बह्र : ११२१ २१२२ ११२१ २१२२
हो ख़ुशी या ग़म या मातम, जो भी है यहीं अभी है
न कहीं है कोई जन्नत, न कहीं ख़ुदा कोई है
जिसे ढो रहे हैं मुफ़लिस है वो पाप उस जनम का
जो किताब कह रही हो वो किताब-ए-गंदगी है
जो है लूटता सभी को वो ख़ुदा को देता हिस्सा
ये कलम नहीं है पागल जो ख़ुदा से लड़ रही है
जहाँ रब को बेचने का, हो बस एक जाति को हक
वो है घर ख़ुदा का या फिर, वो दुकान-ए-बंदगी है
वो सुबूत माँगते हैं, वो…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 15, 2015 at 6:13pm — 10 Comments
इस बार गर्मियाँ तालाब का ढेर सारा पानी पी गईं। मछुआरे से बचते-बचाते धीरे-धीरे मछलियाँ बहुत चालाक हो गईं थीं। वो अब मछुआरे के झाँसे में नहीं आती थीं। उनके दाँत भी काफ़ी तेज़ हो गए थे। अगर कोई मछली कभी फँस भी गई तो जाल के तार काटकर निकल जाती थी। मछुआरे को पता चल गया था कि इस बार उसका पाला अलग तरह की मछलियों से पड़ा है। वो पानी कम होने का ही इंतज़ार कर रहा था।
उसने तालाब के एक कोने में बंसियाँ लगा दीं, दूसरी तरफ जाल लगा दिया और तीसरी तरफ से ख़ुद पानी में उतर कर शोर मचाने लगा। अब…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 10, 2015 at 6:47pm — 2 Comments
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