दोहा सलिला:
गले मिले दोहा यमक...
संजीव 'सलिल'
*
गले मिले दोहा यमक, झपक लपक बन मीत.
गले भेद के हिम शिखर, दमके श्लेष सुप्रीत..
गले=कंठ, पिघले.
पीने दे रम जान अब, ख़त्म हुआ रमजान.
कल पाऊँ, कल का पता, किसे? सभी अनजान..
रम=शराब, जान=संबोधन, रमजान=एक महीना, कल=शांति, भविष्य.
अ-मन नहीं उन्मन मनुज, गँवा अमन बेचैन.
वमन न चिंता का किया, दमन सहे क्यों चैन??
अ-मन=मन रहित, उन्मन=बेचैन, अमन=शांति, वमन=उलटना, वापिस फेंकना, दमन=दबाना.
जिन्हें सूद प्यारा अधिक, और न्यून है मूल.
वे जड़ जाते भूल सच, जड़ न बढ़े बिन मूल..
मूल=मूलधन, उद्गम, जड़=मंदबुद्धि, पौधे की जड़.
है अजान सच से मगर, देता रोज अजान.
अलग दीखते इसलिए, ईसा रब भगवान..
अजान=अनजान, मस्जिद से की जानेवाली पुकार.
दस पर बस कैसे करे, है परबस इंसान.
दाना पाना चाहता, बिन मेहनत नादान ..
पर बस= के ऊपर नियंत्रण, परबस=अन्य के वश में.
श्लेष अलंकार:
दस=दस इन्द्रियाँ, जन्म से १० वें दिन होने वाली क्रियाएँ या दश्तौन, मृत्यु से १० वें दिन होनेवाली क्रियाएँ या प्रेत-कृत्य, दसरंग मलखंब की कसरत,
दाना=समझदार, अनाज का कण.
दहला पा दहला बहुत, हाय गँवाया दाँव.
एक मिला पाली सफल, और न चाहे ठाँव..
दहला=ताश का पता, डरा,
श्लेष अलंकार: एक=इक्का, ईश्वर. पाली=खेल की पारी, जीवन की पारी.
***
Acharya Sanjiv Salil
Comment
धन्य धन्य आचार्य जी, धन्य आपका बोल.
एक एक यह दोहरा, रचा बहुत अनमोल..
आदरणीय आचार्यजी,
द्वैत और विषिष्टाद्वैत के तथ्यों का संदर्भ लेती हुयी आपकी सोदाहरण व्याख्या ने मेरी उत्सुकता तथा जिज्ञासा को सम्यक रूप से संतुष्ट किया है.
सादर
मेरी बाल बुद्धि के अनुसार 'जड़' और 'मूल' के परिस्थिति अनुसार कहीं-कहीं समान और कहीं-कहीं भिन्न अर्थ होते हैं. किसी पौधे की जड़ रोपी जाए तो उसका मूल वह पौधा होगा जिसकी जड़ लाई गयी. बीज और कलम लगाते समय वे मूल हैं किन्तु जड़ तो बाद में उत्पन्न होगी. 'जड़-मूल से उखाड़ देने' की कहावत भी दोनों का भिन्न अस्तित्व बताती है.
'कंद-मूल-फल' में मूल का अर्थ जड़ से भिन्न नहीं है क्या?
मानवीय आचार-विचार में 'जड़ता' मंद बुद्धि, परिवर्तनहीन, अ-लचीला, यथास्थितिवादी होने के अर्थ में भी व्यवहृत किया जाता है.
जिन्हें सूद प्यारा अधिक, और न्यून है मूल.
वे जड़ जाते भूल सच, जड़ न बढ़े बिन मूल..
मूल=मूलधन, उद्गम, जड़=मंदबुद्धि, पौधे की जड़.
उक्त दोहे में मूल का द्वितीय अर्थ पौधे के उद्गम बीज से है जो पौधे की जड़ से भिन्न होती है तथा बाद में उत्पन्न होती है. आशय अभिव्यक्त न हो सका हो तो यह मेरी असामर्थ्य है.
शब्द कोष के अनुसार-
जड़- स्त्रीलिंग, पेड़-पौधों का वह भाग जो जमीं के अन्दर रहता है और जिसके द्वारा वे पोषण प्राप्त करते हैं, मूल, नींव, आधार, मूल कारण, मुहावरा जड़ उखाड़ना = समूल नाश करना. जड़ काटना/खोदना = तबाह करने की कोशिश करना, भारी हानि पहुँचना. जड़ जमना/पकड़ना = पौधे का अच्छी तरह से जम जाना, दृढ़ होना. जड़ में पानी देना =जड़ खोदना.
जड़ता- स्त्रीलिंग, जड़त्व पुल्लिंग, जड़ होने का भाव, अचेतनता, अज्ञान, मूर्खता, एक संचारी भाव जो उस स्तब्धता या चेश्ताहीनाता का द्योतक है जो प्रिय व्यक्ति से वियोग होने या घबराहट आदि की स्थिति में नायक/नायिका में परिलक्षित होती है. इनर्शिया- वस्तु की विराम दशा या सीधी रेखा की एक समान गति को बनाये रखने की प्रवृत्ति. तेज भागती मोटरकार जब अचानक रुकती है तो जड़त्व गुण के कारण मोटर में बैठा व्यक्ति आगे को लुढ़क जाता है.
मूल-पुल्लिंग, जड़, कंद, आदि कारण, उत्पत्तिस्थान, आरम्भ, ग्रंथकार की मूल शब्दावली, मूलधन, हाथ-पाँव का आदि भाग (भुजमूल, पादमूल), वस्तु का निचला भाग, पादप्रदेश (पर्वतमूल), चरण, २७ नक्षत्रों में से उन्नीसवाँ, गुणित राशि का मूल, निकुंज, सूरन.
जड़ का पूर्व रूप बीज या कलम है किन्तु दोनों व्यवहार जगत में एक नहीं हैं. निस्संदेह जीवों का मूल आत्मा, और आत्मा का मूल परमात्मा है किन्तु किसी जीव को आत्मा या परमात्मा केवल आध्यात्म की दृष्टि से कहा जाता है, व्यवहार में उसे उसके नाम या जाति से ही जाना जाता है. विविध कोशों में इसी दृष्टि से जड़ के दोनों प्रयोग और अर्थ दिये गये हैं.
बीज या कलम बोया न जाए तो जड़ से उसका कोई सम्बन्ध न होगा किन्तु उसका अपना अस्तित्व तो उसी के नाम से जाना जायेगा.
विवेच्य पंक्तियों में जड़ शब्द को इन दो अर्थों में ही प्रयोग किया गया है. अस्तु...
आपने पंक्तियों को ध्यान देकर आत्मसात कर इस चर्चा के माध्यम से मुझे अधिक सजग होने का अवसर प्रदान किया, आपके औदार्य को नमन. .
श्लेष और यमक की छप्पकछैंया खेलते शब्द और उनसे उमगता शास्त्रीय चमत्कार ! आदरणीय आचार्य सलिलजी आपके दोहों ने कमाल का प्रदृश्य उपलब्ध कराया है.
//दस पर बस कैसे करे, है परबस इंसान.
दाना पाना चाहता, बिन मेहनत नादान //
इस दोहे में तो इतना कुछ भरा है और एक पाठक के तौर पर लगातार सोचते जाने के क्रम में इतना कुछ प्राप्त होता जाता है कि, सच कहूँ, तो कुछ पल के लिये शास्त्रीय ’संयम’ की स्थिति बन आती है.
[’संयम’ संदर्भ पतंजलि योग सूत्र; त्रयमेकत्र (धारणा, ध्यान, समाधि) संयमः (विभूतिपाद - 4)]
//है अजान सच से मगर, देता रोज अजान.
अलग दीखते इसलिए, ईसा रब भगवान..//
बहुत कुछ इंगित हुआ है.. बहुत खूब.
मेरी हार्दिक भावनाएँ संप्रेषित हैं, कृतार्थ करेंगे.
और अंत में, उत्सुकतावश पूछ रहा हूँ, जड़ को आपने शाखाओं का आयाम दिया है क्या ? वस्तुतः, जड़ को हमने मूल के समानान्तर देखा है.
सादर
bagee ji
dhanyavad.
आचार्य जी सभी दोहे चमत्कारी प्रभाव उत्पन्न करते है, अलंकारों का प्रयोग रचना में चार चाँद लगा रहे है | बहुत बहुत बधाई इन मनमोहक दोहों के लिए |
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