आज यों निर्लज्जता सरिता सी बहती जा रही है
द्वेष इर्षा और घृणा ले साथ बढती जा रही है
बिन परों के आसमाँ की सैर के सपने संजोते
पा रहे पंछी नए आयाम सब कुछ खोते खोते
लालसा भी कोयले पर स्वर्ण मढ़ती जा रही है
दिन गए वो खेल के जब खेलते थे सोते सोते
अब गुजरता है लडकपन पुस्तकों का बोझ ढोते
दौड़ है बस होड़ की जो क्या क्या गढ़ती जा रही है
काश के पंछी ही होते लौट आते शाम होते
कोसते भगवान् को…
ContinueAdded by SANDEEP KUMAR PATEL on July 28, 2014 at 1:00am — 3 Comments
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