2122 2122 2122 212
लड़खड़ाहट चाहता हूँ मैं संभल जाने के बाद
धूप दिल में चुभ रही है दिन निकल जाने के बाद
सबसे पहला शेर था मैं एक ग़ज़ल की सोच का
और खारिज हो गया था लय बदल जाने के बाद
ठोस उस आधार पर लिपटी थी इक चिकनी परत
खुद से शिकवा कर रहे है हम फिसल जाने के बाद
खुश्क आँखों की ज़ुबा को यूँ समझ लो तुम सनम
ख़ाली बरतन जल रहा है सब उबल जाने के बाद
सर छुपाये फिर रहा था रौशनी में दर-ब-दर
चाँद सा खिलने लगा गम शाम ढल जाने के…
Added by मनोज अहसास on August 13, 2015 at 9:30pm — 15 Comments
Added by मनोज अहसास on August 9, 2015 at 10:39pm — 12 Comments
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