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आदरणीय जयनित जी.
खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.
जनाब समर कबीर साहब ने 'मिट चुके हैं फ़क़त बयानों में' की जगह जो मिसरा सुझाया है उसमे शायद गलती 'मिट' की जगह 'मिल' हो गया है.
उसकी यादों की कूक गूँजे जब
मिश्री घुलती है दिल के कानों में
अगर यादें कूक सकती हैं तो दिल के कान भी हो सकते हैं. मेरे ख़याल से अपने काव्यात्मक तर्क के हिसाब से शेर ठीक है. 'यादों की कूक' 'दिल के कानों में' ही गूँज सकती है हमारे वास्तविक कानों में नहीं .
सादर
अच्छी ग़ज़ल हुई है आ. जयनित जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
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