वक़्ते-पैदाइश पे यूं
मेरा कोई मज़हब नहीं था
अगर था मैं,
फ़क़त इंसान था, इक रौशनी था
बनाया मैं गया मज़हब का दीवाना
कि ज़ुल्मत से भरा इंसानियत से हो के बेगाना
मुझे फिर फिर जनाया क्यूँ
कि मुझको क्यूँ बनाया यूं
पहनकर इक जनेऊ मैं बिरहमन हो गया यारो
हुआ खतना, पढ़ा कलमा, मुसलमिन हो गया यारों
कहा सबने कि मज़हब लिक्ख
दिया किरपान बन गया सिक्ख
कि बस ऐसे धरम की खाल को
मज़हब के कच्चे माल को…
Added by मिथिलेश वामनकर on December 3, 2014 at 2:00am — 22 Comments
2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122, 2122
रात की काली सियाही जिंदगी में छा गई तो आप ही बतलाइये हम क्या करेंगे
चार दिन की चांदनी जब आदमी को भा गई तो आप ही समझाइये हम क्या करेंगे
जन्नतों के ख्वाब सारे टूटकर बिखरे हुए है, बस फ़रिश्ते रो रहे इस बेबसी को
दो जहाँ के सब उजालें तीरगी जो खा गई तो आप ही फरमाइये हम क्या करेंगे…
Added by मिथिलेश वामनकर on November 29, 2014 at 10:30pm — 21 Comments
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