मूढ़ तू क्या कर सकेगा, अनुभवी जग को पराजित!
है सदा जिसको अगोचर, प्राण की संवेदना भी,
क्यों करे तू उस जगत से प्रेम-पूरित याचना ही,
तू करेगा यत्न सारे भावना का पक्ष लेकर,
किन्तु तेरे भाग्य में होगी सदा आलोचना…
ContinueAdded by अजय कुमार सिंह on September 25, 2013 at 2:00am — 15 Comments
अब न मैं भयभीत तुझसे, मेघ माघी..!!
मैं पड़ी थी,
एक युग से चिर निशा की कालिमा में कैद कल तक,
रश्मि से अनजान, रवि की लालिमा से भी अपरिचित,
दृष्टि में संकोच का संचार, भय से प्राण सिमटे,
दृग झुके से, अश्रु प्लावित, अधर भी अधिकार वंचित,…
Added by अजय कुमार सिंह on September 22, 2013 at 12:33am — 8 Comments
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