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ताज़ा ग़ज़ल : टूट के कर गया आशियां दर ब दर

बह्र  212 212 212 212

टूट के  कर गया आशियां दर ब दर

घूमते फिर रहे हम यहां दर ब दर

 

आ गये  लौट कर अक्‍ल वाले सभी    

पर जुनूं में हुए लामकां दर ब दर

 

कमसिनी छोड़कर अब महकने लगे 

जख्‍म मेरे हुए बेकरां दर ब दर

 

खाल में भेड़ की भेडि़ये घुस गये

मर गये मेमने बकरियां दर ब दर

 

हो सकी क्‍या हमें खुद हमारी सनद

फिर रहा आदमी बेनिशां दर ब दर

हम कहां से चले थे कहां आ गये

कर रही है हमें दूरियां दर ब दर

 

नस्‍ले आदम कहीं खो न जाए कि यूँ

कोख में हो रही बेटियां दर ब दर

 

फागुनी रंग  है चैत की रात में

हो गई जिस्‍म की सर्दियां दर ब दर

 

( मौलिक एवं अप्रकाशित )

 

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Comment

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Comment by Ravi Shukla on August 3, 2015 at 12:50pm

आरणीय आशुतोष जी आपका आभार ।आपको ग़ज़ल पसंद आई शेर को रेखांकित करने के लिये पुन: आभार

Comment by Ravi Shukla on August 3, 2015 at 12:49pm

आरणीय हर्ष जी ग़ज़ल आपको पसंद आई आभारी हैं हम । धन्‍यवाद

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 1, 2015 at 2:53pm

नस्‍ले आदम कहीं खो न जाए कि यूँ

कोख में हो रही बेटियां दर ब दर  आदरणीय रवि जी इस सुंदर ग़ज़ल के हर शेर भाये पर इस शेर के लिए बिशेस रूप से दाद क़ुबूल करें सादर 

Comment by Harash Mahajan on July 31, 2015 at 3:08pm

आदरणीय Ravi Shukla जी बहुत ही उम्दा पेशकश हुई है | दाद कबूल कीजियेगा !! साभार !!

Comment by Ravi Shukla on July 31, 2015 at 3:05pm

आरणीय राहुल जी आपका भी आभार

Comment by Ravi Shukla on July 31, 2015 at 2:29pm

आभार आदरणीय समर कबीर जी

आपसे दाद पाकर हौसला बढ़ेगा

अनुग्रह बनाये रखे

Comment by Samar kabeer on July 30, 2015 at 11:43pm
जनाब रवि शुक्ल जी,आदाब,बहुत ही मुरस्सा ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,कमाल शाइरी है साहिब,सुनकर दिल बाग़ बाग़ हो गया,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
Comment by Ravi Shukla on July 30, 2015 at 3:19pm

अवश्‍य आदरणीय मिथिलेश जी

भविष्‍य मे ध्‍यान रखेंगे

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 29, 2015 at 10:54pm
बहुत सुन्दर गजल हुई आदरणीय दाद कबूल करें।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 29, 2015 at 8:47pm

आदरणीय रवि जी मंच की परंपरा अनुसार ग़ज़ल की बह्र २१२-२१२-२१२-२१२ लिख दीजियेगा...सादर 

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