For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

2212 /1212 /2212 /12

क्या आरज़ू थी दिल तेरी और क्या नसीब है

चाहा था  टूट कर  जिसे वो अब  रक़ीब  है।

पलकों की छाँव थी जहाँ है ग़म की धूप अब

वो  भी   मेरा  नसीब  था  ये  भी  नसीब  है।

ऐसे  बदल   गये   मेरे   हालात   क्या   कहूँ

अब  चारा-गर  कोई  न  ही  कोई  तबीब है। 

कैसे  मिले  ख़ुशी  हों  भला  दूर  कैसे  ग़म

मुश्किल  कुशा  के  साथ वो  मेरा रक़ीब है।

उसने  बड़े  ही  प्यार  से  बर्बाद  कर   दिया

अपनी तबाही का  भी ये क़िस्सा अजीब है। 

वो भी उजड़  ही जाएगा इक दिन मेरी तरह

लूटा  बता  के  जिस ने  के  मेरा  हबीब  है। 

क्या  रह  गया 'अमीर' अब उजड़े  दयार  में

मैं  हूँ   ख़ला  है  यास  है  मंज़र   मुहीब  है। 

"मौलिक व अप्रकाशित"

Views: 813

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on August 25, 2020 at 9:54pm

जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी आदाब, आदरणीय सबसे पहले आपकी टिप्पणी न देख पाने के लिए माज़रत ख़्वाह हूँ। आदरणीय ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया अदा करताा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आइंदा भी आपकी नवाज़िश क़ायम रहेगी। सादर। 

Comment by नाथ सोनांचली on July 11, 2020 at 12:45pm

आद0 अमीरुद्दीन साहिब सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कहे आप। इसपर आदरणीय समर साहब की इस्लाह और आपकी चर्चा भी ज्ञानप्रद है। बधाई स्वीकार कीजिये इस बेहतरीन ग़ज़ल पर।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 7, 2020 at 12:17pm

जनाब सालिक गणवीर जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये दिल से शुक्रिया। 

Comment by सालिक गणवीर on July 7, 2020 at 7:09am

जनाब अमीरूद्दीन 'अमीर' साहिब

आदाब

बेहद उम्दा ग़ज़ल के लिए दाद और मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँँ.

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 5, 2020 at 1:22am

मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब, आदाब।

ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी, इस्लाह और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया।

//'चाहा था टूट कर जिसे वो अब रक़ीब है'

'रक़ीब' को चाहा नहीं जाता,बल्कि 'रक़ीब' को यूँ समझें कि एक शख़्स के दो चाहने वाले एक दूसरे के रक़ीब होते हैं,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:

'समझा था जिसको यार वो मेरा रक़ीब है' 

मैं आपकी बात से सौ फीसदी मुत्तफ़िक़ हूँ मगर जनाब यहाँ भाव यह है कि पहले यक़ीनन वो मेरा हक़ीक़ी महबूब ही था वो (जो) अब रक़ीब (बन गया) है। 

मुहतरम आपका तजवीज़ शुदा मिसरा भी कमाल है मगर भाव बदल रहा है, इसलिए माफ़ी चाहता हूँ। 

//'लूटा था  जिस ने कह के वो  मेरा  हबीब है'

इस मिसरे में 'कह के' शब्द भर्ती का है,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-

'लूटा है जिसने मुझको वो मेरा हबीब है' // जनाब इस तजवीज़ पर फ़ौरन अमल करता हूँ। दीगर मालूमात के लिए भी बहुत बहुत शुक्रिया। 

मुहतरम, पारिवारिक कारणों से ओ बी ओ से दूर रह कर भी फोन पर बात करने की इजाज़त देकर बड़ी महरबानी की है, बहुत ज़रूरी होने पर ही आपको तकलीफ़ दी जायेगी, हम दुआ और उम्मीद करते हैं कि फ़राग़त के बाद आप तरही मुशाइर: के इलावा भी जल्द ही ओ बी ओ पर जल्वा अफ़रोज़ होंगे। सादर। 

Comment by Samar kabeer on July 4, 2020 at 12:38pm

जनाब अमीरुद्दीन 'अमीर' जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

'चाहा था  टूट कर  जिसे वो अब  रक़ीब  है'

'रक़ीब' को चाहा नहीं जाता,बल्कि 'रक़ीब' को यूँ समझें कि एक शख़्स के दो चाहने वाले एक दूसरे के रक़ीब होते हैं,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-

'समझा था जिसको यार वो मेरा रक़ीब है'

'लूटा था  जिस ने कह के वो  मेरा  हबीब है'

इस मिसरे में 'कह के' शब्द भर्ती का है,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-

'लूटा है जिसने मुझको वो मेरा हबीब है' 

'क्या  रह  गया 'अमीर' अब उजड़े  दयार  में'

इस मिसरे में आपकी जानकारी के लिए बता रहा हूँ कि सहीह शब्द "दियार" है ।

पारिवारिक कारणों से कुछ दिन ओबीओ पर हाज़िर नहीं हो सकूँगा,सिर्फ़ तरही मुशाइर: में शिर्कत होगी,अगर आपको कहीं मेरी ज़रूरत महसूस हो तो फ़ोन पर सम्पर्क कर लें ।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 3, 2020 at 5:59pm

जनाब रूपम कुमार 'मीत' जी, ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये बहुत बहुत शुक्रिया। 

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 3, 2020 at 3:36pm

जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया।

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on July 3, 2020 at 3:35pm

मुहतरम जनाब रवि भसीन 'शाहिद' साहिब, आदाब।

ग़ज़ल पर आपकी हाज़िरी, दाद, और हौसला अफ़ज़ाई के लिये तहे-दिल से शुक्रिया। प्री क्वालीफाई हुआ, अब मेन की बारी। 

उस्ताद मुहतरम की नज़र ए मुबारक और कमेंट्स का शिद्दत से मुंतज़िर हूँ। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2020 at 6:47am

आ. भाई अमीरूद्दीन जी, सादर अभिवादन । अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय तस्दीक अहमद जी आदाब, बहुत सुंदर ग़ज़ल हुई है बहुत बधाई।"
4 hours ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"लक्ष्मण धामी जी अभिवादन, ग़ज़ल की मुबारकबाद स्वीकार कीजिए।"
4 hours ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय दयाराम जी, मतले के ऊला में खुशबू और हवा से संबंधित लिंग की जानकारी देकर गलतियों की तरफ़…"
4 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी, तरही मिसरे पर बहुत सुंदर प्रयास है। शेर नं. 2 के सानी में गया शब्द दो…"
6 hours ago
Gajendra shrotriya replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"इस लकीर के फकीर को क्षमा करें आदरणीय🙏 आगे कभी भी इस प्रकार की गलती नहीं होगी🙏"
6 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय रिचा यादव जी, आपने रचना जो पोस्ट की है। वह तरही मिसरा ऐन वक्त बदला गया था जिसमें आपका कोई…"
6 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय मनजीत कौर जी, मतले के ऊला में खुशबू, उसकी, हवा, आदि शब्द स्त्री लिंग है। इनके साथ आ गया…"
6 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आपकी ग़जल इस बार कुछ कमजोर महसूस हो रही है। हो सकता है मैं गलत हूँ पर आप…"
7 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, बुरा मत मानियेगा। मै तो आपके सामने नाचीज हूँ। पर आपकी ग़ज़ल में मुझे बह्र व…"
7 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय महेन्द्र कुमार जी, अति सुंदर सृजन के लिए बधाई स्वीकार करें।"
7 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आ. भाई तस्दीक अहमद जी, सादर अभिवादन। लम्बे समय बाद आपकी उपस्थिति सुखद है। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक…"
7 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"ग़ज़ल 221, 2121, 1221, 212 इस बार रोशनी का मज़ा याद आगया उपहार कीमती का पता याद आगया अब मूर्ति…"
7 hours ago

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service