बहरे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मक्फूफ़ महज़ूफ़
221 / 2121 / 1221 / 212
बद-हालियों का फिर वही मंज़र है और मैं
इक आज़माइशों का समंदर है और मैं [1]
अरमान दिल के दिल में घुटे जा रहे हैं सब
महरूमियों का एक बवंडर है और मैं…
ContinueAdded by रवि भसीन 'शाहिद' on June 16, 2020 at 11:54am — 17 Comments
ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून महज़ूफ़ मक़तू'अ
2122 / 1212 / 22
ये जो कुछ ख़्वाब पाल बैठे हैं
जान आफ़त में डाल बैठे हैं [1]
दिल से हम को निकाल बैठे हैं
देखिए पुर-मलाल बैठे हैं [2]
कह चुके हैं हमें वो जाने को
फिर भी देखो मजाल बैठे हैं [3]
बढ़ गए आगे सब हुनर वाले
हम यहीं बे-कमाल बैठे हैं [4]
अब ज़रूरत नहीं सलाहों की
हम तो सिक्का उछाल बैठे हैं [5]
मेरे और उनके दरमियाँ जाने
कितने ही माह-ओ-साल बैठे हैं…
Added by रवि भसीन 'शाहिद' on June 8, 2020 at 12:30pm — 13 Comments
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