इन कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो ऐसा घर बनातें हैं
ना ही रोशनी आये ना खुशबु ही बिखर पाये
हालात देखकर घर की पक्षी भी लजातें हैं
दीबारें ही दीवारें नजर आये घरों में क्यों
पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं
मिलने का चलन यारों ना जानें कब से गुम अब है
टी बी और नेट से ही समय अपना बिताते हैं
ना दिल में ही जगह यारों ना घर में ही जगह यारों
भूले से भी मेहमाँ को ना नहीं घर में टिकाते हैं
अब सन्नाटे के घेरे में जरुरत भर ही आबाजें
घर में दिल की बात दिल में ही यारों अब दबातें हैं
मौलिक और अप्रकाशित
मदन मोहन सक्सेना
Comment
आप सभी का.तहे दिल से आपका शुक्रगुजार हूँ, हार्दिक आभार
कंकरीट के जंगलों में इंसान प्रकृति से कितना दूर हो गया है... एक बनावटी सी ज़िंदगी जिसके चारों और बहुत ऊंची ऊंची दीवारें मन में जीवन में इंसान खुद ही तो बना लेता है..जहां न हवैन आती हैं और आएं भी तो अपने साथ ताजगी नहीं लातीं ...आपसदारी में भी सम्वेदनाएं जैसे मर सी गयी हैं
जीवन शैली में बस्ती जाती सी इन सभी विसंगतियों को सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है
टंकण त्रुटियों के प्रति सचेत रहें
इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकारें आ० मदनमोहन सक्सेना जी
आज के हालातों को बहुत सुंदर शब्द मिले है आपकी रचना में, बधाई आदरणीय
बहुत बढ़िया
बहुत खूब आदरणीय मदनमोहन जी हार्दिक बधाई स्वीकार करें
वर्तमान हालात की सुंदर अभिव्यक्ति, हार्दिक बधाई --क्षमा सहित रचना में कहीं कहीं शब्द 'व' के स्थान पर 'ब ' टंकित हुआ है जो प्रवाह को बाधित करता है … जैसे दीबारें,टी बी, आबाजें-कृपया अन्यथा न लेवें
अब सन्नाटे के घेरे में जरुरत भर ही आबाजें
घर में दिल की बात दिल में ही यारों अब दबातें हैं...................बहुत सही
सादर बधाई
बहुत सही लिखा है .....बधाई आपको |गाँव से ये पलायनवाद क्यों ? इसका उत्तर और समाधान हमारी सरकार के पास है ,कुछ आज के युवा खेती करने में शर्म भी महसूस करते हैं शहर में चाहे छोटी सी तनख्वा में गुजारा करना हो पर खेती नहीं करेंगे ....यदि प्रशासन गाँव में सुख सुविधा
और रोजगार उपलब्ध कराएँ तो ये समस्या कम हो सकती है.
इन कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो ऐसा घर बनातें हैं.....बड़े शहरों में तो एक टुकड़ा आँगन सपना बनकर रह गया है. शहर पाने के लिये हमें कितने बड़े बलिदान से गुज़र रहे हैं.....शुभकामनाएँ
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