टुकड़ों टुकड़ों में ही बँटकर जाना पड़ता है
अपनी माटी से जब कटकर जाना पड़ता है
परदेशों में नौकर भर बन जाने की खातिर
लाखों लोगों में से छँटकर जाना पड़ता है
गलती से भी इंटरव्यू में सच न कहूँ, इससे
झूठे उत्तर सारे रटकर जाना पड़ता है
उसकी चौखट में दरवाजा नहीं लगा लेकिन
उसके घर में सबको मिटकर जाना पड़ता है
आलीशान महल है यूँ तो संसद पर इसमें
इंसानों को कितना घटकर जाना पड़ता है
जितना कम…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 26, 2012 at 9:30pm — 11 Comments
बहर : २१२२ १२१२ २२ [इस बहर को ११२२ १२१२ २२ भी लेने की छूट होती है]
मुझसे नज़रें न तू मिलाया कर
की है तौबा न यूँ पिलाया कर
जिस्म उरियाँ हो रूह ढँक जाए
ऐसे कपड़े न तू सिलाया कर…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 21, 2012 at 3:30pm — 6 Comments
बहर : २१२२ ११२२ ११२२ २२
रह गया ठूँठ, कहाँ अब वो शजर बाकी है
अब तो शोलों को ही होनी ये खबर बाकी है
है चुभन तेज बड़ी, रो नहीं सकता फिर भी
मेरी आँखों में कहीं रेत का घर बाकी है
रात कुछ ओस क्या मरुथल में गिरी, अब दिन भर
आँधियाँ आग की कहती हैं कसर बाकी है
तेरी आँखों के समंदर में ही दम टूट गया
पार करना अभी जुल्फों का भँवर बाकी है
तू कहीं खुद भी न मर जाए सनम चाट इसे
आ मेरे पास तेरे लब पे…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 12, 2012 at 2:21pm — 33 Comments
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