वो अलसाया-सा इक दिन
बस अलसाया होता तो कितना अच्छा
जिसकी
थकी-थकी सी संध्या
जो गिरती औंधी-औंधी सी
रक्ताभ हुआ सारा मौसम
ऐसा क्यों है.....
बोलो पंछी?
ऐसा मौसम,
ऐसा आलम
लाल रोष से बादल जिसके
और
पिघलता ह्रदय रात का
अपना भोंडा सिर फैलाकर अन्धकार पागल-सा फिरता
हर एक पहर के
कान खड़े है
सन्नाटे का शोर सुन रहे
ख़ामोशी के होंठ कांपते
कुछ कहने को फूटे कैसे…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 12:30am — 32 Comments
121 - 22 / 121 - 22 / 121 - 22 / 121 – 22 |
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बड़े ही जोरो से इस ज़हन में अज़ब धमाका हुआ फरिश्तो |
फिज़ा में हलचल, हवा में दिल का गुबार छाया हुआ फरिश्तो |
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किसे पड़ी है… |
Added by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2015 at 2:19am — 36 Comments
मेरा जीवन पी गया, तेरी कैसी प्यास । |
पनघट से पूछे नदी, क्यों तोड़ा विश्वास ।१। |
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मन में तम सा छा गया, रात करे फिर शोर। |
दिनकर जो अपना नहीं, क्या संध्या क्या भोर ।२।… |
Added by मिथिलेश वामनकर on January 14, 2015 at 10:30pm — 33 Comments
1 2 2 |
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भला क्या ? |
बुरा क्या ? |
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खुदी से |
मिला क्या… |
Added by मिथिलेश वामनकर on January 11, 2015 at 4:26am — 13 Comments
नयन सखा डरे डरे, प्रमाद से भरे भरे......
सबा चले हजार सू फिज़ा सिहर सिहर उठे
भरी भरी हरित लता खिले खिले सुमन हँसे
चिनार में कनेर में खजूर और ताड़ में
अड़े खड़े पहाड़ पे घने वनों की आड़ में
उदास वन हृदय हुआ उदीप्त मन निशा हरे.............
शज़र शज़र खड़े बड़े करें अजीब मस्तियाँ
विचित्र चाल से चले बड़ी विशेष पंक्तियाँ
सदा कही नहीं मगर दिलो-दिमाग कांपता
मधुर मधुर मृदुल मृदुल प्रियंवदा विचिन्तिता
विचारशील कामना प्रसंग से…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 10, 2015 at 11:30pm — 34 Comments
पति-पत्नी डाइनिंग टेबल पर लंच के लिए बैठे ही थे कि डोरबेल बजी।
पति ने दरवाज़ा खोला तो सामने ड्राइवर बल्लू था। उसने गाड़ी की साफ़-सफाई के लिए चाबी मांगी तो उसे देखकर पति भुनभुनाये :
“आ गए लौट के गाँव से ... जाते समय पेमेंट मांगकर कह गए थे कि साहब, गाँव में बीबी बच्चों का इन्तजाम करके, दो दिन में लौट आऊंगा और दस दिन लगा दिए…”
क्रोधित मालिक के आगे निष्काम और निर्विकार भाव से, स्तब्ध खड़ा ड्रायवर, बस सुनता रहा-
“अब फिर बहाने…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 7, 2015 at 2:54am — 40 Comments
1222 / 1222 / 1222 / 1222
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ग़ज़ल ने यूँ पुकारा है मेरे अल्फाज़, आ जाओ
कफ़स में चीख सी उठती, मेरी परवाज़ आ जाओ
चमन में फूल खिलने को, शज़र से शाख कहती है
बहारों अब रहो मत इस कदर नाराज़ आ जाओ
किसी दिन ज़िन्दगी के पास बैठे, बात हो जाए
खुदी से यार मिलने का करें आगाज़, आ जाओ
भला ये फ़ासलें क्या है, भला ये कुर्बतें क्या है
बताएँगे छुपे क्या-क्या दिलों में राज़, आ जाओ
हमारे बाद फिर महफिल सजा लेना…
Added by मिथिलेश वामनकर on January 3, 2015 at 11:51pm — 61 Comments
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