खूब सूरत है नज़ारे क्या करें
गुरबतों के लोग मारे क्या करें
सो गए फुटपाथ पर जोखिम मगर
नींद जो उनको पुकारे क्या करें
साल मे इक माह मिलती छुट्टियां
चॉंद को गर ना निहारे क्या करें
भेज दी तनख्वाह सारी गांव फिर
सूद या कर्जा उतारे क्या करें
चंद सिक्के रख लिये है आददतन
ये मेरे तनहा सहारे क्या करें
डाकिये के हाथ में उम्मीद है
देखते है लोग सारे क्या करें
जब विदा होती है बेटी कोइ भी
ऑंख के टूटे किनारे क्या करें
( मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई
आपकी दाद मिलना अच्छा संकेत है
शेर कहने के अपने अभ्यास के लिये ही चर्चा थी कि सही दिशा मे जा रहे या नहीं
और कुछ नही
आपकी टिप्पणी ह्दय से स्वीकार है
सदैव स्वागत एवं पुन : आभार
एक निवेदन मेरी टिप्पणी के इस भाग को पूरे मन से पुनः पढ़ेंगे तो बेहतर होगा----->
//आदरणीय रवि जी, बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. कल से इस ग़ज़ल को कई बार पढ़ चुका हूँ. हर शेर को गहराई तक मससूस भी कर रहा हूँ. बेजोड़ मतले से ग़ज़ल शुरू होती है और आखिरी शेर तक बांधे रखती है ....शेर दर शेर दाद हाज़िर है //
कोई शेर ग़ज़ल से खारिज नहीं किया जा सकता .....
डाकिये के हाथ में उम्मीद है
देखते है लोग सारे क्या करें..... बढ़िया शेर...........इस शेर के बहाने आपने बिलकुल पुराने दिन याद दिला दिया चिट्ठियों का इंतज़ार हमने भी खूब किया है और गर्मी की छुट्टियाँ भी बिताई है. आपने बढ़िया शेर वाली टिप्पणी पर गौर नहीं किया, लगता है .... ये बहुत अच्छा शेर है कितना कुछ भीतर से गुजर गया इसे पढ़ते हुए. उन्ही सुहावने अतीत के खो जाने और आज की ईमेल संकृति पर तनिक व्यंग्य करते तुकबंदी कर दी. वो केवल बतकही है वो भी इशारों में. आपका ये शेर बहुत अच्छा है और पूरी सघनता से प्रभावित करता है इसलिए इसे हटाने का तो सोचिये भी मत.... आपके सभी शेर दिल तक पहुंचे है और एक एक पर दिल से दाद निकली है. बाकि बातें मंच पर अभ्यास के क्रम में है .... बहुत उम्दा ग़ज़ल पर पुनः बधाई
आपने लिखा है //ग़ज़ल इशारे की विधा है इस से आप भी सहमत होंगे//
तो थोड़ा हम पाठको के इशारे भी आप समझिये. हम भी तो प्रतिक्रिया इशारों में भी करते है. भाई मंच की समरसता के लिए जरुरी है.
सादर.....
// जब विदा होती है बेटी कोइ भी
ऑंख के टूटे किनारे क्या करें // , वाह , वाह , बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय | दिली दाद क़ुबूल करें.
आरणीय मिथिलेश भाई
आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा थी आभार
आदतन की टंकण ना के वज्न और कोइ की वैचारिक त्रुटि को बयाज और अभ्यास में सही कर लिया है आभार
इस गजल के पीछे कुछ दृश्य और बिंब है जिनको बयान करने की कोशिश है । ग़ज़ल इशारे की विधा है इस से आप भी सहमत होंगे
हमने अपने बचपन में कुछ परिवारों में देखा था कि चिठ्ठी की प्रतीक्षा होती थी पति परदेश में काम करते थे डाकिये के आते ही रौनक हो जाती थी इसी चित्र में दिहाड़ी मजदूरों के दृश्य भी है जो मनी आर्डर करते थे । वो साल में एक माह की छुट्टी लेकर जाते थे बाकी समय यादों के सहारे गुजार देते थे ऐसे में चिट्टियां, घर भेजी तनख्वाह आदि लेकर डाकिया आता था तो वहां का नजारा ऐसा ही कुछ होता था जिसको कहने की कोशिश की है मगर बह्र में सीमित भी होना था । और उस समय ईमेल तो क्या घरो में लैंड लाईन फोन भी नहीं था ।
इस शेर को हमारे बचपन मे देखे परिवारों के पति और परदेश में काम कर रहे मजदूरों की नजर से देखें यदि शेर अपने आप नहीं पहुच रहा तो इसे ग़ज़ल से खारिज किया जा सकता है पांच शेर भी पर्याप्त है । आखिरी शेर हमें भी पंसद है ।
आपसे विचार साझा करके बहुत अच्छा लगा । स्नेह बनाये रखें
और हां हमें छुट्टिया तो सही है साल में 30 मिल जाती है पर लैप्स हो रही है अब तो ।
पुन: आभार स्व्ीकार करें ।
आदरणीय रवि जी, बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. कल से इस ग़ज़ल को कई बार पढ़ चुका हूँ. हर शेर को गहराई तक मससूस भी कर रहा हूँ. बेजोड़ मतले से ग़ज़ल शुरू होती है और आखिरी शेर तक बांधे रखती है ....शेर दर शेर दाद हाज़िर है -
खूब सूरत है नज़ारे क्या करें
गुरबतों के लोग मारे क्या करें............ बेजोड़ मतला
सो गए फुटपाथ पर जोखिम मगर
नींद जो उनको पुकारे क्या करें.......... शानदार शेर ....सीधा दिल को लगा
साल मे इक माह मिलती छुट्टियां
चॉंद को गर ना निहारे क्या करें............ चलो आपको एक माह तो मिलती है इधर तो चाँद को निहारने के भी लाले पड़े है. सुन्दर
यह भी अवश्य है कि अरुज अनुसार ना का वज्न भी 1 ही होता है. इसलिए परंपरा में ग़ज़ल में ना का प्रयोग उचित नहीं मानते
भेज दी तनख्वाह सारी गांव फिर
सूद या कर्जा उतारे क्या करें............... बढ़िया शेर .... आर्थिक विवशता को बड़े ही सधे ढंग शाब्दिक किया है
चंद सिक्के रख लिये है आददतन
ये मेरे तनहा सहारे क्या करें............... बहुत बढ़िया .... आददतन में टंकण त्रुटी हुई है.
डाकिये के हाथ में उम्मीद है
देखते है लोग सारे क्या करें..... बढ़िया शेर .... बाकी आजकल //हाथ में उम्मीद है ईमेल के/देखते है लोग सारे क्या करें//
जब विदा होती है बेटी कोइ भी
ऑंख के टूटे किनारे क्या करें.............. बहुत ही मार्मिक शेर हुआ है..... कोई की वर्तनी टंकण में बदलने की जरुरत नहीं है. पाठक खुद मात्रा गिराकर पढ़ लेगा. यही इस बह्र की शक्ति है एक बार लय बन गई फिर मात्राएँ अपने आप सही गिरने लगती है
इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई सादर
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