ रचना" सम्मान के रूप मे सम्मानित किया गया है | इस शानदार उपलब्धि पर बधाई स्वीकार करे |
आपको प्रसस्ति पत्र शीघ्र उपलब्ध करा दिया जायेगा, इस निमित कृपया आप अपना पत्राचार का पता व फ़ोन नंबर admin@openbooksonline.com पर उपलब्ध कराना चाहेंगे | मेल उसी आई डी से भेजे जिससे ओ बी ओ सदस्यता प्राप्त की गई हो |
शुभकामनाओं सहित
आपका
गणेश जी "बागी
संस्थापक सह मुख्य प्रबंधक
ओपन बुक्स ऑनलाइन
Your attention is requested sir, towards my poems posted recently.
Respectfully,
Dr TRSukul.
आदरणीय शुक्ल जी,
आपकी १९८५ की कविता पढ़कर आनन्द आया...सुन्दर भाव और शब्द संयोजन।
आपसे ऐसी ही और भी कविताएँ मिलेंगी, यह आशा है।
सादर
विजय निकोर
स्वागत अभिनन्दन
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