कितने सालों से सुनें
शान्ति - शान्ति का घोष
अपने ही भू- भाग को
खो बैठे , बेहोश
जब दुश्मन आकर खड़ा
द्वार , रास्ता रोक
क्या गुलाम बन कर रहें ?
करें न हम प्रतिरोध
ज्ञान - नेत्र को मूँद लें
खड़ा करें अवरोध
गीता से निज कर्म - पथ
का , कैसै हो बोध ?
ठुकराते ना सन्धि को
कौरव कर उपहास
कुरूक्षेत्र का युद्ध क्यों ?
फिर बनता इतिहास
सोलह कला प्रवीण…
ContinueAdded by Usha Awasthi on June 25, 2020 at 10:30am — No Comments
बड़े-बड़े देखे यहाँ
कुटिल , सोच में खोट
मर्यादा की आड़ ले
दें दूजों को चोट
ऐसे भी देखे यहाँ
सुन्दर, सरल , स्वभाव
यदि सन्मुख हों तो बहे
सरस प्रेम रस भाव
कलियुग इसको ही कहें
चाटुकारिता भाय
तज कर अमृत का कलश
विष-घट रहा सुहाय
गिनें , गिनाएँ , फिर गिनें
नित्य पराए दोष
एक न अपने में दिखे
खो बैठे जब होश
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on June 23, 2020 at 1:00am — 6 Comments
तोड़ कर अनुबन्ध अरि ने
देश पर डाली नज़र
उठा कर अब शस्त्र अपने
भून दो उसका जिगर
छल ,फरेब, असत्य ,धोखे का
करे अभिमान , खल
वह भी अब देखे हमारे
सैनिकों का शौर्य बल
शान्ति,सहआस्तित्व हो, स्थिर
बढ़े जग में अमन
वास्ते इस , धैर्य को समझा
कि हम कायर वतन
जो परायी सम्पदा को
हड़पने , रहता विकल
रौंद दो अहमन्यता
षड़यन्त्र हो उसका विफल
शत्रु को है दण्ड देने…
ContinueAdded by Usha Awasthi on June 21, 2020 at 7:00am — 4 Comments
कहते हैं मानसून अब
देगा बहुत सुकून
कैसे सहेजेगी भला
यह बारिश की बूँद?
ताल-तलैया , झील , नद
चढ़ें , अतिक्रमण भेंट
दोहन होता प्रकृति का
अनुचित हस्तक्षेप
करें बात जो न्याय की
वही कर रहे घात
करनी कथनी से अलग
ज्यों हाथी के दाँत
मौलिक एवंअप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on June 17, 2020 at 12:43pm — 2 Comments
खेल लेने दो इन्हे यह बचपने की उम्र है
गेंद लेकर हाथ में जा दृष्टि गोटी पर टिकी
लक्ष्य का संधान कर , एकाग्रता की उम्र है
खेल.....
गोल घेरे को बना हैं धरा पर बैठे हुए
हाथ में कोड़ा लिए इक,सधे पग धरते हुए
इन्द्रियाँ मन में समाहित, साधना की उम्र है
खेल.....
टोलियों में जो परस्पर आमने और सामने
ज्यों लगे सीमा के रक्षक शस्त्र को हैं तानने
व्यूह रचना कर समर को जीतने की उम्र है
खेल.....
मौलिक…
ContinueAdded by Usha Awasthi on May 27, 2020 at 7:59pm — 6 Comments
आज धरती धन्य है , उसका हृदय प्रमुदित हुआ
स्वच्छ वायु , स्वच्छ जल , पर्यावरण निर्मल हुआ
गर यही स्थिति रही तो संक्रमण मिट जाएगा
यदि पुनः मानव ना अपनी गलतियां दोहराएगा
क्या कभी नभ सर्वदा उज्ज्वल धुला रह पाएगा ?
या कि फिर से धुन्ध का अजगर निगल ले जाएगा
है यही सपना निशा में दमकते नक्षत्र हों
चँहु दिशा पंछी चहकते उपवनों में मस्त हों
शुद्ध हो वातावरण , कैसे ? बड़ों से ज्ञान लें
उनकी अनुभव जन्य ज्ञान मशाल…
ContinueAdded by Usha Awasthi on April 27, 2020 at 7:39pm — 6 Comments
रक्त वर्ण इन पुष्प गुच्छ से
तुमने जो श्रृंगार किया
तपती गर्म दोपहरी को भी
है तुमने रसधार किया
लू के गर्म थपेड़ों से
बच रहने का उपचार किया
नारंगी और पीत रंग के
भावों से मनुहार किया
पथिकों को विश्राम , पंछियों को
आश्रय , उपहार दिया
जिस धरती से अंकुर फूटा
उसका कर्ज़ उतार दिया
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on April 22, 2020 at 12:45pm — No Comments
तर्क यदि दे सको तो
बैठो हमारे सामने
व्यर्थ के उन्माद में , अब
पड़ने की इच्छा नहीं
यदि हमारी संस्कृति को
कह वृथा , ललकारोगे
ऐसे अज्ञानी मनुज से
लड़ने की इच्छा नहीं
सर्व ज्ञानी स्वयं को
औरों को समझें निम्नतर
जिनके हृद कलुषित , है उनको
सुनने की इच्छा नहीं
व्यर्थ के उन्माद में , अब
पड़ने की इच्छा नहीं
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on April 15, 2020 at 8:32pm — 8 Comments
सीख अनर्गल दे रहे , बढ़-चढ़ बारम्बार
हमको भी अधिकार है , करने का प्रतिकार
केवल जिभ्या चल रही , करें न कोई काज
नित्य करें अवमानना , सारी लज्जा त्याग
अस्थिरता फैला रहे , करते व्यर्थ प्रलाप
गिद्ध दृष्टि बस वोट पर , अन्य न कोई बात
जब है विश्व कराहता , बढ़े भयंकर रोग
केवल बस आलोचना , नहीं कोई सहयोग
शान्थि समर्थक को समझ पत्थर , रगड़ें आप
प्रकटेगी शिव रोष की अगनि , भयंकर ताप
उसमें सारा भस्म…
ContinueAdded by Usha Awasthi on April 13, 2020 at 12:08pm — 2 Comments
है मुश्किल आई बड़ी , सारी दुनिया त्रस्त
मिल कर साथ खड़े रहें , कहता है यह वक्त
परमपिता का न्याय तो सबके लिए समान
अरबों के मालिक भले हों कोई श्रीमान
ईश्वर पर विश्वास का व्यर्थ मुलम्मा ओढ़
कर ना भ्रष्टाचार तू , जीवन यह अनमोल
प्रकृति हमें समझा रही , पर हित लें संकल्प
अन्य बचें तब हम बचें , दूजा नहीं विकल्प
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on March 28, 2020 at 5:30pm — 4 Comments
कोई भी भाषा हो , लेकिन
हिन्दी सी भला मिठास कहाँ ?
जो दिल से भाव निकलते हैं
वह कोमल सा अहसास कहाँ ?
है नर्तन मधुर तरंगों सा
अपना ' प्रणाम ' अन्यान्य कहाँ ?
जिससे झंकृत हृद - तार मृदुल
वह सुन्दरता , उल्लास कहाँ
जब बच्चा ' अम्मा , कहकर के
जा , माँ के गले लिपटता है
इस नैसर्गिक उद्बोधन में
अद्भुत आनन्द , हुलास कहाँ ?
कोई भी भाषा हो , लेकिन
हिन्दी सी भला मिठास कहाँ…
ContinueAdded by Usha Awasthi on March 27, 2020 at 9:33am — 10 Comments
कोरोना का संक्रमण सारे देश , जहान
है दुस्साध्य परिस्थिति , मुश्किल में है जान
इस संकट की घड़ी में हमको रहना एक
दृढ़ संकल्पित हों खड़े , भुला सभी मतभेद
सर्व हिताय खड़े हुए डा0 नर्स तमाम
पुलिस महकमे के लिए है आराम हराम
नित सफाई कर्मी करें बिना शिकन के काम
इनके सेवा भाव को शत , शत मेरा प्रणाम
आई है , टल जाएगी , यह जो बड़ी विपत्ति
अनुशासित घर में रहें बिना किसी आपत्ति
सब निरोग , सब हों सुखी , करना यही…
ContinueAdded by Usha Awasthi on March 25, 2020 at 5:32pm — 2 Comments
होरी खेलत कृष्ण मुरारी
वृज बीथिन्ह मँह , अजिर , अटारी
होरी खेलत कृष्ण मुरारी
अबिर , गुलाल मलैं गोपियन कै
लुकैं छिपैं वृज की सब नारी
ढूँढि - ढूँढि रंग - कुंकुम मारैं
घूमि - घूमि गोपी दैं गारी
श्याम सामने रोष दिखावहिं
पाछे मुसकावहिं सब ठाढ़ी
होरी खेलत कृष्ण मुरारी
चिहुँक - चिहुँक राधा पग धारहिं
श्याम पकरि चुनरी रंग डारहिं
विद्युत चाल चपल मनुहारी
लपक - झपक कीन्ही…
ContinueAdded by Usha Awasthi on March 13, 2020 at 1:30pm — 4 Comments
है करता कौन समाज ध्वस्त?
किसने माहौल बिगाड़ा है?
किसकी काली करतूतों से
यह देश धधकता सारा है?
चिल्लाते जो जनतन्त्र-तन्त्र
"जन" को ही बढ़कर मारा है
बरगला "अशिक्षित" लोगों को
शिक्षा से किया किनारा है
है अकरणीय कर्मों के वश
अब शहर सुलगता सारा है
विद्यालय की पवित्र धरण
बनती जा रही अखाड़ा है
विद्वेष भरें अपनों में ही
जनता की दौलत नष्ट करें
लेते बापू का नाम मगर,
हिंसा का बजे नगाड़ा है
वह नहीं…
Added by Usha Awasthi on February 26, 2020 at 8:30am — 2 Comments
कितने ही द्रव्य और निधियाँ,
वह अपने गर्भ संजोती है
पर पल में मानव नष्ट करे
धरणी भी आख़िर रोती है
काटे नित हरे वृक्ष , पर्वत
माँ की काया श्री हीन करे
अपनी ही विपुल संपदा को
वह काँप-काँप कर खोती है
धरणी भी आख़िर रोती है
उसके ही सीने पर चढ़कर
जो भव्य इमारत खड़ी हुईं
उन बोझों से दबकर,थककर
अपनी कराह को ढोती है
धरणी भी आख़िर रोती है
उद्योग और कारखाने
हैं कचरा नदियों में डालें
इनमें घुल गए रसायन में
मारक क्षमता तो…
Added by Usha Awasthi on February 14, 2020 at 4:59pm — 6 Comments
शब्दों का है खेल निराला
आओ हम खिलवाड़ करें
गढ़ आदर्श वाक्य रचनाएँ
क्यों उन पर हम अमल करें ?
दूजों को सीखें देकर, है
उन्हे मार्ग दिखलाएँ हम
निज कर्मों पर ध्यान कौन दे ?
अपना मान बढ़ाएँ हम
अपने घर का कूड़ा करकट
अन्यों के घर में डालें
बन नायक अभियान स्वच्छता
अपना अभिमत ही पालें
सरिया ,गारा , मिट्टी , गिट्टी
ढेर लगाएँ राहों पर
चलें फावड़े , टूट-फूट का दोष
धर रहे निगमों…
ContinueAdded by Usha Awasthi on January 28, 2020 at 6:14pm — 2 Comments
चलो, विश्वास भरें
गया पुरातन वर्ष
नवीन विचार करें
आपस के सब मनमुटाव कर दूर
चलो, विश्वास भरें
बैर भाव से हुए प्रदूषित
जो मन, बुद्धि , धारणाएँ
ज्ञानाग्नि से , सर्व कलुष कर दग्ध
सभी संत्रास हरें
आपस के सब मनमुटाव कर दूर
चलो, विश्वास भरें
है अनेकता में सुन्दर एकत्व
उसे अनुभूति करें
कर संशय, भ्रम दूर
नेह, सतभाव वरें
आपस के सब मनमुटाव कर दूर
चलो,…
ContinueAdded by Usha Awasthi on January 1, 2020 at 9:12pm — 5 Comments
ये आसमां धुआँ-धुआँ क्यों है?
सुबू शाम बुझा-बुझा क्यों है?
इन्सां बाहर निकलने से डर रहा है
बीमारियों की फ़िज़ा क्यों है?
यह सारा किया उसी ने है
ज़हर फैलाया उसी ने है
बेजान इमारतों के ख़ातिर
वृक्षों को गिराया उसी ने है
कितने अपशिष्ट जलाए उसने?
कितने कारखाने चलाए उसने?
क्या उसे नहीं पता ?
इतनी बद्दुआएँ क्यों हैं?
ये आसमां धुआँ-धुआँ क्यों है?
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on November 21, 2019 at 11:30am — 3 Comments
किस्से हैं , कहानी है
दुनिया अनजानी है
कोई कब आएगा ?
कोई कब जाएगा ?
कौन जानता भला ?
केवल रवानी है
किस्से हैं - -
अभी तो यहीं था
कैसे चला गया ?
बार-बार दोहराती
बात पुरानी है
किस्से हैं - -
ख़ाली ही आया धा
ख़ाली विदा हुआ
बार -बार पाने की
ज़िद , दीवानी है
किस्से हैं - -
निर्मोही देह में
मोह पोसा गया
पाया न मनभाया
नित- नित कोसा गया
फिर…
ContinueAdded by Usha Awasthi on October 12, 2019 at 9:00pm — 2 Comments
करो कितना विवेचन
शैलियों , पांडित्य का, लेकिन
भावों के धरातल पर ही
गौतम बुद्ध बनते हैं
हुए तर्कों , वितर्कों से परे
वे शुद्ध हो गए
प्रकृति के सब प्रपंचों से
निरुद्ध , प्रबुद्ध हो गए
जो खेलें दूसरों की गरिमा से
उन्मत्त होते हैं
सदा जो प्रेम से भरपूर
वे ही सन्त होते हैं
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Usha Awasthi on September 18, 2019 at 10:30pm — 1 Comment
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