ग्रीष्म शुष्क लागत बदन, जागत तन में पीर.
मनुज, पशु, खगवृन्द सभी, खोजत शीतल नीर.
अरुण अनल अति उग्र हैं, तपस लगत चहुओर.
श्वेद बूँद भींगे बदन, अगन लगे अति घोर.
पल-पल बिजली जात हैं, बिजली घर में शोर.
दूरभाष की घंटिका, बजन लगे घनघोर.
कोकिल कूके आम्र तरु, शीतल पवन न शोर.
वृन्द खगन के देखि के, नाचत मन में मोर.
वरुण,इंद्र, विनती सुनौ, बरस घटा घनघोर.
उमरि घुमरि मेघन परखी, नाचत वन में मोर.
मेघ घिरे नभ…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on May 26, 2013 at 5:56am — 8 Comments
मई का महीना, जेठ की दुपहरी
पारा जब चालीस से पैन्तालीश के बीच रहता है
धरती जलती और सूरज तपता है.
एक दिहारी मजदूर बिजली के टावर पर
जूते दस्ताने और हेलमेट पहन
क्या खटाखट चढ़ता है.
सेफ्टी बेल्ट के एक हुक को
ऊपर के पट्टी में फंसाता
दूसरे हुक को खोलता,
ऊपर और ऊपर चढ़ता है
"अरे क्या सूर्य से टकराएगा?
सम्पाती की तरह खुद को झुलसायेगा ?"
वह मुस्कुराता
अपने साथियों को इशारे से…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on May 22, 2013 at 4:30am — 10 Comments
मैं शाम को अपने घर पर बैठा टी वी देख रहा था. टी वी के एक न्यूज़ चैनल पर सामयिक विषयों पर गरमा गरम बहस चल रही थी. तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो गजोधर भाई थे.
मैने कहा – "आइये !"
उन्होंने कहा – "आज यहाँ नहीं बैठूंगा. चलिए कहीं बाहर चलते हैं."
मैंने कहा- "ठीक है चलेंगे. आइये पहले चाय तो पी लें. फिर चलते हैं."
उन्होंने कहा – "चलिए न बाहर ही चाय पीते हैं."
मैं उनके साथ हो लिया. चाय के दुकान जिसमे अक्सर हमलोग बैठकर चाय पीते थे, वहाँ न रुक कर गजोधर भाई के साथ और…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on May 10, 2013 at 4:30am — 10 Comments
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