एक कविता सुनाता हूँ –
“पीडाओं के आकाश से
चरमराती टहनियां
मरुस्थल की आकाश गंगा
की खोज में जाती हैं
धुर दक्षिण में अंटार्कटिक तक
जहाँ जंगलों में तोते सुनते हैं
भूकंप की आहट
और चमगादड़ सूरज को गोद में ले
पेड़ से उछलते है
खेलते है साक्सर
और पाताल की नीहरिकायें
जार –जार रोती हैं
मानो रवीन्द्र संगीत का
सारा भार ढोती हैं
उनके ही कन्धों पर
युग का जनतंत्र है
किया मगरमच्छ ने
फिर कोई षड्यंत्र है
समय की पूँछ
अब बन्दर के हाथों में
स्वर्ग से आया था दूत
पिछली बरसातों में
बतला गया था वह
सूनामी आयेगी
नया जीवन लायेगी I”
यह मेरी कविता है
न मानो तो अकविता है
यही है कविता का मर्म
नियम नहीं, धर्म नहीं
बस केवल कर्म
शब्द हों, अपार्थ हो
मिला-जुला स्वार्थ हो
समझ में न आये जो
वीणापाणि चाहें तो
समझा न पायें जो
वह मेरी कविता है
ऊपर गढ़ी है
अक्षरशः कढ़ी है
अर्थ यदि बताओगे
सुविज्ञ कहलाओगे
वर्ना इस समाज में
लतियाये जाओगे
मैंने रचा है
और मेरा मन करता है
इस कविता को
शतशः नमन
माफ़ करना मुझको
मैथिली शरण
क्योंकि
अतुकांत का चरित्र स्वयं एक काव्य है
कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है
.
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आ० मिथिलेश जी
सादर आभार .
आ० समर कबीर जी
सादर आभार .
आ० सौरभ जी
आपके प्रोत्साहन को नमन . सादर
आ० केवल जी
आपका आभार .
बहुत बढ़िया सर,
ये विषय.... सीधा व्यंग्य .... क्या कहूं..... पूरा समर्थन सौ टका
हा हा हा... .
आपके सहज संभाव्य कविपने को नमन.. :-)))))
खूब बढ़िया ! इस खुले व्यंग्य के लिए हार्दिक बधाई..
//पीडाओं के आकाश से
चरमराती टहनियां
उनके ही कन्धों पर
युग का जनतंत्र
फिर कोई षड्यंत्र है
मिला-जुला स्वार्थ
मेरी कविता है
ऊपर गढ़ी
अक्षरशः कढ़ी है
यही है कविता का मर्म
सारा भार ढोती हैं
नया जीवन
अतुकांत का चरित्र स्वयं एक काव्य है
कोई कवि बन जाये सहज संभाव्य है//
.आ0 गोपाल भाई जी--------मेरी समझ में तो यही कविता का प्रारूप है,------सुंदर अभिव्यक्ति के लिये हार्दिक बधाई. सादर
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