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ग़ज़ल: मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है

1212 1122 1212 22/112


मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है
मगर सँभल के रह-ए-ज़ीस्त से गुज़रना है

मैं देखता हूँ तुझे भी वो सब दिखाई दे
मुझे कभी न कोई ऐसा शग्ल करना है

नज़ारा कोई दिखा दे ये शब तो वक्त कटे
इसी के साथ सहर होने तक ठहरना है

न जाने कितने मराहिल हैं ज़ह'न में मेरे
कोई ये काश बता दे कहाँ उतरना है

ये दिल भी देखता है बारहा वही सपने
ज़मीं पे आके बिल-आखिर जिन्हें बिखरना है

उन्हें उजालों से तकलीफ़ होती है ऐ दोस्त
जिन्हें अँधेरों से अपना जहान भरना है

उन्हें चमन से न फूलों से है कोई रग़बत
मगर मुझे यूँ न सहराओं में विचरना है

- मौलिक, अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" 2 hours ago


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Comment by शिज्जु "शकूर" 2 hours ago

आदरणीय सुशील सरना जी उत्सावर्धक शब्दों के लिए आपका बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" 2 hours ago

आदरणीय निलेश भाई,
ग़ज़ल को समय देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया। आपके फोन का इंतज़ार है।


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Comment by शिज्जु "शकूर" 2 hours ago

मोहतरम अमीरुद्दीन अमीर 'बागपतवी' साहिब बहुत शुक्रिया। उस शे'र में 'उतरना' शब्द ख़ास मक़सद से लिया था। बहरहाल, तरमीम कर लिया है, गौर फरमाइएगा‌
//न जाने कितने मराहिल हैं ज़ह'न में मेरे
मैं उलझनों में हूँ मुझको कहाँ ठहरना है//

/उन्हें उजालों से तकलीफ़ हो रही होगी/
सुझाव अच्छा है, मगर माजरत चाहूँगा। यहाँ आपका ख़याल कारण और परिणाम की ओर इशारा कर रहा है और मैं मानसिकता पर बात कर रहा हूँ, इसलिए मैं यहाँ तरमीम नहीं कर रहा। अलबत्ता आपका सुझाव संभालकर रख रहा हूँ। आगे अवश्य काम आएगा।

/मगर किसी का यहाँ इंतज़ार करना है/
आपका सुझाव अच्छा है, शुक्रिया। मगर माजरत चाहूँगा, यहाँ भी आपके और मेरे ख़याल मुख़्तलिफ़ हैं। यहाँ भी मैंने मानसिकता और दृष्टिकोण की बात की है। इसलिए शे'र में आदरणीय सौरभ सर के सुझावानुसार थोड़ा बदलाव किया है।
/उन्हें चमन से न फूलों से है कोई रग़बत
मगर मुझे न यूँ सहराओं में विचरना है/


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Comment by शिज्जु "शकूर" 2 hours ago

आदरणीय सौरभ सर,
ग़ज़ल पर विस्तृत टिप्पणी एवं सुझावों के लिए हार्दिक आभार। आपकी प्रतिक्रिया हमेशा उत्साहित करती है। आपने जिस मिसरे को रेखांकित किया है, उसे यूँ बदला है।
//न जाने कितने मराहिल हैं ज़ह'न में मेरे
मैं उलझनों में हूँ मुझको कहाँ ठहरना है//

मुझे लग रहा है कि उतरना शब्द के कारण कन्फ़्यूज़न की स्थिति बनी, उसका उपयोग एक खास कारण से किया था, मगर बताना पढ़ रहा है तो मैं मानता हूँ कि शे'र कमज़ोर है। दूसरा मिसरा आपके सुझाव के अनुरूप बदल लिया है।
उन्हें चमन से न फूलों से है कोई रग़बत
मगर मुझे न यूँ सहराओं में विचरना है


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Comment by शिज्जु "शकूर" 2 hours ago

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, ग़ज़ल को समय देने एवं उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए आपका हार्दिक आभार

Comment by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी 19 hours ago

आदरणीय सौरभ सर, मैं इस क़ाबिल तो नहीं... ये आपकी ज़र्रा नवाज़ी है। सादर। 

Comment by Sushil Sarna 19 hours ago

आदरणीय जी  इस दिलकश ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारकबाद सर

Comment by Nilesh Shevgaonkar 22 hours ago

आ. शिज्जू भाई,
एक लम्बे अंतराल के बाद आपकी ग़ज़ल पढ़ रहा हूँ..
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है.
मैं देखता हूँ तुझे भी वो सब दिखाई दे
मुझे कभी न कोई ऐसा शग्ल करना है.. इस शेर तक मैं पहुँच नहीं पा रहा हूँ.. शाम को फोन पर समझने का प्रयास करूँगा .
ग़ज़ल के लिए बधाई 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey yesterday

आदरणीय अमीरुद्दीन साहब, आपने जो सुझाव बताए हैं वे वस्तुतः गजल को लेकर आपकी समृद्ध समझ और आपके अनुभवों का परिचायक हैं.  भाई शिज्जू जी, इन सुझावों के बरअक्स आपनी राय दें और अपने अनुसार और कुछ कहें, तो यह गजल और निखर जाएगी. 

शुभ-शुभ

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