हूँ महफ़िलों में तन्हा, खुद की नज़र में रुस्वा
हर एक रंग फीका , हर एक शै फसुर्दा
आवाज़ें दोस्तों की ,मुझ से नहीं हैं गोया
ज़िंदा दिली भी जैसे , करती है मुझ से पर्दा
क्या ग़म है ज़िन्दगी में , तुमको बताऊँ कैसे
अब तक हुआ नहीं है , ये राज़ मुझे पे अफ़्शाँ
उलझन है कैसी दिल की ? उलझन यही है मुझको
रंग ज़िन्दगी से रूठे , दिल भी रंगों से रूठा…
Added by saalim sheikh on December 10, 2014 at 3:30pm — 7 Comments
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