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क़ीमत ज़बान की है जहाँ बढ़के जान से
है वास्ता हमारा उसी ख़ानदान से
चढ़ना है गर शिखर पे, रखो पाँव ध्यान से
खाई में जा गिरोगे जो फिसले ढलान से
पल - पल झुलस रही है ज़मीं तापमान से
मुकरे हैं सारे अब्र अब अपनी ज़बान से
काली घटाएँ रास्ता रोकेंगी कब तलक?
निकलेगा आफ़ताब इसी आसमान से
ये दौलतों के ढेर मुबारक तुम्हीं को हों
हम जी रहे हैं अपनी फ़क़ीरी में शान से
क्या-क्या न हमसे छीन…
ContinueAdded by जयनित कुमार मेहता on August 25, 2018 at 11:03am — 8 Comments
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