जल उठा मन का दिया
प्रियतम! मिले हो जब से !
भोर हुयी है जीवन में
तमस रात थी कब से !
सांसो में तेरी ही खुशबु
तुझको पाया जब से !
फूल खिले मन-उपवन में
बीता पतझड़ जब से !
रक्त वाहिनी मद्धम मद्धम
छुआ है तुमने जब से !
जितेन्द्र 'गीत'
मौलिक/अप्रकाशित
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2013 at 5:30pm — 15 Comments
बहुत देर से
धूप ही धूप थी
दूर तक
कोई दरख्त नहीं
जिसकी छाँव तले मै
आ जाऊं !
बहुत दिनों से
कंठ सूखा था
दिनों तक कोई
लहर नहीं
जिसे जी भर मै
पी जाऊं !
कई जेठों से
स्वेद की कितनी बूंदें
माथे छलछलाती थीं
कब शीतल पुरवाई में
समा जाऊं !
आ जाओ
बस आ ही जाओ
मेरी जिन्दगी
छाँव, तृप्ति और श्वास
मेरी तुम !
-जीतेन्द्र…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 20, 2013 at 4:00pm — 29 Comments
"दस हजार रूपये की व्यवस्था कर ले रमेश, मुझे मेरे बच्चो को स्कूल ड्रेस और किताबें दिलानी है"
किशन ने लापरवाही से अपने छोटे भाई रमेश को दवाब देते हुए बोला.
पिछले बड़े कर्जे से अभी अभी निपटा रमेश, अपने साले द्वारा भी की गयी रुपयों की मांग को लेकर परेशान होते हुये बोला "हाँ, ठीक है, मै मालिक से बात करता हूँ." अपने दोस्त लखन के साथ रमेश मालिक के पास पैसे मांगने गया.
मालिक युगल ने अचरज करते हुए पूछा " अरे! तुझे इतनी बड़ी रकम की जरुरत पड गयी? तू अभी तो कर्जे से निपटा…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on July 18, 2013 at 11:30am — 8 Comments
Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 15, 2013 at 9:00pm — 26 Comments
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