जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था
बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था
मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था
सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था
उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था
जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी…
Added by Madan Mohan saxena on June 23, 2014 at 1:07pm — 5 Comments
सबकी ऐसे गुजर गयी
हिन्दू देखे ,मुस्लिम देखे इन्सां देख नहीं पाया
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे में आते जाते उम्र गयी
अपना अपना राग लिए सब अपने अपने घेरे में
हर इन्सां की एक कहानी सबकी ऐसे गुजर गयी
अपना हिस्सा पाने को ही सब घर में मशगूल दिखे
इक कोने में माँ दुबकी थी , जब मेरी बहाँ नजर गयी
दुनिया जब मेरी बदली तो बदले बदले यार दिखे
तेरी इकजैसी सच्ची सूरत, दिल में मेरे उतर गयी
मौलिक और अप्रकाशित
मदन मोहन सक्सेना
Added by Madan Mohan saxena on June 13, 2014 at 4:55pm — 7 Comments
इन कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो ऐसा घर बनातें हैं
ना ही रोशनी आये ना खुशबु ही बिखर पाये
हालात देखकर घर की पक्षी भी लजातें हैं
दीबारें ही दीवारें नजर आये घरों में क्यों
पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं
मिलने का चलन यारों ना जानें कब से गुम अब है
टी बी और नेट से ही समय अपना बिताते हैं
ना दिल में ही जगह यारों ना घर में ही जगह यारों
भूले से भी मेहमाँ को ना नहीं घर में टिकाते हैं
अब…
ContinueAdded by Madan Mohan saxena on June 5, 2014 at 3:09pm — 9 Comments
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