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क़ीमत ज़बान की है जहाँ बढ़के जान से
है वास्ता हमारा उसी ख़ानदान से
चढ़ना है गर शिखर पे, रखो पाँव ध्यान से
खाई में जा गिरोगे जो फिसले ढलान से
पल - पल झुलस रही है ज़मीं तापमान से
मुकरे हैं सारे अब्र अब अपनी ज़बान से
काली घटाएँ रास्ता रोकेंगी कब तलक?
निकलेगा आफ़ताब इसी आसमान से
ये दौलतों के ढेर मुबारक तुम्हीं को हों
हम जी रहे हैं अपनी फ़क़ीरी में शान से
क्या-क्या न हमसे छीन गयी ये तरक्कियाँ
गुल तो हैं पर है ख़ुशबू नदारद बगान से
छू ली बुलंदियाँ तो ये एहसास "जय" हुआ
कितनी क़रीब है ये ज़मीं आसमान से
(मौलिक व अप्रकाशित)
© जयनित
Comment
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई ! |
आदरणीय जयनीत कुमार मेहता जी सुंदर गजल लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई
भाई जयनित जी, सुंदर गजल हुयी है । हार्दिक बधाई .
यहाँ भी ऐडिट कर दीजिये ।
आदरणीय समर कबीर जी, सादर प्रणाम।
ओबीओ से दूर रहने के दौरान जो कमी खलती रही, वो आज पूरी होती-सी लग रही है। मैं बता नहीं सकता एक लंबे समय से ग़ज़ल का अभ्यास छूटने के बाद किसी नई रचना पर आपकी ऐसी प्रतिक्रिया प्राप्त होना मेरे लिए कितनी ख़ुशी की बात है। आपके सुझाव के अनुसार मैंने मूल प्रति में संशोधन कर लिया है। निरंतर मार्गदर्शन के लिए पुनः कोटि-कोटि धन्यवाद आपको। आपका आशीर्वाद बना रहे, यही कामना करता हूँ।
जनाब जयनित कुमार मेहता जी आदाब, बहुत समय बाद ओबीओ पर आपकी ग़ज़ल पढ़ने का मौक़ा मिला है ।
बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
कुछ बारीक बातें आपके संज्ञान में लाना चाहूँगा ।
'मुकरे हैं सारे अब्र अब अपनी ज़बान से'
इस मिसरे को अगर यूँ कर लें तो लय की दृष्टि से उचित होगा :-
'मुकरे हैं सारे अब्र जो अपनी ज़बान से'
'क्या-क्या न हमसे छीन गयी ये तरक्कियाँ'
इस मिसरे में 'गयी' को " गईं" कर लें ।
'छू ली बुलंदियाँ तो ये एहसास "जय" हुआ'
इस मिसरे में 'छू ली' को "छू लीं" कर लें ।
आदरणीय जयनित जी इस सुंदर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
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