एक कविता सुनाता हूँ –
“पीडाओं के आकाश से
चरमराती टहनियां
मरुस्थल की आकाश गंगा
की खोज में जाती हैं
धुर दक्षिण में अंटार्कटिक तक
जहाँ जंगलों में तोते सुनते हैं
भूकंप की आहट
और चमगादड़ सूरज को गोद में ले
पेड़ से उछलते है
खेलते है साक्सर
और पाताल की नीहरिकायें
जार –जार रोती हैं
मानो रवीन्द्र संगीत का
सारा भार ढोती हैं
उनके ही कन्धों पर
युग का…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 28, 2015 at 1:30pm — 8 Comments
चकोर सवैया (7 भगण +गुरु लघु ) 23 वर्ण
चाबुक खा कर भी न चला अरुझाय गया सब घोटक साज
अश्व अड़ा पथ बीच खड़ा न मुड़ा न टरा अटका बिन काज
सोच रहा मन में असवार यहाँ इसमे कछु है अब राज
बेदम है यह ग्रीष्म प्रभाव चले जब सद्य मिले जल आज
मत्तगयन्द (मालती) सवैया (7 भगण + 2 गुरु) 23 वर्ण
बीत बसंत गयो जब से सखि तेज प्रभाकर ने हठि…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 21, 2015 at 9:17pm — 5 Comments
प्रथम श्रेणी के रिजर्व कोच में अपनी नव परिणीता पत्नी को लाल जोड़े में लिपटी देखकर भी मैं उस एकांत में बहुत खुश नहीं था I नए जीवन की वह काली सर्द रात जो उस रेलवे कम्पार्टमेंट में थोड़ी देर के लिए मानो ठहर सी गयी थी I मेरे लिए नया सुख, नयी अनुभूति और नया रोमांच लेकर आयी थी I फिर भी मैं उदास, मौन और गंभीर था I ट्रेन की गति के साथ ही सीट के कोने में बैठी वह सहमी-सिकुड़ी, पतली किन्तु स्वस्थ काया धीरे-धीरे हिल रही थी I मैंने एक उचटती निगाह उसकी ओर डाली फिर अपनी वी आई पी अटैची के उस…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 19, 2015 at 6:39pm — 13 Comments
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मॉं तू माने या न माने !
तेरी वाणी-वीणा के स्वर ।
रस-वत्सल के बहते निर्झर ।
मै अबोध तन्मय सुनता था वह सारे कलरव अनजाने ।
मॉं तू माने या न माने !
वह तेरे पायल की रून-झुन ।
मै बेसुध घुंघुरू की धुन सुन ।
मेरे मुग्ध मन:स्थिति की गति अन्तर्यामी ही जाने ।
मॉं तू माने या न माने !
सरगम सा आँखो का पानी ।
तू कच्छपि रागो की रानी ।
इन तारो की ही झंकृति…
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 10, 2015 at 1:03pm — 6 Comments
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