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ये गठरी!
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ये गठरी!
कब होगी हलकी,
परायों के समानार्थी,
अपनों के कर्ज से छलकी!
मूलाॅंश को पटाने की
योजना बनाई मैंने,
तत्क्षण,
अपनी अपनी व्याज दर बढ़ाई इन्होंने।
जिंदगी की रेलगाड़ी,
कभी पा न सकी पटरी!
कुछ लोग,
सुखपूर्वक जीते हैं,
कर्ज लेकर भी घी पीते हैं!
और,
चुकाने के नाम पर---
देते हैं धमकी!
सुख! क्या है?
क्या पता।
घर! क्या है?
नहीं सकता बता।
किराये की…
Added by Dr T R Sukul on April 25, 2016 at 6:19pm — 6 Comments
प्राणहीन जर्जर जीवन को
अपनाया एकान्त ने।
अपनी अद्भुद्ता की व्यापकता से
मोह लिया ऐसे,
कि अब, वही मेरा सगा है।
बाकी सब ने, मनमाना ठगा है। ।
शून्य को पाकर मैं,
बन गया, मालिक विराट का।
लुटाने को कितना हूँ…
Added by Dr T R Sukul on April 4, 2016 at 4:30pm — 8 Comments
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