उस दिन जब हम मिले थे
पहली बार
हम चुप रहे
या यूँ कहो बोल ही न सके
और फिर यूँ ही मिलते रहे
तब तक
जब तक तुमने शुरु नही किया
बोलना
हालांकि मैं
बोल न सकी फिर भी
अधर थरथराये जरूर
पर खोल न सकी मुख
पर तुमने जब शुरू किया
तो जाने कहाँ से
शब्दों का समंदर उमड़ पड़ा
और मैं
उसके घात-प्रतिघात के बीच
खाती रहे हिचकोले
मंत्र-मुग्ध, आतुर, विह्वल
मैं जानती…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 30, 2015 at 4:37pm — 4 Comments
निन्यानबे के फेर में
हूँ मैं
लोग देखते है मुझे
ईर्ष्या से या हिकारत से
क्योंकि वे जानते हैं
केवल और केवल एक मुहावरा
मानव की कमजोर वृत्ति का
धन संचय की उत्कट प्रवृत्ति का
उन्हें यह पता ही नहीं कि
मुहावरे के पीछे होता है
कोई चिरंतन सत्य या एक इतिहास
और बहुत सारे मायने
वे सोचते भी नहीं
कि निन्यानबे वे वैशिष्ट्य भी हैं
जिनके आधार पर उस ऊपर वाले के है
निन्यानबे…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 26, 2015 at 12:00pm — 8 Comments
आदम फितरत है
भई
राम ने आसन्न -प्रसूता
को छोड़ दिया वन में
जीने, भटकने या मरने
भला हो वाल्मीकि का --- I
और कुछ ऐसा ही किया
कृष्ण ने राधा के साथ
छोड़ दिया निराश्रित
जीने, भटकने या मरने I
सीता का अंत तो जानते है सभी
इसी माटी में दफ़न हुयी थी कभी
पर राधा ------?
कब तक तकती रही राह ?
भेजती रही पाती और सन्देश
फिर कहाँ गयी वह ?
कैसे हुआ उसका अंत ?
किसी ने भी याद नही रखा
लानत…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 16, 2015 at 7:19pm — 2 Comments
सूने आंगन में जाल बिछा चांदनी रात सोयी रोकर
मेरी अभिलाषा जाग रही रागायित हो पागल होकर
मैं समय काटता रहा विकल
दायें-बायें करवटें बदल
घिर आये मानस-अम्बर पर
स्वर्णिम सपनीले बादल-दल
बौराया घूम रहा मारुत अपनी सब शीतलता खोकर
सपनो में चल घुटनों के बल
सरिता तट पर आया था जब
कह डाला कुछ मन की मैंने
वह बज्र प्रहार हुआ था तब
सायक सा टूटा था अंतस निर्दयता की खाकर ठोकर
यह नाग आँख में है अविरल
छोड़ता निरंतर…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 10, 2015 at 8:30pm — 5 Comments
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